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लक्ष्मण सिंह मरकाम
ओएसडी लक्ष्मण सिंह मरकाम की एक पोस्ट ने बड़ी बहस को जन्म दे दिया है। दरअसल लोकसभा चुनाव में संविधान के जिस नरैटिव का जवाब BJP खोजने में असफल रही थी, मरकाम ने इसे एक दिशा दिखाने की कोशिश की है। मरकाम की यह पोस्ट सियासी गलियारों में चर्चा का विषय बन गई है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो उन्होंने संविधान की दुहाई देने वाले उस तबके को भी ललकारा है, जो संविधान का मर्म समझते ही नहीं।
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तो पढ़िए, लक्ष्मण सिंह मरकार की पोस्ट…
अमीरों की संविधान वाली किताब .. लक्ष्मण सिंह मरकाम
मेरे पुस्तकालय में EBC की और साधारण वाली संविधान की पुस्तक काफ़ी समय से हैं , EBC वाली पुस्तक , नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में एक लेक्चर के लिए गिफ्ट मिली थी क़ीमत उसकी उस समय 745/- की है , सामान्य वाली 70/- की है जो तैयारी के समय ख़रीदी थी ।
EBC वाली एक सज्जन दिखाते रहते हैं, उसे पढ़े हैं कि नहीं कह नहीं सकते, साधारण वाली वही बात कहती है , संविधान एक ही है, अंग्रेज़ी में पढ़ने वाले का अलग , हिंदी में पढ़ने वाले का अलग।
हम लोग दुर्गा दास बसु से पढ़े वाली पीढ़ी के हैं, अंग्रेजी वाले, अपने ही NLU में पढ़े ग़रीब को जज बनाये जाने के पक्ष में नहीं हैं, हिंदी वाले, गांव के पढ़े को IAS भी बना देते हैं, वो पूरा सिस्टम सम्हाल सकने में सक्षम है, लेकिन न्याय तो वंशानुगत बुद्धिजीवी ही कर पाएंगे। ठीक उसी प्रकार देश का नेतृत्व नाक की लंबाई देखकर किया जाएगा ।
असल में लाल किताब वाला संविधान खतरनाक है , क्यूंकि उसमे क़ीमत पन्नों की नहीं है, जिल्द की है।
लाल किताब वाले समझते तो हैं मानते नहीं हैं, समानता की बात करना और समानता का आचरण करना कठिन है ।
अंग्रेजी वाली लाल किताब की प्रस्तावना में पांच राक्षसों की बात कही है :-
1. The Golems - NCB, ED , SFIO
2.The Cyclops - CrPC
3. The Hydra - क्षमता विहीन वकील
4. The Goggayya - जमानत का प्रश्न
5. The Vampires - आरोपी जनप्रतिनिधि
सवाल अंग्रेजी वालों से ये हैं कि जब न्याय ही बहुत मंहगा शौक है, उनके तो उदाहरण भी विदेशी हैं, और ग़रीब को न्याय इन्हीं अंग्रेजी संभ्रांत वर्ग चश्मे से मिलेगा , ग़रीब को न्याय के गलियारे कर्ज में डुबो देते हैं, अंग्रेजों की मानसिकता से जड़ों तक सिंचित लोग, बस जिल्द के शौकीन हैं, उनका संविधान के मर्म से कोई लेना देना नहीं है ।
सबसे निचली न्याय व्यवस्था में भी ये अंग्रेजी मानसिकता वाले, किसी भी ग़रीब और एससी/एसटी वर्ग को उपयुक्त नहीं समझते, उनको लिखित परीक्षा में अच्छे अंक आने के बाद भी साक्षात्कार में फेल कर दिया जाता है, ताकि कल कोई निचली न्याय व्यवस्था का अनुभव लेकर, उच्च व्यवस्था में हिस्सेदारी ना मांग ले
समानता , समता और समरसता भाषण का नहीं, आचरण का विषय है, आचरण बाहरी बदलाव नहीं आंतरिक यात्रा माँगता है, जैसे कोलंबस ने अमेरिका को खोज लेने का तमगा प्राप्त किया, कुछ नाक वालों ने “ डिस्कवरी ऑफ इंडिया “ का तमगा पा लिया, उस किताब के इंडिया में ना अंबेडकर थे, ना बुद्ध ना विवेकानंद ।
उनकी डिस्कवरी की मानसिकता ने गरीबी को खोजा और गरीबी हटाने का फार्मूला भी खोज लिया, गरीबी तो हटी नहीं, ग़रीब बढ़ते रहे ।
अब भी ये नींद से नहीं जागना चाहते , लाल किताब वाले संविधान को पढ़ने वालों के लिए ग़रीब और शोषित “ लैब के चूहे हैं “, जो इनकी पीढ़ियों को सत्ता में काबिज होने के हुनर के लिए काम आयेंगे।
अश्वेत सूर्या, एक जिमनास्ट थी, उनकी कहानी इसी भेदभाव को इंगित करती है , उसने सबसे अच्छा प्रदर्शन किया , लेकिन अश्वेत होने के कारण उसे विजेता नहीं घोषित किया गया ।
उसने पोडियम के नीचे खड़े होकर दूसरे नंबर का मेडल लिया और, अगले मैच में बर्फ पर स्केटिंग करते हुए समरसोल्ट किया, जो आज तक कोई नहीं कर पाया है ।
पूर्व को आदर्श मानने वाले भारत की हर बात को, भाषा को, ज्ञान को निम्नतर मानते हैं । जब तक उनके पश्चिम के चश्मे लगे हैं, उनको बस जिल्द की अहमियत दिखाई देगी।
संविधान, जिल्द नहीं उसके पन्नों पर लिखे काले अक्षरों की आत्मा है, जो जीवंत है, जागृत है, परिवर्तन कारी है, जो भी इसकी आत्मा से खिलवाड़ करेगा, उसे आज नहीं तो कल, कोई सूर्या दाँत दिखा देगी, कोई अम्बेडकर खड़ा होकर, जिल्द को तार तार कर देगा ।
बर्बरीक की तरह इसकी यात्रा को देखने वाले, हर कमजोर के साथ खड़े होकर चिढ़ायेंगे, हवादार कमरों में अंग्रेजी में न्याय सुनाने वालों को ..
- लक्ष्मण राज सिंह मरकाम, शोधार्थी
कह के रहेंगे, के लिए लिखा नोट ..
#laxmansinghmarkam
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