आज की सुबह खुशी और गम का संगम लेकर आई। राजनीति और अफसरशाही दोनों जगह चर्चे जीत- हार के हैं। अव्वल तो वन मंत्री चुनाव हार गए। दूसरा, बुदनी के दावे भी खोखले निकले। तीसरा, अफसरशाही में आधी रात को आया नए डीजीपी का आदेश इतवार की छुट्टी में भी चारों तरफ घूम रहा है। जैसा कि अनुमान था, वैसा ही हुआ। जो नाम ज्यादा चर्चा में थे, उनका पत्ता कट गया और उज्जैन के मकवाना साहब पुलिस के मुखिया बन गए।
इधर, अफसरशाही में एक साहब को चार इमली पर बंगला न मिलना चर्चा का विषय बना हुआ है। एक कलेक्टर साहब की सैटरडे-संडे वाली छुट्टी के भी खासे चर्चे हैं। उधर, खबर है कि बड़ी मैडम के जाते ही दलालों में झगड़ा हो गया है।
खैर, देश- प्रदेश में खबरें तो और भी हैं, पर आप तो सीधे नीचे उतर आईए और बोल हरि बोल के रोचक किस्सों का आनंद लीजिए…
सुशासन भवन की बदल गई पिक्चर
अफसरशाही तो अफसरशाही होती है। फिर नाम कोई भी हो। अब देखिए साहब लोग अपने एक बड़े साहब को ही चार इमली में बंगला नहीं दिला सके। इसका नतीजा यह रहा कि बड़े साहब ने सुशासन भवन के परिसर को अपना आशियाना बना लिया। दरअसल, चार इमली में बड़े साहब के लिए हियर मार्क्ड था, लेकिन पिछले साहब इस बंगले में नहीं रहे तो इस पर एक प्रभावशाली अफसर ने कब्जा जमा लिया था। रही बात दूसरे बी टाइप बंगलों की तो वे भी फुल थे। ऐसे में साहब ने अपने लिए आशियाना सुशासन भवन के परिसर में ही बनाना उचित समझा। साहब के यहां पहुंचते ही माहौल टाइट हो गया है। पहले वहां खाली पड़े बंगले कुछ चुनिंदा अफसरों के 'काले कामों' के काम आते थे, लेकिन बड़े साहब के यहां आने से पिक्चर बदल गई है।
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साहब और सैटरडे-संडे
इंदौर से सटे एक जिले के कलेक्टर साहब इन दिनों चर्चा में हैं। वजह है, उनका सैटरडे-संडे गायब रहना है। अब यह गायब होना कोई सामान्य हॉलीडे ट्रिप नहीं, बल्कि एक खास कला की तरह हो गया है। शुक्रवार की रात या फिर शनिवार की अल सुबह कलेक्टर साहब इंदौर निकलते हैं, जहां से वे सीधे एयरपोर्ट की ओर रुख करते हैं। इस बीच सवाल ये उठता है कि साहब उस एयरपोर्ट के बाद कहां जाते हैं। बातें सैकड़ों हो रही हैं। किसी का कहना है कि साहब पार्टीबाज हैं। कोई कहता है कि साहब के पास वीकेंड में ऑफिशियल ड्यूटी होती है। कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि कलेक्टर साहब के पास गुप्त मिशन हैं, जिन्हें वह बेहद गोपनीय तरीके से अंजाम देते हैं। इसलिए किसी को कानोकान खबर नहीं लगती। खुफिया तंत्र भी चादर तान के सो रहा है।
निजाम बदलते ही दलालों में झगड़ा
मैडम का राज था तो दलालों की पौ बारह थी। हाल ये था कि अपने हिसाब से अफसरों की पोस्टिंग करवाकर करोड़ों की सप्लाई के ठेके लिए जा रहे थे। मैडम के जाते ही सारा मामला गड़बड़ा गया। दलालों के मुखिया ने जिन अफसरों को मलाईदार पोस्टिंग दिलवाई थी, उन्होंने ही आंखें फेर लीं। ताजा मामला इंट्रेक्टिव पैनल की सप्लाई का है। ये पूरा मामला दलालों के मुखिया ने जमाया था, उन्हें टेंडर मिलना भी तय था, लेकिन मैडम की विदाई के बाद साहब ने तत्काल दूसरे दलाल से सेटिंग जमाकर खेला कर दिया। दलालों के मुखिया को ये बात हजम नहीं हुई। बताते हैं कि दलालों में झगड़ा होने के बाद ईओडब्ल्यू से लेकर मुख्यमंत्री और दिल्ली तक शिकायत शिकवे का खेल शुरू हो गया है।
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हिस्ट्रीशीटर ने पूर्व मंत्री की नाक में किया दम
महाकौशल के एक हिस्ट्रीशीटर भाईजान ने पूर्व मंत्री की नाक में दम कर रखा है। पहले ये हिस्ट्रीशीटर पूर्व मंत्री की नाक का बाल हुआ करता था। बताया जाता है कि टोल नाकों और बड़े कंस्ट्रक्शन के ठेकों में साथ मिलकर काम भी किया, लेकिन जैसे ही हिस्ट्रीशीटर ने माइनिंग के क्षेत्र में कदम रखा, वैसे ही पूर्व मंत्री से संबंध बिगड़ने लगे। हिस्ट्रीशीटर भाईजान की बेगम ने हाईकोर्ट में गुहार लगाई है कि पूर्व मंत्री अपने रसूख का फायदा उठाकर उनके पति पर 22 फर्जी मुकदमे दर्ज करवा दिए हैं।
धनराजू ने बिगाड़ा धन का गणित
राज्य के टैक्स महकमे में धनराजू क्या पदस्थ हुए, साहब लोगों के धन का हिसाब गणित बिगड़ गया। एक समय था जब एंटी एवेजन विंग में पैसा देकर पोस्टिंग कराने के लिए लोग हाथ पैर मारते थे। अब हालात ये हैं कि जो यहां पदस्थ हैं, वो यहां से निकलना चाहते हैं। वजह मनमाने छापे की छूट न मिलना है। दरअसल, लोगों के मामले निपटाने के लिए एंटी एवेजन के लोगों ने मोटा माल बाजार से उठा रखा है, लेकिन धनराजू के आने के बाद काला- पीला करना अब टेढ़ी खीर साबित हो रही है। अफसरों पर कमान कसने के लिए धनराजू ने खुद को भी नियम कायदों में कस रखा है। हालात ये हैं कि छुट्टियों में पर्सनल काम से भोपाल जाने के लिए वे बस से सफर करते हैं।
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ये जीत भी क्या कोई जीत है?
ये जीत भी क्या कोई जीत है...? ये पंक्ति आज दिनभर से चर्चा में है। दरअसल, बुदनी में बीजेपी ने जीत तो दर्ज की, लेकिन जैसे दावे किए जा रहे थे, कयास लगाए जा रहे थे, नतीजे उसके उलट आए। अब इसके पीछे की वजह भी सामने आई है। महाराज को प्रचंड जीत कोई नहीं दिलाना चाहता था, क्योंकि यदि ऐसा होता तो वे अगली बार के लिए फिर दावेदार होते। इसलिए हर जगह से उन्हें नुकसान पहुंचाया गया। यहां तक कि जिनका अपने समाज में दबदबा है, वे ही मैदान में नहीं उतरे। टीम ने भी काम नहीं किया। नतीजा, यही हुआ कि मामा जहां से रिकॉर्ड तोड़ वोटों से जीतते थे, वहां भार्गव 10 फीसदी वोटों से जीत पाए। पटेल साहब ने कड़ी टक्कर दी।
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