कांग्रेस (Congress) से आज किसने पल्ला झाड़ा। कौन सा पुराना कांग्रेसी आज भाजपाई हो गया। आए दिन मीडिया में आप इस तरह की खबरें सुन ही रहे होंगे। कांग्रेस को लगातार एक के बाद एक ऐसे झटके मिल रहे हैं। जब कोई भी पुराना नेता लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़े रहने के बाद इसी पार्टी पर एक तोहमत जड़ता है और बीजेपी का दामन थाम लेता है, लेकिन ऐसा आखिर हो क्यों रहा है।
सियासत की दुनिया का नया फिनोमिना आखिर है क्या
क्या दल बदलने वाले इन नेताओं को बीजेपी (BJP) सबसे पाक साफ पार्टी नजर आ रही है। कांग्रेस अगर इतनी ही गलत थी तो उससे अब तक क्यों जुड़े रहे। क्या कांग्रेसियों को भाजपाई बनाकर बीजेपी मजबूत हो रही है। सियासत की दुनिया में शुरू हुआ ये नया फिनोमिना आखिर है क्या। वाकई कांग्रेस का जहाज डूब चुका है या ये सिर्फ एक माइंड गेम है। कांग्रेसी नेता के पलायन से जुड़े ऐसे कई सवाल हैं जो आम लोग भी जानना चाहते हैं, लेकिन अब तक मुफीद जवाब नहीं मिला। आज मैं आपको प्वाइंटवाइस समझाता हूं कि कांग्रेस से पलायन की क्या वजह है। इससे कांग्रेस को कितना नुकसान है और फायदे में तो वो भी नहीं है जो पलायन करके जा रहे हैं और बीजेपी को भी इससे कुछ लंबा फायदा नहीं है।
नेताओं का पलायन टेटू की परत जैसा ही है
कभी आपने टैटू बनने की साइंस समझी है। जब आपकी स्किन पर गहरे से गहरा घाव नहीं टिकता तो फिर टैटू कैसे टिक जाता है। इसे आसान भाषा में बस इस तरह समझ लीजिए कि टैटू बनने के बाद स्किन की एक हल्की सी परत उस पर खुद ब खुद चढ़ जाती है जो उसे प्रोटेक्ट करती है। वो आसानी से भले ही दिखाई न देती हो, लेकिन उस जगह होती जरूर है। बस ये नेताओं का पलायन भी एक ऐसी ही परत है। जिसके नीचे कितनी गहमागहमी है। ये आम व्यक्ति को समझ पाना आसान नहीं है। न ही उसके नीचे की हलचल को और न ही उस सियासी मनोविज्ञान को जो इस पूरे घटनाक्रम के जरिए जारी है।
बीजेपी ने जो वादा किया सो निभाया!
पलायन की बात को ज्योतिरादित्य सिंधिया से ही शुरू करते हैं। वैसे तो हाल ही में सुरेश पचौरी, संजय शुक्ला जैसे चेहरे कांग्रेस से भाजपा में जा चुके हैं। गुजरात में अर्जुन मोढवाडिया ने पार्टी बदलकर हलचल मचा दी, लेकिन सिंधिया से बात शुरू करना इसलिए मुफीद है क्योंकि मध्यप्रदेश में कांग्रेस की जीत के जिस तरह वो पोस्टर बॉय बने उसी तरह वो दल बदल के भी पोस्टर बॉय बने। जिन्हें बीजेपी ने हर उस चीज से नवाजा। जिसकी उन्होंने ख्वाहिश जताई थी। उनकी हर शर्त मानी गई। मैसेज ये गया कि बीजेपी ने जो वादा किया सो निभाया। जिसके बाद लगातार कमजोर हो रही कांग्रेस को छोड़कर बीजेपी में शामिल होने के लिए नेताओं को एक नया मोटिव मिल गया। उन्हें सत्ता साथ ही उनकी पावर भी बरकरार रही और ऐसी पार्टी का साथ भी मिल गया जो फिलहाल सबसे ज्यादा प्रॉमिसिंग नजर आ रही है। इसके बाद तो जैसे कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं की झड़ी ही लग गई। छुटपुट नेता तो छोड़िए दिग्गज नेताओं की गिनती भी खत्म होने का नहीं ले रही है। मध्यप्रदेश में कुछ दिन पहले तक कमलनाथ खुद बीजेपी का दामन थामने वाले थे। वो नहीं गए तो अब सुरेश पचौरी और संजय शुक्ला अपने समर्थकों के साथ भाजपाई हो चुके हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक मध्यप्रदेश में अब तक करीब 62 नामी गिरामी कांग्रेसी भाजपा में जा चुके हैं। छुटभैया समर्थकों की तो गिनती ही नहीं है।
सिर्फ ये कहकर कांग्रेस संत नहीं बन सकती
कांग्रेस छोड़ने वाले नेता अमूमन दो कारण गिना रहे हैं। पहला ये कि कांग्रेस राम के साथ नहीं है और इसलिए वो कांग्रेस के साथ नहीं है। दूसरा कारण पार्टी का परिवारवाद। जो अचानक सालों पुराने नेताओं को बुरा लगने लगा है। तीसरा कारण पार्टी में देश के विकास की संभावनाएं नजर न आना या अपनी अनदेखी होना, लेकिन ये सारे नेताओं पर फिट नहीं बैठते। सिंधिया, पचौरी, शुक्ला या गुजरात के अर्जुन मोढवाडिया हों इन सबको कांग्रेस ने नवाजने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब इनमें से कोई अपनी अनदेखी की बात करके तो कोई राम मंदिर का हवाला देकर और कोई पार्टी में घुटन होने की बात कह कर दल बदल कर चुका है। कांग्रेस का स्टेंड ये है कि बुरे वक्त में स्वार्थी साथियों की पहचान हो रही है, लेकिन सिर्फ ये कहकर कांग्रेस संत नहीं बन सकती। पार्टी की खामियां धीरे-धीरे साफ नजर आ रही हैं। लगातार फेल हो रही कांग्रेस अब भी सही समय पर सही नेता को सही जगह तैनात करने में नाकाम हो रही है।
कांग्रेस सही समय पर अपने नेताओं को मोटिवेट नहीं कर सकी
कांग्रेस सिर्फ इसी अकड़ में नहीं रह सकती कि वो मोहब्बत की दुकान सजाती रही और साथी साथ छोड़ रहे हैं। अपने नेताओं को सही समय पर मोटिवेट नहीं कर सकी और सही दिशा में आगे नहीं बढ़ सकी तो ये अकड़ मिट्टी में मिलने में वक्त नहीं लगेगा। क्योंकि नेता छोटा हो या बड़ा उसका दलबदल यही मैसेज देता है कि कांग्रेस का परिवारवाद और विचारधारा दोनों न उन नेताओं के लायक है और न देश के। आम मतदाता यही सोचता है कि जिस पार्टी के साथ उसके पुराने नेता ही नहीं है उसे वोट देकर क्या फायदा। डैमेज कंट्रोल में पार्टी अगर आगे नहीं बढ़ी तो लोकसभा चुनाव तक चलने वाला ये सिलसिला बहुत बड़ा नुकसान कर जाएगा।
कांग्रेस का इतिहास सात दशक से भी ज्यादा पुराना है। शायद इसलिए कांग्रेस इतने झटके झेलने के बाद भी सर्वाइव कर पा रही है। कोई और पार्टी होती तो अब तक धराशाई हो चुकी होती, लेकिन सिर्फ इसी दम पर नेताओं को खोना कांग्रेस के लिए निगेटिव मार्किंग ही साबित हो रहा है।
आज का बदलाव सियासी भविष्य पर पड़ेगा भारी
अब बात करते हैं उन नेताओं की जो अलग-अलग दलील देकर पार्टी छोड़ रहे हैं। क्या उन नेताओं के लिए विचारधारा का कोई मोल है। ये राजनेता सियासत के मंझे हुए खिलाड़ी है। क्या ये बात नहीं समझ पाए कि दल बदल कर वो बीजेपी के नंबर तो बढ़ा रहे हैं लेकिन अपनी सियासी निष्ठा पर कितने सवाल खड़े कर रहे हैं। मसलन पचौरी को ही ले लीजिए जिन्होंने कहा कि मैं उन लोगों के साथ खड़ा नहीं हो सकता जो रामजी का आदर न करें इसलिए भी पार्टी छोड़ दी। लेकिन पचौरी जी को इस सवाल का जवाब भी देना होगा कि जब कांग्रेस ने राम को काल्पनिक बताया था उस वक्त उनकी ये रामभक्ति क्यों नहीं जागी थी। विचारधारा में अचानक आ रहा ये बदलाव आज नहीं तो कल सियासी भविष्य पर भारी पड़ ही सकता है।
सिंधिया के लिए मैसेज क्लियर है कि चंबल के चैंपियन तोमर ही हैं
बतौर मिसाल फिर सिंधिया को ही लीजिए। दल बदल के बाद उनकी हर डिमांड पूरी हुई। वो ग्वालियर चंबल के महाराज भी बन बैठे। उनके साथ आए हर चेहरे को नवाजा भी गया, लेकिन साल 2023 के चुनाव में मामला पूरी तरह से उल्टा नजर आया। उनके साथ आए उतने ही समर्थकों को तवज्जो दी गई जो जीत के लायक नजर आए। न सिर्फ ग्वालियर चंबल बल्कि, पूरे प्रदेश में चुनाव की जिम्मेदारी नरेंद्र सिंह तोमर को सौंपकर उनका कद बढ़ा दिया गया। बिना कुछ कहे मैसेज क्लियर था कि चंबल के चैंपियन तोमर ही हैं। लोकसभा चुनाव की प्रत्याशियों की लिस्ट से भी ये साफ है कि तोमर का दबदबा कायम है। यानी नए और पुरानों को बीजेपी ने पूरी तरह बैलेंस कर दिया और दलबदल कर आने वाले सिंधिया का बीजेपी में वीआईपी स्टेटस खत्म हो गया। अब साफ है कि जितना रिजल्ट देंगे उतना ही हासिल कर सकेंगे।
अब बात करते हैं बीजेपी को फायदे और नुकसान की
पहली नजर में देखा जाए तो बीजेपी को कोई नुकसान नजर नहीं आता। अभी कुछ ही देर पहले मैंने आपको टैटू का विज्ञान समझाया था। ये सियासी साइंस भी कुछ ऐसा ही है। नेताओं के दलबदल से बीजेपी को ऊपरी तौर पर कोई नुकसान दिखाई नहीं देता। बल्कि, ये चेहरे बीजेपी की मजबूती और कांग्रेस की खामी और कमजोरी की तरफ ही इशारा कर रहे हैं, लेकिन इस एक तसल्ली देने वाली परत के नीचे असंतोष और गुस्सा उफान पर है। नए नेताओं के आने से हाशिए पर पहुंचे पुराने नेताओं की नाराजगी गाहे बगाहे ऊपर आ भी जाती है। फिलहाल बीजेपी सत्ता में है, पावरफुल है और मजबूत भविष्य गढ़ती नजर आ रही है। इसलिए नाराजगी कंट्रोल करना उसके लिए मुश्किल काम नहीं है, लेकिन ये जो अंदर ही अंदर नेता कसमसा रहे हैं उनके असंतोष का उबाल कब तक कंट्रोल हो सकेगा।
फिलहाल कांग्रेस को अपने अवलोकन की जरूरत है
फिलहाल बीजेपी के इस गेम में सियासतदानों से ज्यादा आम मतदाता उलझ रहा है। जिसे शायद ये लग रहा है कि उनकी तरह अब राजनेता भी अच्छे दिनों के साथ आ रहे हैं। ये खेल शायद तब तक जारी रहेगा जब तक कांग्रेस अपने ही पुराने साथियों को ये यकीन नहीं दिला पाती कि वो बदल रही है। दल बदल करने वाले नेताओं के निशाने पर राहुल गांधी ही क्यों है इस सवाल का जवाब तलाशना भी जरूरी है। खुद राहुल गांधी को अपने इर्द गिर्द नजर घुमाकर उन नेताओं की पंक्ति से परे देखने की जरूरत है जो हर समय उनके नजदीक नजर आते हैं। मोदी सरकार की खामियां, उद्योगपतियों से उनकी नजदीकियों के मुद्दे उठाने से पहले कांग्रेस को रेट्रोस्पेक्शन की जरूरत है। उसमें जितनी देरी होगी कांग्रेस को घाटा उतना ही ज्यादा होगा।
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