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Bhopal Gas Tragedy : हिरोशिमा नागासाकी पर परमाणु हमले के दुष्परिणामों की जांच अब तक जारी है। दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी की उस स्याह रात से अब भी चीखें व्यवस्था को झकझोरती हैं। त्रासदी के 40 साल बाद भी हजारों परिवार इसका कष्ट भोग रहे हैं। सैंकड़ों माताओं की कोख अब भी दिव्यांग बच्चों को जन्म दे रही है। हजारों लोग श्वांस, फेफड़ों, आंख, कैंसर जैसे रोगों की गिरफ्त में है तो इतने ही हाथ-पैरों के काम न करने से अपाहिज का जीवन जीने मजबूर हैं। प्रदेश के पूर्व मेडिकोलीगल एक्सपर्ट डॉ.डीके सत्पथी ने गैस त्रासदी की भयावह स्थितियों को बताने के साथ ही कई ज्वलंत सवाल भी खड़े किए हैं।
सरकारों ने गैस त्रासदी को मुआवजे तक सीमित रखा
3 दिसम्बर 1984 की रात यूनियन कार्बाइड के टैंक से गैस रिसाव से हजारों मौत के बारे में सोचकर कलेजा कांप उठता है। लेकिन इस भीषण त्रासदी पर सरकारों की लापरवाही भी अमानवीयता से कम नहीं है। यूनियन कार्बाइड गैस त्रासदी को सरकारों ने केवल मुआवजे तक समेट दिया। मजबूर,अशक्त कभी इलाज के लिए तो कभी राशन के लिए कतारों में ही खड़े रह गए। दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के बाद सरकारों ने ठोस कदम ही नहीं उठाए गए। 40 साल बाद भी हजारों परिवार गैस कांड का दंश झेल रहे हैं। प्रदेश के पूर्व मेडिकोलीगल एक्सपर्ट डॉ.डीके सत्पथी के ये सवाल, सरकारों की लापरवाही से एक झटके में पर्दा उठाने वाले हैं। चालीस साल बाद भी दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक त्रासदी पर पर्दा के बाद से अब तक क्या हुआ ? आपदा की जांच वैज्ञानिक स्तर पर कराने पर जोर क्यों नहीं दिया गया ? हजारों मौतों के लिए मिथाइल आइसोसाइनेट के अलावा दूसरे कौन से पदार्थ जिम्मेदार रहे ? यूनियन कार्बाइड दावों के झूठे साबित होने के बावजूद जेनेटिक म्युटेशन को लेकर शोध क्यों नहीं कराए गए ? पीड़ित परिवारों को जो मुआवजा दिया गया उसका निर्धारण किस आधार पर किया गया था ?
देश के वैज्ञानिकों ने भी नहीं किया शोध
डॉ.सत्पथी कहते हैं भोपाल में 3 दिसम्बर की देर रात यूनियन कार्बाइड परिसर में एक टैंक से गैसों का रिसाव शुरू हुआ था। चंद घंटों में ही पूरा शहर जहरीली धुंध के साए में समां चुका था। सड़कों पर यहां-यहां लोग बेसुध पड़े थे और बदहवासी में दौड़ रहे थे। चीख पुकार इतनी थी कि खुद को संभाल पाना मुश्किल था। ये तो उस आपदा का दिल दहला देने वाला मंजर था जिसे कोई भुला नहीं सकता। लेकिन इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी पर सरकारों का अमानवीय चेहरा सबसे दुखद है। भोपाल गैस त्रासदी के चार दशक बाद भी इस औद्योगिक दुर्घटना की सूक्ष्म जांच नहीं हुई है। देश में इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च यानी ICMR जैसे संस्थानों ने भी दुष्परिणाम, हजारों लोगों में अशक्तता, जेनेटिक म्युटेशन पर शौच करना भी उचित नहीं समझा। सरकारों ने भी इसके लिए कोई प्रोजेक्ट तैयार करना जरूरी नहीं समझा। इस संस्थानों को तो शोध के लिए करोड़ों की फंडिंग होती ही है। आज छोटे-छोटे हादसों, घटनाओं पर आयोग बनाकर सालों तक जांच कराई जाती है लेकिन हजारों मौत और कई हजार लोगों को अशक्त-बीमार बनाकर छोड़ने वाली त्रासदी की जांच पर सरकारें उदासीन रहीं, ये सवाल जनप्रतिनिधियों के सामने हैं।
जानलेवा गैसों का चेंबर था कार्बाइड कैंपस
केवल MIC गैस यानी मिथाइल आइसोसाइनेट ने ही हजारों को मौत की नींद सुलाया डॉ.डीके सत्पथी इस तथ्य को भी उचित नहीं मानते। उनका कहना है यूनियन कार्बाइड के जिस टैंक में मिक गैस बन रही थी वहां थर्मोकेमिकल चेन रिएक्शन हो रहा था। चेन रिएक्शन दो पदार्थ निर्धारित तापमान और दबाव के बीच तीसरा पदार्थ बनाते हैं, फिर यही पदार्थ एक नए रूप में बदल जाता है। कार्बाइड परिसर में दबे उसे टैंक में भी केमिकल रिएक्शन हो रहा था। इसलिए ये कहना कि केवल मिथाइल आइसोसाइनेट का ही रिसाव हुआ ये पूरा सच नहीं हो सकता। इसके अलावा वहां दर्जन भर से ज्यादा गैसों का रिसाव हुआ था। डॉ.सत्पथी कहते हैं आपदा के अगले दिन उन्हें 875 शवों का पोस्टमार्टम करना पड़ा था। जबकि बाद में पांच सालों में गैस पीड़ितों के 18 हजार से ज्यादा शव का परीक्षण उनके द्वारा किया गया था। इनकी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट ही सिस्टम की लापरवाही को काफी हद तक उजागर कर देती है।
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हिरोशिमा पर अब तक रिसर्च, भोपाल को भूले
पूर्व मेडिकोलीगल एक्सपर्ट डॉ. सत्पथी ने चर्चा के दौरान कहा, जापान के हिरोशिमा नागासाकी शहरों पर परमाणु हमले को 50 साल हो चुके हैं। वहां सरकार अब भी परमाणु हमले के कारण हुए जेनेटिक विकृति पर शोध करा रही है। इधर भोपाल गैस कांड को हमारी ही सरकारों ने भुला दिया। कार्बाइड के दावे तो शुरू में ही झूठे साबित हो गए थे, लेकिन सरकार भी रिसर्च कराने आगे नहीं आई। कार्बाइड ने तो कहा था कि गैसों के रिसाव का असर अगली पीढ़ी पर नहीं होगा लेकिन गर्भवती महिलाओं के प्रसव के बाद अब जो बच्चे हो रहे हैं उनमें जेनेटिक विकृतियां सामने आ रही हैं। भोपाल में ये डेटा तो जुटाना ही चाहिए कि प्रभावित बस्तियों में प्रति हजार कितने मानसिक शारीरिक अशक्त बच्चों का जन्म होता था अब वहां संख्या कितनी है। इसी डेटा से साफ हो जाएगा कि त्रासदी के बाद मानसिक शारीरिक विकृति काफी बढ़ गई है। गैस के रिसाव के समय जो बच्चे गर्भ में थे उनका जन्म जहर के साथ हुआ है। अब उनकी संतानों में इसका असर दिख रहा है। ऐसे बच्चों में विकास की दर बहुत धीमी हो गई है। इस पर गंभीरता से अध्ययन कराना बहुत जरूरी है।
कैसे किया गैस पीड़ितों के मुआवजे का निर्धारण
गैस त्रासदी पर चर्चा करते समय डॉ. सत्पथी की आवाज में उनका दर्द साफ झलक रहा था। वे सरकारी सिस्टम की उदासीनता पर दुखी थे। उन्होंने कहा यूनियन कार्बाइड त्रासदी के लिए सरकार और शासन सीधे तौर पर जिम्मेदार था। उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा, एक मजदूर की मौत होती है तो दुर्घटना दावा अधिकरण मुआवजा कैसे तय करता है ? मरने वाले की उम्र क्या थी, वो कितना कमाता था और मौत न होती तो कितनी साल तक काम करता। यही पैमाना होता है, लेकिन भोपाल गैस त्रासदी में जान गंवाने वालों को जो मुआवजा दिया गया वो किसने तय किया, कैसे निर्धारण किया गया था। एक व्यक्ति जो आंशिक गैस पीड़ित था, आपदा के बाद उसे कुछ हजार रुपए देकर विदा कर दिया। चंद महीने बाद उसके पूरे फेफड़े ही खराब हो गए और जान चली गई। ऐसे लोगों को क्या मिला, उनके परिवार भटक रहे हैं। गैस पीड़ितों के उपचार के लिए अस्पतालों में तैनात करने से पहले डॉक्टरों को बताया ही नहीं गया कि उन्हें उपचार किस बीमारी का करना है। इस कारण भी बीमार लोग ठीक नहीं हो पाए और उनकी भी जानें गईं। जबकि उन्हें प्रशिक्षित करना था कि इस तरह के मरीजों को कैसे संभालना है। दरअसल सरकारें गैस त्रासदी के दंश के बाद पीड़ितों के विस्थापन और रोजगार को हल्के में लेती रहीं।
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