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Photograph: (The Sootr)
हिंदी समाज में लेखकों से अक्सर एक ही सवाल पूछा जाता है “लिखकर आखिर कमाते क्या हो? कितनी रॉयल्टी मिलती है?” यह सवाल जितना हल्का लगता है, उसके पीछे लेखक की हैसियत जानने की मानसिकता छुपी रहती है। सच कहा जाए तो आज तक हिंदी लेखन को पेशेवर नजरिए से नहीं देखा गया, जबकि अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में लेखन बाजार और पूंजी के ढांचे का हिस्सा रहा है।
यही कारण है कि हिंदी लेखक जब अपनी मेहनत से किताब लिखता भी है तो उसका प्रकाशक उसे उपकार की तरह छापता है। लेखक-प्रकाशक के संबंध अक्सर सामंती धारणाओं से बंधे रहते हैं, जहां लेखक को याद दिलाया जाता है कि किताब बिकती है प्रकाशक की वजह से, न कि लेखक की वजह से। लेकिन, इन पुराने ढांचों को चुनौती मिली, जब हिंदीयुग्म प्रकाशन ने वरिष्ठ साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल को 30 लाख रुपए की रॉयल्टी का चेक सौंपा। यह घटना न केवल एक लेखक के व्यक्तिगत सम्मान की बात थी, बल्कि हिंदी प्रकाशन जगत के भविष्य का संकेत भी बनी।
रॉयल्टी को लेकर जंग
यह कहानी शुरू होती है उन पुराने दिनों से, जब प्रेमचंद जैसे दिग्गज अपनी कलम से समाज को जगाते थे, लेकिन रॉयल्टी? वो तो एक सपना था, जो कभी पूरा ही न हुआ। आज भी, 2025 में, जब दुनिया डिजिटल किताबों और ऑडियोबुक्स की बाढ़ में डूबी है, हिंदी लेखक उसी पुरानी जंग लड़ रहे हैं।
प्रकाशक किताबें छापते हैं, बेचते हैं, लेकिन लेखक को मिलने वाली हिस्सेदारी? अक्सर 5 से 10 फीसदी MRP पर। मतलब, अगर आपकी किताब 200 रुपए की है, तो हर बिक्री पर 10-20 रुपए। और अगर किताब की 1,000 कॉपी बिकती हैं, तो सालाना 10,000-20,000 रुपए। ये वो रकम है, जो चाय-पानी के लिए भी मुश्किल से काफी पड़ती है। लेकिन कुछ अपवाद हैं, जो इस अंधेरे में रोशनी की किरण बनते हैं।
रॉयल्टी को लेकर लेखकों का दर्द
देश में आज भी हजारों लेखक सोचते हैं कि प्रकाशन ही सफलता है। लेकिन हकीकत ये है कि प्रकाशक अक्सर बिक्री के आंकड़े छिपाते हैं। पारदर्शिता का नामोनिशान नहीं। एक मशहूर लेखिका, सारिका कालरा, कहती हैं कि हिंदी में रॉयल्टी का हाल बुरा है- प्रकाशकों को पारदर्शिता अपनानी चाहिए। वे सालों तक लेखकों को इंतजार करवाते हैं, कभी पत्रों का जवाब नहीं देते।
याद कीजिए 2022 का वो विवाद, जब ज्ञानपीठ विजेता विनोद कुमार शुक्ल ने राजकमल और वाणी प्रकाशन पर आरोप लगाया। 25 सालों में उन्हें सिर्फ 1.35 लाख रुपए मिले- यानी सालाना औसतन 5,500 रुपए। तीन किताबों के लिए साल में 6,000 रुपए! ये वो रकम है, जो एक मजदूर एक हफ्ते में कमा लेता है। शुक्ल जी ने कॉपीराइट वापस मांगा, क्योंकि प्रकाशक "मरने का इंतजार" करते थे।
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सोशल मीडिया पर रॉयल्टी को लेकर छिड़ी बहस
लेकिन ये सिर्फ एक कहानी नहीं। X (पूर्व ट्विटर) पर हाल ही की चर्चाओं में देखिए- एक यूजर ने लिखा कि "हिंदी लेखकों को रॉयल्टी मिले तो गरीब हिंदी लेखक दुर्लभ प्रजाति हो जाएंगे।" दूसरा पोस्ट: "प्रकाशक इंतजार करते हैं कि लेखक मर जाए और रॉयल्टी उनके पास आ जाए।" ये आवाजें दर्द की हैं, लेकिन उम्मीद की भी।
हाल ही में, 2025 में, विनोद कुमार शुक्ल को ही एक प्रकाशन हिंद युग्म से 30 लाख रुपए की रॉयल्टी मिली। उनकी किताब "दीवार में एक खिड़की रहती है" की 87,000 कॉपियां छह महीनों में बिकीं। ये हिंदी साहित्य का इतिहास रचने वाला पल था। लोग जलने लगे- "बोरिंग कहानियां, मार्केटिंग का खेल!" लेकिन सवाल ये था: बाकी प्रकाशक क्यों नहीं देते?
विनोद कुमार शुक्ल: 86 साल की उम्र में मिले 30 लाख
अब चलिए, उस बुजुर्ग लेखक की कहानी सुनें, जिनकी कलम ने समय को थामा। विनोद कुमार शुक्ला, जिनकी उम्र 86 बरस की हो चुकी है, लेकिन कलम अभी भी जवां। उनका जन्म एक छोटे से कस्बे में हुआ, जहां जीवन की सादगी ही उनकी प्रेरणा बनी।
"नौकर की कमीज" से शुरू हुई यात्रा, "दीवार में एक खिड़की रहती है" पर पहुंची। ये किताब नहीं, एक खिड़की है- जहां से रोजमर्रा की जिंदगी झांकती है। साधारण शब्दों में गहन संवेदनाएं। लेकिन रॉयल्टी?
पुराने प्रकाशकों से वो सूखी नदी थी। फिर आया हिंद युग्म का मोड़। 2025 के मुंबई लिटफेस्ट में लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड के साथ 30 लाख। X पर हंगामा मच गया। एक पोस्ट: "हिंदी साहित्य का शुक्ल पक्ष: छह महीनों में 30 लाख।" दूसरा: "ये ऐतिहासिक है, लेकिन बाकी लेखक क्यों भूखे?"
शुक्ल जी की कहानी हमें सिखाती है कि संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता। वे कहते हैं, "मैंने कभी पैसे के लिए नहीं लिखा, लेकिन हक तो मिलना चाहिए।" ये चमत्कार सिर्फ उनका नहीं, पूरे हिंदी साहित्य का है। लेकिन सवाल उठता है -अगर एक किताब 87,000 कॉपियां बेच सकती है, तो बाकी क्यों नहीं? क्योंकि बाजार हिंदी को "दुहाजू की बीबी" मानता है- सेवा करने वाली, लेकिन कमाने वाली नहीं। X पर एक यूजर ने लिखा: "हिंदी के लेखक मरियल सा दिखने वाला जीव लगता है।" लेकिन शुक्ल जी ने साबित कर दिया- लोकप्रियता रोग नहीं, ताकत है।
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प्रकाशकों की चालाकी: देरी, धोखा और अदृश्य दीवारें
प्रकाशकों की दुनिया एक जंगल है, जहां लेखक शेर बनने की बजाय शिकार हो जाते हैं। BBC की एक पुरानी रिपोर्ट कहती है कि रॉयल्टी की समस्या लेखकों का लगातार साथी है। कभी राष्ट्रीय स्तर पर उठती है, लेकिन जल्दी ठंडी। हाल के वर्षों में, स्क्रीनराइटर्स के लिए भी यही दर्द – 112 सालों से रॉयल्टी गायब। हिंदी फिल्मों में लेखक remake rights और royalties मांगते हैं, लेकिन मिलता क्या है? न्यूनतम फीस। एक लेखक कहते हैं, "प्रकाशक किताब छापकर खुश, लेकिन बिक्री के आंकड़े? वो तो गोपनीय दस्तावेज।"
X पर हाल का विवाद देखिए- श्याम मीरा सिंह ने अशोक कुमार पांडे पर आरोप लगाया कि उन्होंने शम्सुल इस्लाम की किताब का हिंदी अनुवाद "दखल" से छापा, रॉयल्टी खुद खा ली। कोर्ट जाना पड़ा, तब जाकर भुगतान हुआ। ये सिर्फ एक केस नहीं, पैटर्न है। प्रकाशक सोचते हैं, "लेखक मर जाए, तो कॉपीराइट हमारा।" लेकिन अब बदलाव आ रहा है- IPRS जैसी संस्थाएं कॉपीराइट को सख्त बनाना चाहती हैं।
चेतन भगत से अमीश तक: वो लेखक जो लाखों कमाते हैं, लेकिन कैसे?
अब आते हैं उन सितारों पर, जिनकी कहानियां न सिर्फ बिकती हैं, बल्कि सोने की बारिश कराती हैं। 2019 में फोर्ब्स के मुताबिक, चेतन भगत ने 28 करोड़ कमाए। उनकी किताबें - "फाइव पॉइंट समवन" से "हाफ गर्लफ्रेंड" तक - युवाओं की धड़कनों को पकड़ती हैं। रॉयल्टी? 10% से ऊपर क्योंकि वे बेस्टसेलर हैं। लेकिन कैसे? मार्केटिंग, सोशल मीडिया और अंग्रेजी-हिंदी मिक्स।
दूसरे नंबर पर अमीश त्रिपाठी - मिथोलॉजिकल फिक्शन के बादशाह। "शिव ट्रायोलॉजी" से शुरू, अब "राम चंद्र सीरीज"। सालाना लाखों कमाते हैं, क्योंकि कॉपियां लाखों में बिकती हैं। तीसरे अश्विन संघी - "चाणक्य लांस" जैसी थ्रिलर्स। चौथे रविंदर सिंह - रोमांस के राजकुमार, "आई टू शाइड विद यू" से करोड़ों। पांचवें दुर्जॉय दत्ता - युवा दिलों की धड़कन, लेकिन वे कहते हैं, "बेस्टसेलर होने पर भी डे जॉब छोड़ना मुश्किल।"
ये पांच नाम - चेतन भगत, अमीश त्रिपाठी, अश्विन संघी, रविंदर सिंह, दुर्जॉय दत्ता - हिंदी-इंग्लिश ब्रिज के कारण चमकते हैं। लेकिन सवाल: क्या शुद्ध हिंदी लेखक कभी इस लिस्ट में आ पाएंगे? शुक्ल जी की 30 लाख एक शुरुआत है।
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भारत के सबसे महंगे लेखक
लेखक का नाम | फीस/रॉयल्टी (एक कार्यक्रम/पुस्तक) | किस लिए | नोट्स |
---|---|---|---|
कुमार विश्वास | ₹8 लाख से ₹50 लाख (एक इवेंट) | कवि सम्मेलन, रामकथा | विदेशों में ₹30-50 लाख |
चेतन भगत | ₹5 लाख से ₹20 लाख (एक पुस्तक/प्रोग्राम) | उपन्यास, मोटिवेशनल | प्रसिद्ध कॉर्पोरेट इवेंट्स |
प्रीति शेनॉय | ₹3 लाख से ₹10 लाख (पुस्तक/इवेंट) | उपन्यास | कॉर्पोरेट बुक साइनिंग |
अमीश त्रिपाठी | ₹7 लाख से ₹15 लाख (पुस्तक/इवेंट) | शिवा ट्रायलॉजी | बेस्टसेलर रॉयल्टी |
अश्विन सांघी | ₹5 लाख से ₹12 लाख (पुस्तक/इवेंट) | उपन्यास |
बाजार का खेल: बेस्टसेलर कैसे बनें?
ये लेखक सिर्फ नहीं लिखते, ब्रांड बनाते हैं। सोशल मीडिया पर लाखों फॉलोअर्स, लॉन्च इवेंट्स, फिल्म राइट्स। एक रिपोर्ट कहती है, डेब्यू लेखक को 5-7.5% मिलता है, लेकिन टॉपर्स को 12.5% से ज्यादा। लेकिन फुल-टाइम राइटिंग? मुश्किल। दुर्जॉय कहते हैं, "बेस्टसेलर भी डे जॉब रखते हैं।"
नई हवाएं: डिजिटल और लीगल बदलाव
2025 में IPRS जैसी बॉडीज कॉपीराइट सख्त कर रही हैं। स्क्रीनराइटर्स गिल्ड बन रही है। लेकिन हिंदी के लिए? अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी है...
भारत में लेखकों को रॉयल्टी भुगतान की स्थिति
कुल मिलाकर स्थिति चुनौतीपूर्ण है। अधिकांश हिंदी लेखकों को 5-10% रॉयल्टी मिलती है, जो सालाना कुछ हजार रुपए तक सीमित रहती है, पारदर्शिता की कमी और देरी के कारण। टॉप लेखक जैसे चेतन भगत करोड़ों कमाते हैं, लेकिन सामान्य लेखक संघर्ष करते हैं। हाल के बदलाव जैसे विनोद कुमार शुक्ल को 30 लाख मिलना सकारात्मक है, लेकिन प्रकाशकों को सुधार की जरूरत है। पारदर्शी सिस्टम, समय पर भुगतान और लीगल प्रोटेक्शन। X और मीडिया चर्चाएं दबाव बना रही हैं, लेकिन अभी रास्ता लंबा है।
भारत में लेखकों को रॉयल्टी भुगतान: जानें क्या है आज की स्थिति?
भारत में रॉयल्टी भुगतान असमान और बेहद भिन्न है। स्थिति को कुछ बिंदुओं में समझा जा सकता है:
अंग्रेजी साहित्य (इंडियन/ग्लोबल पब्लिशिंग)
बड़े अंग्रेजी प्रकाशक (Penguin, HarperCollins, Bloomsbury) लेखकों को 10% से 30% तक रॉयल्टी देते हैं। बड़े नामों को एडवांस रॉयल्टी भी मिलती है।
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं
अधिकांश हिंदी प्रकाशक लेखक को 5% से 7% रॉयल्टी देते हैं, वह भी अक्सर समय पर नहीं। कई बार तो कॉन्ट्रैक्ट ही नहीं होता, सब रिश्तों पर आधारित सौदे चलते हैं।
मशहूर अपवाद
अब कुछ प्रकाशक जैसे हिंदीयुग्म, वेस्टलैंड आदि हिंदी लेखकों को भी पहले से एडवांस या ठीक-ठाक रॉयल्टी देने लगे हैं।
ई-बुक और ऑनलाइन सेल्स
यहां रॉयल्टी का प्रतिशत अधिक हो सकता है (20-25%), लेकिन हिंदी ई-बुक बाजार अभी छोटा है।
लेखक संगठनों की कमी
अंग्रेजी लेखकों की तरह हिंदी लेखकों ने रॉयल्टी और प्रकाशन कॉन्ट्रैक्ट को लेकर किसी तरह का कोई संगठनात्मर दबाव नहीं बनाया। यही कारण है कि पारदर्शिता और पेशेवर रवैया आज भी अपवाद है।
विनोद कुमार शुक्ल: एक सादगी भरे लेखक की बड़ी पहचान
छत्तीसगढ़ से आने वाले विनोद कुमार शुक्ल हिंदी साहित्य में अपनी अनूठी भाषा और गहरी मानवीय संवेदनशीलता के लिए पहचाने जाते हैं। उनका लेखन कभी चकाचौंध भरा नहीं रहा, बल्कि रोजमर्रा की साधारण जिंदगी से जुड़े पात्र, उनकी भावनाएं और संघर्ष उनके साहित्य में जीवंत होते रहे।
उनके चर्चित उपन्यास “दीवार में एक खिड़की रहती थी”* ने पाठकों के बीच खास पहचान बनाई। यही उपन्यास आगे चलकर उन्हें हिंदी की अब तक की सबसे बड़ी रॉयल्टी तक ले आया। यह किसी लेखक के लिए वह पल था, जब उसके शब्दों का आर्थिक मूल्य भी उतना ही बड़ा माना गया, जितना उसकी संवेदनाओं का।
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अतीत का संघर्ष: रॉयल्टी या सिर्फ प्रतीकात्मक सम्मान?
विनोद कुमार शुक्ल की इस सफलता को समझने के लिए उनके अतीत पर नज़र डालनी जरूरी है। उन्होंने खुद स्वीकार किया था कि लंबे समय तक बड़े प्रकाशकों से उन्हें नगण्य रॉयल्टी मिली। वाणी प्रकाशन से 25 वर्षों में सिर्फ 1.35 लाख रुपए मिले जबकि राजकमल प्रकाशन से छह पुस्तकों पर सालाना मात्र 14,000 रुपए प्राप्त हुए।
ऐसी स्थिति में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या लेखक की मेहनत का मोल कभी सही ढंग से चुकाया गया? हिंदी पुस्तकों ने जिस तरह से पीढ़ियों को गढ़ा, विचार दिए, आंदोलनों को जन्म दिया। क्या उनके सर्जकों को उचित आर्थिक हक मिला?
विनोद कुमार शुक्ल को अभी जो 30 लाख की रॉयल्टी मिली है, वह न सिर्फ व्यक्तिगत जीत है, बल्कि यह हिंदी प्रकाशन जगत की पुरानी सामंती मानसिकता के खिलाफ एक नया उद्घोष भी है।
विनोद कुमार शुक्ल पर बनी डॉक्यूमेंट्री: चार फूल हैं और दुनिया है
अचल मिश्रा और मानव कौल द्वारा बनाई गई डॉक्यूमेंट्री "चार फूल हैं और दुनिया है" विनोद कुमार शुक्ल की जीवन और लेखन की दुनिया को एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है। यह डॉक्यूमेंट्री विनोद शुक्ल के बारे में जानने को उत्सुक लोगों में इसे देखने की जिज्ञासा जगाती है।
इसे देखने के बाद लोगों ने बताया कि यह ऐसा अहसास दिलाती है, जैसे किसी बुजुर्ग दादा-दादी की कहानी सुन रहे हों। गर्मी की ताजी हवा, पंखे की खड़खड़ाहट के साथ तखत पर बैठे दादाजी अपने अनुभवों और किस्सों को साझा कर रहे हों और घर के सभी लोग उन्हें चुपचाप सुन रहे हों। यह डॉक्यूमेंट्री न सिर्फ शुक्ल जी के जीवन को दिखाती है बल्कि सीमित दृश्य के माध्यम से पूरी दुनिया की कल्पना को जीवित करती है।
विनोद कुमार शुक्ल का प्रसिद्ध कथन है, “आप जितने स्थानीय होंगे उतने वैश्विक होंगे,” जो पूरी डॉक्यूमेंट्री का सार भी है। यह उन लोगों के लिए एक प्रेरणा है जो जीवन के छोटे-छोटे पहलुओं में वैश्विकता ढूंढ़ते हैं।
निष्कर्ष
विनोद कुमार शुक्ल की 30 लाख की रॉयल्टी सिर्फ एक चेक नहीं है। यह उस पूरी मानसिकता को बदलने का संकेत है, जिसमें हिंदी लेखक को अब तक सामंती ढांचे में दबाकर रखा गया था।
उनकी सफलता साहित्य की उस नई सुबह की तरह है, जब हिंदी किताबें सिर्फ “आदर्श और विचार” का माध्यम नहीं, बल्कि “बाजार और मूल्य” का भी हिस्सा बनेंगी। यही बदलाव हिंदी साहित्य को एक जीवंत और टिकाऊ भविष्य देगा। विनोद कुमार शुक्ल रॉयल्टी