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Photograph: (The Sootr)
अध्यक्ष पद की कमान संभालते ही हेमंत खंडेलवाल ने ये संकेत दे दिए हैं कि वो पार्टी लाइन का बहुत सख्ती से पालन करने और कराने वाले हैं। लेकिन क्या ये इतना आसान होगा। ये तय है कि खंडेलवाल के इस पद पर आने के बाद पार्टी में बदलाव की झड़ी लग जाएगी। पर खंडेलवाल के लिए भी आने वाली राह बहुत आसान नहीं है। उन्हें ऐसी विरासत मिली है जो बेहद कामयाब रही है। इसलिए किसी से चैलेंज लेने से पहले खंडेलवाल को खुद से चैलेंज लेना होगा। इसके अलावा भी कुछ चुनौतियां होंगी जिससे पार्टी के नए अध्यक्ष दो चार होंगे।
कोई बहुत चैलेंजिंग पॉजिशन मिलती है तो कहा जाता है कांटों से भरा ताज मिलना। लेकिन खंडेलवाल के लिए मामला उल्टा है। उन्हें मखमलों से भरा सिंहासन मिला है। कामयाबी के पंखों से सजा ताज मिला है और जीत के तमगों से भरा हार मिला है। इसके बाद भी खंडेलवाल के लिए चैन से बैठना आसान नहीं होगा। वो जहां भी जाएंगे यकीनन कार्यकर्ता उनके रास्तों में फूल बिछाएंगे। दिखने में तो वो गुलाब होंगे लेकिन खंडेलवाल को हर कदम पर कांटों की चुभन भी झेलनी ही पड़ेगी।
पार्टी को अच्छी तरह समझते हैं खंडेलवाल
वीडी शर्मा के लंबे कार्यकाल के बाद हेमंत खंडेलवाल को ये पद संभालने का मौका मिला है। वो पर्सनली सीएम मोहन यादव की पसंद माने जाते हैं। इसके अलावा वो संघ के करीबी भी हैं। पार्टी को अच्छी तरह से समझते हैं। शायद इसलिए सबसे पहले यही अल्टीमेटम दिया है कि पार्टी की रीति नीति से जरा भी इधर उधर होना किसी के लिए भी अच्छा नहीं होगा। इसके अलावा भी कुछ कारण ऐसे हैं कि वो इस पद की रेस जीतने में कामयाब रहे।
विवादों से रहे हैं दूर
दुर्गादास उइके, नरोत्तम मिश्रा जैसे धुरंधर उनसे ये रेस हार गए। इसके मोटे मोटे कारणों पर पहले बात कर लेते हैं। अक्सर सफेद शर्ट या सफेद कुर्ता पहनने वाले खंडेलवाल की छवि भी पार्टी में उनके कपड़ों की ही तरह बेदाग है। वो अमूमन विवादों से दूर ही रहे हैं इसलिए पार्टी ने उन्हें चुना है। दूसरा कारण है संगठन से जुड़ा पुराना अनुभव। वो बैतूल में जिलाध्यक्ष पद पर रहे हैं। कोषाध्यक्ष का पद भी संभाल चुके हैं। इन पदों पर रहते हुए भी वो हमेशा लो प्रोफाइल रहे। उनके नाम पर कोई ऐसे बयान भी दर्ज नहीं हैं जो विवादित हों या अभद्र हों।
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कई समीकरण साधने की कवायद
खंडेलवाल के बहाने बीजेपी ने जातिगत समीकरण और क्षेत्रीय समीकरण साधने की कोशिश की ही है। फिलहाल सीएम मोहन यादव मालवा से आते हैं। डिप्टी सीएम जगदीश देवड़ा भी मालवा के ही हैं। दूसरे डिप्टी सीएम राजेंद्र शुक्ला की वजह से विंध्य संभला हुआ है। महाकौशल और बुंदेलखंड से मंत्री बने हैं। अब खंडेलवाल के बहाने मध्य को साधा गया है। इसके अलावा ओबीसी वर्ग के सीएम तो सामान्य वर्ग के प्रदेशाध्यक्ष बनाकर बीजेपी ने जातिगत समीकरण भी साधे हैं। देखा जाए तो ये जोड़ी भी शिवराज और वीडी शर्मा की जोड़ी की तरह ही है जिसके जरिए ओबीसी और सामान्य दोनों ही वर्ग संभालना आसान हो जाता है।
खंडेलवाल के सामने होंगी ये चुनौतियां
एक कारण खंडेलवाल का संघ का करीबी होना भी है। उनके चयन में संघ की सहमति भी शामिल मानी जा रही है। बीजेपी ने भी इस बार सांसद की जगह विधायक को चुना। उसके पीछे सोच ये मानी जा रही है कि लोकल लीडर होने से कार्यकर्ताओं में ज्यादा उत्साह होगा और संगठन ज्यादा मजबूत होगा। बस पार्टी की इसी अपेक्षा के साथ खंडेलवाल के सामने चुनौतियां शुरू हो जाती हैं।
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तैयार करनी है नई टीम
वैसे अभी चुनाव में तीन साल का वक्त है। इसका ये मतलब नहीं है कि खंडेलवाल के सामने बहुत ज्यादा समय है। जिस पद पर वो हैं, वहां तीन साल देखते देखते कब निकल जाएंगे इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। इन तीन साल में खंडेलवाल को सबसे पहले पार्टी की नई टीम तैयार करनी है। जिलाध्यक्षों की नियुक्ति के बाद हर जिला लेवल पर टीम बनानी है। कुछ और भी अहम काम हैं। जैसे निगम मंडलों में नियुक्ति करनी है। रूठे हुए नेताओं को मनाना है और बिदके हुए नेताओं को पार्टी लाइन पर वापस लाना है। चुनौतियां इतने पर ही खत्म नहीं होती।
वीडी शर्मा का कामयाबी भरा कार्यकाल
वीडी शर्मा के अध्यक्ष बनने के बाद से बीजेपी का सफर लाजवाब रहा है। सबसे पहले 2020 में बड़ा फेरबदल हुआ और बीजेपी की सत्ता में वापसी हुई। उसके बाद बीजेपी ने उपचुनाव भी जीते और 2023 में हुए विधानसभा चुनाव भी तबियत से जीता। लोकसभा चुनाव में तो बीजेपी ने कांग्रेस का सूपड़ा ही साफ कर दिया। खंडेलवाल के सामने चुनौती होगी जीत के इस सफर का बरकरार रखने की। इसलिए हमने कहा था कि भले ही ताज कामयाबी से भरा हुआ मिला हो लेकिन उस कामयाबी को बरकरार रखना बड़ी चुनौती होगा। क्योंकि कांग्रेस भी सत्ता में वापसी के लिए पूरी ताकत लगा रही है।
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कांग्रेस से मिलने वाली है टक्कर
राहुल गांधी ने अपनी रणनीति में कई बदलाव किए हैं। कांग्रेस उसी तर्ज पर संगठन को मजबूत करने की राह पर चल पड़ी है। खंडेलवाल को भी तीन साल के भीतर नई टीम बनानी है। मंडल स्तर से लेकर जिला स्तर तक लोगों को तैनात करना है। इसके साथ ही आदिवासी वर्ग को साधना है। जो हार जीत पर काफी असर डालते हैं। कांग्रेस इस वर्ग की पहली पसंद रही है। आदिवासियों के खिलाफ एक छोटी सी घटना भी आग में घी का काम करती है इसलिए डैमेज कंट्रोल में भी जुटे रहना है। इसके अलावा कर्मचारी वर्ग, अनुसूचित जाति, दूसरे पिछड़े वर्ग को साधने के लिए भी रणनीति बनानी ही होगी।
बड़बोले और तुनकमिजाज नेताओं को होगा संभालना
सत्ता और संगठन में तालमेल बनाने के साथ ही उन्हें ऐसे नेताओं को संभालना है जो अपनी नाराजगी जाहिर करने में जरा भी देर नहीं करते। ट्विटर से लेकर मीडिया के कैमरे तक उनके गुस्सा का गवाह बन जाते हैं। ऐसे कुछ सीनियर लीडर्स के साथ उन्हें ऐसे लीडर्स को भी संभालना है जो गैर वाजिब बयानबाजी के लिए मशहूर हो चुके हैं। कुंवर विजय शाह इसका सबसे ताजा उदाहरण हैं। ग्वालियर चंबल के हिस्सों में उन्हें पुरानी भाजपा और महाराज भाजपा के अंतर को भी पाटना है। देखना ये है कि खंडेलवाल इन चुनौतियों के साथ बीजेपी की जीत का सफर कितना जारी रख पाते हैं।
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इस नियमित कॉलम News Strike के लेखक हरीश दिवकेर मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं
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