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बस्तर के आदिवासी समाज की गहरी समझ रखने वाले वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरबिंद नेताम ने हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के निमंत्रण पर अपनी वैचारिक यात्रा और आदिवासी पहचान के सवालों पर खुलकर बात की। द सूत्र से विशेष बातचीत में उन्होंने न केवल संघ की विचारधारा से अपनी असहमति को स्पष्ट किया, बल्कि आदिवासियों की संस्कृति, परंपराओं और उनके सामने मौजूद चुनौतियों जैसे धर्मांतरण, औद्योगिकीकरण और विस्थापन के गंभीर मुद्दों पर भी गहरी चिंता जताई। नेताम का मानना है कि आदिवासी समाज को समझने के लिए जरूरी है कि उनकी मूल पहचान को स्वीकार किया जाए, न कि उन्हें किसी और चश्मे से देखा जाए। नक्सलवाद से लेकर पेसा कानून की अनदेखी और विकास की परिभाषा तक, इस बातचीत में नेताम ने आदिवासियों के हितों और उनके अस्तित्व से जुड़े सवालों को बेबाकी से उठाया, जो न केवल विचारणीय हैं, बल्कि देश के नीति-निर्माताओं के लिए एक आईना भी पेश करते हैं।
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संघ से बुलावा सौभाग्य की बात
द सूत्र - बस्तर में आदिवासियों की समस्या आप बखूबी समझते हैं। वहीं आरएसएस एक बड़ा सामाजिक संगठन है, वह भी वनवासी कल्याण आश्रम के नाम से काम कर रहा है। आप वैचारिक रूप से तो कभी उसके समर्थन में नहीं रहे, उस संघ का आपको बुलाना इसे आप किस नजरिये से देखते हैं?
वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरबिंद नेताम ने कहा, यह सही है कि मैं वैचारिक रूप से संघ से कभी भी सहमत नहीं था। मेरा संघ से कोई लगाव भी नहीं है। इसके बावजूद संघ ने मुझे बुलाया तो आश्चर्य भी हुआ। फिर भी इस बुलावे को अपने लिए सौभाग्य की बात समझता हूं। संघ हर मुद्दे पर चिंतन और मंथन करते हैं। यह बहुत अच्छी होती है। संघ आदिवासी समाज का कल्याण चाहता हैं तो आदिवासियों को नागपुर वाले संघ के चश्मे से ना देखें, जब वह आदिवासियों के चश्मे से देखेंगे तो उनको समझ पाएंगे। नहीं तो आदिवासी समाज को समझना बहुत मुश्किल है। मैं जब वहां जाउंगा और उनसे मिलूंगा तो कहूंगा कि आपकी अपनी विचारधारा उससे हमें कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन कुछ हमारी बातें भी हैं। उनको समझिए और उस पर भी मंथन कीजिए। इसके बाद अगर उसमें कोई संशोधन कर सकते हैं तो जरूर करिए। नहीं कर सकते हैं तो कोई बात नहीं है, क्योंकि आपकी अपनी विचारधारा है। अब हम राजनीति से अलग हो गए हैं। हालांकि संघ की समाज में अपनी एक भूमिका है,इसलिए इनमें संवाद बनाना चाहिए। हम जितना दूर रहेंगे उतना ही फासला बढ़ेगा।
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संघ को बुलाया चीफ गेस्ट के रूप में
हमने राजाराम पठार में आयोजित वीर नारायण मेला में पहली बार संघ को चीफ गेस्ट के रूप में बुलाया। वे लोग भी इससे उत्साहित हुए और रियलाइज किया कि समाज से उनकी कोई बात नहीं होती है। वन कल्याण आश्रम से जुड़े लोग संघ ही बात करते हैं। हम महसूस करते हैं कि उनको अभी तक उन इलाकों में सफलता क्यों नहीं मिली? कार्यकलाप में बदलाव की बात कही। जशपुर में आपकी जो संस्था है, उसके कार्यकलाप में बदलाव कीजिए। हमने उनको कहा कि वनवासी शब्द कहना बंद कीजिए। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है और धीरे-धीरे उसका पालन कर रहे हैं। दूसरी बात उन्होंने कही कि हमारी अपनी परंपरा और रीति रिवाज हैं। अपनी पूजा की पद्धति है, वह अपनी जगह है। और आप उसे अपने तरीके से थोपने का प्रयास करोगे फिर नहीं चलेगा। हमारे रिजनल सिस्टम को मान्यता तो दीजिए। मान्यता नहीं देंगे तो अपनापन कहां से आएगा? आप सभी समाज को लेकर चलते हो और सोचते हो कि हम तो सनातनी हैं। इसमें कोई दिक्क्त आई। फिर बात आई कि आप लोग भी तो हिंदू थे। मैंने कहा कि यह कौन कहता है वोट की राजनीति के वाले कहते हैं। आप बताएं यह बात बाहर के कौन लोग कहते हैं? वोट की राजनीति में यह सब चलेगा। एक खत्म होगा तो दूसरे नारे शुरू हो जाएंगे।
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द सूत्र - यह अक्सर मुद्दा उठता है कि संघ की तरफ से यह कहा जाता है कि आदिवासी तो हिंदू ही होता है।फिर उस पर एक बहस छिड़ जाती है कि ऐसा होता है या नहीं] इसे आप कैसे देखते हैं?
हमारा यह कहना है कि हम संघ की विचारधारा से थोड़ा डीफर करते हैं। कैसे इन द सेंस कि मेरी कम्यूनिटी को देखेंगे तो आधे सनातनी है और आधा ओरिजनल हैं। मैदानी इलाके में सनातनी में ज्यादा प्रभावित हैं तो जंगल के इलाके में ओरिजनल हैं। पर, मूल तो ओरिजनल ही है ना। हमारा कहना है कि आप इनको रिकोनाइज तो करो। जैन धर्म और बौद्ध धर्म आपके बीच से पैदा हुए और आपने उनको मान्यता दिया। हम मूल निवासी ने क्या पाप किए हैं कि आप हमें मान्यता देने में क्यों हिचकते हैं? यह सिस्टम तो आप लोगों ने ही बनाया है। हमने तो बनाए नहीं है।
द सूत्र - आदिवासियों की आईडेंटिटी की बात होती है तो मूल निवासी होना उनकी पहचान होनी चाहिए? अगर धार्मिक पहचान की बात होती है तो...
आप धर्मकोड की बात कर रहे हैं। उसमें यह बात कहते हैं तो थोड़ा सा कंवेंस भी हो जाते हैं। बौद्ध धर्म और जैन धर्म की मान्यता सनातन से अलग नहीं है। आप क्यों ऐसा सोच लेते हो कि धर्म कोड दे देगें तो हम बाहर हो जाएंगे। सनातनी और ओरिजनल आदिवासी में इतना मिक्सअप हो गया है कि मैदानी इलाके में सनातनी हैं तो जंगल इलाके में ओरिजनल है।
द सूत्र - सनातन संस्कृति तो प्रकृति उपासक भी है?
हजारों से साल में यह सब आपस में मिक्सअप हो गया है कि उसको अलग करना भी बड़ा मुश्किल है। ये सब धीरे-धीरे होता है। हम तो अपनी पहचान के लिए कर रहे हैं।
द सूत्र..आदिवासियों के सामने दो सबसे बड़े मुद्दे कौन से हैं? जिस पर चिंतन होना चाहिए?
मेरे नजर तो सबसे पहले धर्मांतरण वाला मामला है। उनका अस्तित्व खतरे में है। दूसरा औद्योगिकरण के कारण जो विस्थापन होगा और जल, जंगल और जमीन अगर खतरे में होगा। जब सरकार इस मामले में इतनी उदार हो गई है कि ट्राइबल हित पर आंख मूंद कर बैठी है। कितने उजड़ रहे हैं, कहां जा रहे हैं, कैसे करेंगे इसका कोई पता नहीं है। पर्यावरण का क्या होगा? मेरे हिसाब से आज के समय में दो प्रमुख मुद्दे हैं। उदारीकरण की नीति 1991 में आई तो बहुत से एक्सपर्ट लोगों ने कहा था कि उदारीकरण शिड्यूल कास्ट और शिड्यूल ट्राइब के खिलाफ जाएगा। इस पर हमलोगों ने भी एक्सपर्ट से स्टडी करवाई तो यही बात सामने आई। नौकरी खत्म हो जाएगी। सब प्राइवेट सेक्टर में तब्दील हो जाएगा। वे जल जंगल जमीन में अपने हिसाब से करेंगे।
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पेसा कानून न भारत सरकार मानती है न राज्य सरकार
पार्लियामेंट में पेसा कानून पेंडिंग था, यह 1996 में पास हो गया। इसके बाद बहुत लोगों ने कहा कि आप उदारीकरण के इफेक्ट का पेसा कानून में जितना अधिक बचाव कर सकते हैं, उसको देख लो। हमने इसको ध्यान में रखकर संसद के साथियों और ब्यूरोक्रेट्स को विश्वास में लेकर पेसा कानून को बनवाया। आज 25 साल बाद भी न तो भारत सरकार इस कानून को मानती है और न राज्य सरकारें। सरकार आदिवासियों के हित में पार्लियामेंट से बने कानून से औद्योगिकीकरण के असर को कम कर सकती है। मगर ऐसा करने की बजाय सरकारों ने एकतरफा काम किया और पेसा कानून की धज्जियां उड़ा दी। ऐसे में देश के प्रति आदिवासियों में विश्वास का संकट पैदा हो गया है। अब सरकार की उदासीनता के कारण संविधान के बहुत से प्रावधान की उपेक्षा हो रही है। ट्राइबल की समस्या को हम गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। छत्तीसगढ़ के गठन को 25 साल हो गए, लेकिन संविधान के मुताबिक आबादी के अनुपात में आरक्षण नहीं मिला। 32 प्रतिशत आरक्षण राज्य गठन के तीसरे या चौथे साल में ही मिल जाना चाहिए था। इसका जवाब कौन देगा? सबको उलझाकर रख दिया। कोई यहां चला गया और कोई वहां चला गया।
द सूत्र - संघ एक बड़ा एनजीओ है। उसने आदिवासियों के बारे में सोचा और एप्रीसिएट भी किया। इसके बावजूद नक्सलवाद पर क्या स्थिति है? नक्सलवाद पर पहले की स्थिति और अब समाप्त हो जाने के दावे किए जा रहे हैं, इसे आप कैसे देखते हैं?
देश में दो सरकारें रहीं। एक कांग्रेस और दूसरी बीजेपी की। कांग्रेस मध्यम मार्गी पार्टी है। उसकी नीति है थोड़ा साथ रहो और थोड़ा साइड में जाओ। रही बात बीजेपी की तो वह राइटिस्ट पार्टी है, जबकि नक्सल समस्य एक्ट्रीम लेफ्ट की है। दोनों का रिश्ता सांप और नेवले का है। सांप नेवले जैसे रिश्ते के कारण ही बीजेपी ने नक्सलवाद को खत्म करने के लिए कड़े फैसले लिए।
नक्सलवाद समाप्त हो रहा, भारत सरकार को धन्यवाद
अमित शाह जी कहते हैं कि तुम 10 गोली चलाओगे तो हम 100 गोली चलाएंगे। यह तो बीजेपी ही बोल सकती है। कांग्रेस ऐसा नहीं बोल सकती है। नक्सलवाद समाप्त हो रहा है। भारत सरकार को धन्यवाद। बधाई दे सकते हैं कि कम से कम नक्सल ट्राइबल के हित में तो नहीं था। यहां हालत यह थी कि नक्सल प्रभावित गांव वाले दिन में पुलिस से और रात में नक्सलियों ने परेशान थे। कम से यह समस्या अब नहीं रहेगी, पर अब आगे का क्या होगा? अगर भारत सरकार गंभीरता से नहीं लेगी तो समस्या और आगे बढ़ जाएगी। 10-15 साल बाद यह समस्या दूसरे रूप में आएगी। यह अंतरराष्ट्रीय पॉलिटकल मुवमेंट है।
कम्यूनिस्टों के बूरे दिन आ गए तो इनका दीया बुझ गया। फिर कभी उनका दीया जलेगा। अगर दुनिया में गरीबी और अमीरी का भेदभाव रहेगा तो समस्या रहेगी ही। हम अपने पूरे राजनीति जीवन में सरकार से पूछते रहे कि नक्सली समस्या पैदा क्यों और कैसे हुई यह तो बता दो। मगर किसी ने नहीं बताया और आज भी नहीं बता रहे, क्योंकि अगर वे सच्ची बात कहेंगे तो एक्सपोज होंगे। सरकार में बैठे लोग ट्राइबल की समस्या को इग्नोर करते हैं। चाहे कांग्रेस की भी सरकार क्यों न रही हो। यानी बीमारी बढ़ने दो बाद में देखेंगे।
द सूत्र - आदिवासियों या मूल निवासी जो जंगल में रह रहे हैं। जल जंगल और जमीन उनकी है। वहीं उनका जीवन है और वहीं उनकी मृत्यु है। यानी सबकुछ जंगल में ही है, लेकिन जब राष्ट्र या देश की बात होती है तो लोग सवाल खड़े करते हैं विकास का। वहां यानी जंगल में विकास नहीं था। विकास भी हो और संस्कृति भी बची रहे ये दोनों चीजें साथ में कैसे चलनी चाहिए?
विकास की परिभाषा क्या है? अगर नानट्राइबल या सरकार से पूछेंगे तो जवाब मिलेगा कि उद्योग लगना चाहिए। उद्योग लगेगा तो जमीन अधिग्रहण होगा। जंगल कटेंगे। लोग डिसप्लेस होंगे। यही बात जब आप ट्राइबल से पूछोगे तो कहेगा कि बिना जंगल को उजाडे़, बिना पानी खत्म किए विकास आप कर सकते हो क्या? दोनों के बीच विकास-विकास की परिभाषा अलग-अलग है। सरकार कहती है कि ट्राइबल निरीह लोग हैं, उनका क्या है, इनको हटा दो। कारखाना लगना चाहिए। वहीं ट्राइबल की सोच अलग है। ट्राइबल की सोच को किसने गंभीरता से लिया। यही तो दिक्कत है इस देश में। दोनों की परिभाषा अलग है और दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं।
बिना उद्योग के देश आगे नहीं बढ़ सकता
हम भी यह मानते हैं कि बिना उद्योग के देश आगे नहीं बढ़ सकता। आज तक पुर्नवास की नीति और व्यवस्था ठीक नहीं है। हम 25 साल पार्लियामेंट में रहे और पूछते रहे कि पुर्नवास की नीति और व्यवस्था का कोई तो ऐसा मॉडल बताओ, जिसने विस्थापतों को पुर्नवास की सही व्यवस्था दी है। आदिवासी अपनी जमीन से उजड़ना नहीं चाहता है। आदिवासी सबसे दुख अपनी जमीन से उजड़ने का होता है, क्योंकि उस जमीन से उसकी बहुत सी आशाएं जुड़ी हुई हैं। दूसरे धर्मों में भगवान अलग से होते हैं, लेकिन हमारे पुरखे ही भगवान है और वे इसी जमीन में दबे हैं। जब उनको उस जमीन से बेदखल करने की बात कही जाती है तो वे अपने भगवान को छोड़कर कहां जाएंगे? इस पीड़ा को कोई नहीं जानता। उन्हें लगता है कि ये तो ट्राइबल लोग हैं, जाएं यहां से।
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