NEW DELHI: देश की चुनाव प्रक्रिया में कुछ साल पहले एक बड़ा बदलाव किया गया था और उसके लिए जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह है तो इंग्लिश का लेकिन हिंदी और दूसरी भाषाओं में भी उसने खूब नाम कमाया है। उस शब्द का नाम है नोटा ( NOTA, None of the Above )। यानि ‘इनमें से कोई नहीं’। वोटिंग का यह एक नया सिस्टम था, यानि वोटर चाहे तो वह आधिकारिक रूप से चुनाव आयोग ( ECI) को बता सकता है कि जितने भी प्रत्याशी हैं, वह इनमें से किसी को भी वोट नहीं दे रहा है। हम आपको बताएंगे कि NOTA को किस मकसद से लाया गया था और यह अपने उद्देश्य में सफल (successful in purpose ) रहा है या नहीं?
वर्ष 1961 से सिस्टम था, लेकिन प्रचलित नहीं
अगर हम चुनाव से जुटा लिटरेचर पढ़ेंगे तो पाएंगे कि शुरू से ही यह चर्चा चलती रही थी कि वोटर के पास इस बात का भी अधिकार होना चाहिए कि वह चुनाव में विरोधस्वरूप किसी को वोट नहीं देने जा रहा है, या प्रत्याशियों में कोई भी इस लायक नहीं है, जिसे वोट दिया जा सके। चुनाव आयोग के सूत्रों के अनुसार साल 1961 में 49-O फॉर्म का प्रावधान किया गया। अगर वोटिंग के समय कोई वोटर किसी को वोट नहीं देना चाहता तो वह इस फार्म को भरकर रिटर्निंग अफसर को जमा करा देता था। लेकिन इसका प्रचार बहुत अधिक नहीं था, पढ़ा-लिखा वोटर ही इसे भर पाता था, दूसरे जो विरोध जताता था उसकी जानकारी सभी को पता होने की संभावना बनी रहती थी, इसलिए यह फार्म बहुत प्रचलित नहीं हो पाया।
कब मिला वोटरों को NOTA का विकल्प
नया सिस्टम NOTA का प्रावधान 2013 में आया है। जब सुप्रीम कोर्ट ने इसको लेकर लंबी सुनवाई की। आयोग से पूछताछ की और फिर इसे लागू किया गया। उस दौर में बैलेट पेपर से चुनाव का प्रावधान था इसलिए उसी साल दिल्ली, छत्तीसगढ़, मिजोरम, राजस्थान और मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में पेपर में NOTA का विकल्प दिया गया। उसके बाद वर्ष 2015 में इलेक्ट्रॉनिक्स वोटिंग मशीन ( EVM ) का प्रचलन बढ़ने से उसमें NOTA का विशेष चिन्ह बना दिया गया। उस दौरान वोटरों में नए विकल्प का रुझान बढ़ा और विधानसभा व लोकसभा चुनावों में NOTA के खाते में काफी वोट गए। कुछ चुनाव क्षेत्रों में तो NOTA वोट रनर-अप कैंडिडेट के बाद तीसरे नंबर पर रहे और कुछ दलों को मिले कुल वोटों से भी अधिक नजर आए। यानि लोगों की NOTA में रुचि बढ़ी।
क्या था NOTA का मकसद
असल में यह विकल्प सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद शुरू किया गया था। देश के प्रबुद्ध लोगों और कुछ राजनीतिक पार्टियों ने तब NOTA के विकल्प की मांग की थी, जिसके बाद कोर्ट ने चुनाव आयोग से लंबी बातचीत की और इस विकल्प को लागू कर दिया गया। तब बताया गया था कि NOTA के लागू होने से पार्टियों को यह प्रेशर रहेगा कि वे चुनाव में साफ छवि वाले उम्मीदवार उतारें। अगर वोटर को लगता है कि कोई भी प्रत्याशी वोट देने के लायक नहीं है तो वह NOTA का प्रयोग कर सकता है। इसका एक मकसद यह भी था कि लोग ज्यादा से ज्यादा वोटिंग के लिए आएं और अपना विरोध भी जता सकें। शुरुआती दौर में तो इसका कुछ असर नजर आया। लेकिन बड़ी बात यह थी कि इस विकल्प के चलते न तो वोटिंग में कोई बदलाव हुआ न ही चुनाव के नतीजों पर इसका कोई असर हुआ।
क्या अपने उद्देश्य मे सफल हो पाया यह विकल्प
देश के जाने माने संविधान विशेषज्ञ व लोकसभा के पूर्व सचिव एसके शर्मा के अनुसार यइ प्रयोग बहुत ज्यादा प्रभावी नहीं रहा। असल में किसी चुनाव में अगर सबसे अधिक वोट NOTA को मिलते हें तो भी वहां दोबारा चुनाव कराने का प्रावधान नहीं था। यानि दूसरे नंबर के प्रत्याशी को विजेता घोषित कर दिया जाता है। दूसरे, इसके चलते चुनाव में साफ छवि वाले नेताओं का प्रतिशत नहीं बढ़ पाया, जिसकी उम्मीद की जा रही थी। ये ठीक बात है कि वोटिंग का प्रतिशत कुछ बढ़ा और हार-जीत का मार्जिन प्रभावित हुआ, लेकिन रिजल्ट में कोई बदलाव नहीं आ पाया। शर्मा के अनुसार अब NOTA का प्रभाव घटने लगा है। पिछले दो-एक चुनावों से यह ट्रेंड दिख रहा है कि लोग NOTA के बजाय प्रत्याशियों को वोट देने लगे हैं।
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