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BHOPAL/ RAIPUR/ JAIPUR. सुप्रीम कोर्ट की हालिया आदेश के बाद मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में आउटसोर्स कर्मचारियों का गुस्सा उबाल पर है। सरकारी दफ्तरों में बरसों से कम वेतन और असुरक्षित नौकरी के दम पर काम कर रहे इन कर्मचारियों को अब ‘समान पद, समान वेतन’ की उम्मीद नजर आ रही है।
लेकिन, सरकारों के ढुलमुल रवैये ने इनकी नाराजगी और भड़का दी है। अभी हालत यह हैं कि स्थायी कर्मचारियों के बराबर काम करने के बावजूद इनका वेतन आधा या उससे भी कम है। न तो नौकरी की गारंटी है और न ही पेंशन जैसी सुविधाएं। यहां तक कि उन्हें दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी जितना वेतन भी नहीं दिया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में कहा कि सरकार कोई बाजार का दुकानदार नहीं है। वह एक संवैधानिक संस्था है और उसे सर्वोच्च मानक स्थापित करना होता है। ड्राइवर, सुरक्षाकर्मी, चपरासी, माली जैसे स्थायी प्रकृति के काम के लिए आउटसोर्स कर्मचारी की नियुक्ति नहीं की जा सकती।
आउटसोर्स, संविदा, तदर्थ अथवा अतिथि इत्यादि माध्यमों से कर्मचारियों का शोषण नहीं किया जा सकता। यदि शासन ने किसी नियमित प्रकृति के कार्य का सृजन किया है तो उसके लिए पद का सृजन करना भी सरकार की जिम्मेदारी है। सुप्रीम कोर्ट की यह तीखी टिप्पणी आउटसोर्स, संविदा और अतिथि माध्यम से कर्मचारियों की व्यवस्था के संदर्भ में है।
ठेका प्रथा कर रही कर्मचारियों का शोषण
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी ठेका प्रथा आउटसोर्स कर्मचारियों का शोषण कर रही है। मध्यप्रदेश में प्रशासनिक व्यवस्था के मूल में 10 लाख से ज्यादा कर्मचारी संविदा, आउटसोर्स और अतिथि व्यवस्था के तहत काम कर रहे हैं।
राजस्थान में यह आंकड़ा डेढ़ लाख से ज्यादा है। छत्तीसगढ़ में भी 80 हजार कर्मचारी कंपनियों के माध्यम से सरकार के विभागों में कार्यरत हैं। विभागों में काम करने वाले इन कर्मचारियों के हितों की अनदेखी पर सरकारें चुप्पी साध लेती हैं।
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शिकायतों पर गौर नहीं, बंधुआ जैसे हालात
आउटसोर्स कंपनियों की शिकायतें पहुंचने के बावजूद अधिकारी इससे पल्ला झाड़ने में जुट जाते हैं। यही वजह है कि आउटसोर्स व्यवस्था की आड़ में श्रम कानूनों का उल्लंघन जारी है। आउटसोर्स, संविदा और गेस्ट फैकल्टी के रूप में काम कर रहे कर्मचारियों को न तो साप्ताहिक अवकाश ही नहीं मिलता। जब कभी साप्ताहिक अवकाश के नाम पर कर्मचारी छुट्टी पर रहता है तो उसका वेतन काट लिया जाता है।
कर्मचारियों को प्रसूति, चिकित्सा अवकाश जैसी सुविधाओं से वंचित रखा जा रहा है। यही नहीं, सरकार के विभागों से कर्मचारियों के नाम पर जिस वेतन पर कंपनियां अनुबंध करती है, उसमें भी कटौती और कमीशनखोरी हो रही है। बात चाहे मध्यप्रदेश की हो, छत्तीसगढ़ की हो या फिर राजस्थान की, आउटसोर्स व्यवस्था हर जगह कर्मचारियों के हितों पर कुठाराघात कर रही है।
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मध्य प्रदेश
तीन दशक से टल रही ग्रेड 3 और 4 में स्थायीनियुक्तियां
मध्यप्रदेश में तीन दशक से सरकारी विभागों में नियुक्तियां लगातार टलती आ रही हैं। जितने कर्मचारी सेवानिवृत्त होते हैं, उनके मुकाबले आधे कर्मचारी भी भर्ती नहीं होते। दूसरी ओर प्रदेश में आबादी बढ़ने से विभागों के काम का दायरा बढ़ा है। नई योजनाओं के क्रियान्वयन, नए अस्पताल, मेडिकल कॉलेज, बिजली कंपनियों के सब स्टेशन, उपभोक्ताओं की संख्या भी दो से तीन गुना तक बढ़ चुकी है। जबकि, स्थायी कर्मचारियों की नियुक्ति 20-30 साल या उससे भी पुरानी पदस्थापना के आधार पर ही अटकी हुई है। नतीजा, बिजली कंपनियां, स्वास्थ्य विभाग, पीएचई, पीडब्ल्युडी, बैंकिंग सेक्टर, नगरीय निकायों में कर्मचारियों की कमी बढ़ गई है। मध्यप्रदेश में तो सरकार की धुरी यानी मंत्रालय की आधी व्यवस्था आउटसोर्स कर्मचारियों के कांधों पर है। नियुक्तियां न आने की स्थिति में विभागों ने काम चलाऊ यानी आउटसोर्स व्यवस्था को अपना लिया है। यह व्यवस्था तो अस्थायी थी, लेकिन खर्च में कटौती को देखते हुए विभागों ने इसे स्थायी बना लिया है।
12 घंटे तक लिया जा रहा काम
मध्य प्रदेश में 10 लाख से ज्यादा आउटसोर्स, संविदा और अतिथि व्यवस्था के कर्मचारी विभागों के कामकाज और योजनाओं को संभाल रहे हैं। सरकारी विभागों में सुरक्षा और सम्मानजनक वेतन मिलने का सपना देख रहे युवा इस आउटसोर्स व्यवस्था में फंसकर धोखे का शिकार हो रहे हैं। समान काम-समान वेतन के कानून का पालन कराने का जिम्मा सरकार का है। लेकिन, उसी के विभागों में कर्मचारियों को आउटसोर्स कंपनियां ठग रही हैं। श्रम कानूनों को ताक पर रखकर 8 घंटे की जगह 12 घंटे से ज्यादा काम कराया जा रहा है। जोखिम भरे कामों में लगाए जाने वाले कर्मचारियों की सुरक्षा का प्रबंध कंपनियां तो कर ही नहीं रहीं सरकारी अफसर भी इस ओर आंखें बंद कर चुके हैं।
रोजगार की आड़ में कमाई का झाड़
श्रम कानून के मुताबिक कर्मचारियों को कलेक्टर रेट से मासिक वेतन का भुगतान होना चाहिए। लेकिन, मध्य प्रदेश में अधिकारियों की मिलीभगत से कंपनियां कर्मचारियों को कम वेतन दे रही हैं। स्थिति ये है कि बिजली कंपनियां, अस्पतालों में आउटसोर्स कर्मचारियों से सुरक्षा, सफाई और मेंटेनेंस का काम कराने के बदले में पांच, सात या अधिकतम 10 हजार रुपए ही वेतन दिया जा रहा है। जबकि सरकार से 12 से 20 हजार रुपए मासिक का अनुबंध होता है। बेरोजगारों की बढ़ती संख्या को कंपनियों ने कमाई का जरिया बना लिया है।
आउटसोर्स पर टिकी विभागों की व्यवस्था
ग्राम पंचायतों के भवन की सुरक्षा में तैनात पंचायत चौकीदार, चपरासी, सफाई कर्मी एवं पम्प ऑपरेटर पांच हजार से कम मासिक वेतन में काम कर रहे हैं। वहीं सरकारी स्कूलों में मध्यान्ह भोजन पकाने वाली महिलाकर्मियों को भी चार से पांच हजार रुपए ही दिए जा रहे हैं। जबकि, सरकार महज 3-4 हजार रूपए में काम कराया जा रहा है। नगरीय निकायों की पूरी व्यवस्था आउटसोर्स या संविदा पर निर्भर है। सफाई कर्मचारी, कम्प्युटर ऑपरेटर से लेकर स्वच्छता अभियान जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का जिम्मा भी अस्थायीकर्मी संभाल रहे हैं। पूरे प्रदेश में बिजली कंपनियों के पास 20 फीसदी ही लाइनमैन या सब स्टेशन ऑपरेटर स्थायी है बाकी पूरी बिजली सप्लाई आउटसोर्स कर्मचारियों के जिम्मे है।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी बता रही गंभीरता
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में स्पष्ट किया है कि सरकारी विभागों में स्थाई कार्यों के लिए स्थाई कर्मचारियों की भर्ती अनिवार्य है। ठेका और आउटसोर्स के जरिए लंबे समय तक कार्य लेना असंवैधानिक है, यह कर्मचारियों के मौलिक अधिकारों का हनन है। इस फैसले ने प्रदेश के युवाओं की उम्मीदें जगा दी हैं। वहीं, सरकार को ऐसे अस्थायी, अंशकालिक, संविदा और आउटसोर्स कर्मचारियों को लघु कैडर बनाकर उनके हितों की रक्षा पर ध्यान देने की जरूरत है। विधानसभा के मानसून सत्र में कई विधायकों ने आउटसोर्स और अस्थायी कर्मचारियों की व्यवस्था पर सवाल उठाकर वाकआउट किया है। इससे जाहिर होता है प्रदेश में आउटसोर्स व्यवस्था में पिस रहे युवाओं में असंतोष कितना गहरा चुका है।
इस मामले के संदर्भ में की है टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तरप्रदेश शिक्षा सेवा आयोग के चतुर्थ श्रेणी के पांच कर्मचारी और एक वाहन चालक की याचिका पर उनके पक्ष में निर्णय दिया है। इन कर्मचारियों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका खारिज होने के बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। इन कर्मचारियों को दैनिक वेतन भोगी के रूप में नियुक्ति दी गई थी लेकिन बाद में वित्तीय परेशानी और नवीन पदों के सृजन न होने का हवाला देकर नियमित नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने जग्गो बनाम भारत संघ और श्रीपाल एवं अन्य बनाम नगर निगम गाजियाबाद मामले में न्याय दृष्टांत का उल्लेख कर निर्णय सुनाया है। इसमें कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि स्थायी प्रकृति के काम के लिए आउटसोर्स कर्मचारी की नियुक्ति नहीं की जा सकती। आउटसोर्स, संविदा, तदर्थ अथवा अतिथि के माध्यम से कर्मचारियों का शोषण नहीं किया जा सकता। यदि शासन ने किसी नियमित प्रकृति के कार्य का सृजन किया है तो उसके लिए पद का सृजन करना भी सरकार की जिम्मेदारी है।
प्रदेश में अस्थायी, आउटसोर्स कर्मियों की स्थिति :
बिजली कंपनी : 60,000 से ज्यादा
स्वास्थ्य विभाग : 1.50 लाख से ज्यादा
पंचायत विभाग : 1 लाख से ज्यादा
स्कूल एवं जनजातीय शिक्षा : 1 लाख से ज्यादा
व्यावसायिक शिक्षा : 50,000
योग सहायक : 5000
कम्प्युटर ऑपरेटर : 1 लाख
वाहन चालक : 50 हजार से ज्यादा
नगरीय निकाय : 2 लाख से ज्यादा
सहकारिता विभाग 7000
चपरासी- माली : 50,000 से ज्यादा
अस्थायी कर्मचारियों को अपने हक के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। आउटसोर्स कंपनियां उन्हें कम वेतन देती हैं, छुट्टी नहीं मिलती, प्रताड़ित किया जाता है। कर्मचारी नाराज है, इसकी परिणिति जल्द बड़े आंदोलन का रूप लेने जा रही है। - वासुदेव शर्मा, अध्यक्ष, ऑल डिपार्टमेंट अस्थायी-आउटसोर्स कर्मचारी मोर्चा
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छत्तीसगढ़
आउटसोर्सिंग यानी सरकारी खजाने की लूट, कर्मचारियों से हो रही उगाही
छत्तीसगढ़ में कर्मचारियों की कमी को दूर करने के लिए लाई गई आउटसोर्सिंग व्यवस्था अब भ्रष्टाचार का माध्यम बन गई है। ठेका कंपनियों और सरकारों के मिलीभगत से चल रहे इस खेल में प्रदेश के कर्मचारी परेशान हैं। उन्हें न तो तय वेतन मिल रहा और न ही सुविधाएं। जबकि, ठेका कंपनियां सालाना करोड़ों का टर्नओवर कर रही हैं। स्कूल शिक्षा विभाग से शुरु हुई यह व्यवस्था अब सुरक्षा, स्वास्थ्य, आबकारी, आदिम जाति, नगरीय प्रशासन विभाग तक पहुंच गई है।
कैसे होता है खेल कमाई का
छत्तीसगढ़ में आउटसोर्सिंग की सबसे बड़ी कंपनी 'कॉल मी सर्विस' है। प्रदेश में इसने काम की शुरुआत स्कूल शिक्षा विभाग के विद्यामितान योजना से की। इसमें ये उन जिलों जहां शिक्षकों की कमी थी, उन स्कूलों में विद्यामितानों या अतिथि शिक्षकों की नियुक्ति की गई थी। इसके लिए ये शासन से 30 से 35 हजार रुपए तक लेती थी। हकीकत यह है कि विद्यामितानों को 12 से 15 हजार रुपए ही देते थे। उस दौरान प्रदेश में करीब 8 हजार अतिथि शिक्षक थे। जिससे कंपनी सालाना लगभग डेढ़ अरब रुपए कमा रही थी।
स्वास्थ्य से लेकर शराब तक
'कॉल मी सर्विस' स्वास्थ्य और शराब दुकानों के लिए मैन पॉवर सप्लाई करने लगी। इसके बाद बढ़ता रेवेन्यू देख अन्य कंपनियां भी मैदान में आ गईं। जो सालाना करोड़ों रुपए का टर्न ओवर बना रही हैं। छत्तीसगढ़ में एनजीओ के तहत भी कर्मचारियों से काम करवाने का चलन जोरों पर है। राज्य स्वास्थ्य संसाधन केंद्र के जरिए यहां के अधिकारी 15 साल नियम विरुद्ध 70 हजार मितानिनों से काम लेते रहे। साल 2024 में विष्णु देव साय सरकार ने इस गड़बड़ी पर लगाम लगाते हुए एनजीओ राज्य स्वास्थ्य संसाधन केंद्र को बाहर कर दिया। इन 15 साल में एनजीओ ने हजारों करोड़ कमाए। अब एनएचएम भी एनजीओ के जरिए कर्मचारी सेवा लेकर केंद्रिय फंडिंग को चूना लगा रहा है।
80 हजार से ज्यादा कर्मचारी
प्रदेश के हर विभाग, निगम, आयोग और मंडल में आउटसोर्सकर्मियों से काम लेने की परंपरा जारी है। इस व्यवस्था में अधिकारी अपने चहेतों को फायदा पहुंचा रहे हैं। आउटसोर्स पर सबसे ज्यादा चपरासी, वाहन चालक, सफाई और सुरक्षाकर्मी हैं लेकिन सबसे अधिक संख्या आउटसोर्सिंग, ठेकेदारी से भर्ती होने वाले कर्मचारियों की है, जो सभी विभागों में काम कर रहे हैं। कर्मचारी नेताओं के मुताबिक इनकी संख्या राज्य में 80 हजार से ज्यादा है।
नो प्रॉफिट- नो लॉस पर काम
नई कंपनियों के आने के बाद जब कॉम्पटीशन बढ़ा तो कुछ कंपनियां सेवा के नाम पर नो प्रॉफिट-नो लॉस पर काम लेने लगीं। मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक ये कर्मचारियों को नौकरी देने के नाम पर 15-20 हजार रुपए ले लेते हैं। ड्रेस के नाम पर वसूली होती है। इसके अलावा साप्ताहिक और शासकीय अवकाश के दिन का वेतन काट लेते हैं। ऐसा कर वे हर महीने प्रति कर्मचारी से 2 हजार रुपए तक कमा लेते हैं।
सेवा के नाम पर यह वसूली का खेल है, देशव्यापी आंदोलन की तैयारी है। सरकार ने शिक्षा से लेकर शराब बेचने तक में आउटसोर्स को बढ़ाया है। यह एक बड़ा आर्थिक घोटाला और रोजगार के नाम पर खिलवाड़ है। - अनिल शुक्ला, वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, इफ्सेफ
अपना आर्थिक भार कम करने सरकार ठेका प्रथा पर जोर दे रही है, जिससे कर्मचारी परेशान हैं। ठेका कंपनियां उनके साथ सौतेला व्यवहार करते हुए वसूली करती हैं। इसे बंद करना जरूरी है। -ओपी शर्मा, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, इफ्सेफ
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3. राजस्थान
संविदा पर डेढ़ लाख कर्मचारी, नियमों के तहत सिर्फ 60 हजार
राजस्थान के सभी सरकारी विभागों में लगभग डेढ़ लाख संविदा कर्मचारी हैं। लेकिन, अब तक सिर्फ सात विभागों ने ही नियमों के तहत भर्ती प्रक्रिया को अपनाया है। संविदा कार्मिक नियमों के तहत अपनी नियुक्ति को लेकर लगातार आंदोलन कर रहे हैं। उनका दावा है कि वे बरसों से सरकारी कार्यालयों में काम कर रहे हैं, फिर भी उन्हें नियमों के तहत नहीं लिया जा रहा। प्रदेश में विभिन्न सरकारी विभागों में संविदा पर लगे कर्मचारियों के लिए राजस्थान कांट्रेक्चुअल हायरिंग टू सिविल पोस्ट रूल्स 2022 बनाया गया है। इसके तहत संविदा पदों को नियमित पदों में लेना था, किन्तु ती साल बाद भी नियुक्ति नियमों के तहत नहीं हो पा रही है। नियम सभी विभागों को भेजे जा चुके हैं, लेकिन उच्च स्तर पर संविदा कर्मियों को नियमों के तहत लेने के लिए दिलचस्पी नहीं ली जा रही है।
संविदाकर्मियों के लिए 62,401 पद रिक्त
चार साल पहले राज्य सरकार ने राजस्थान कांट्रेक्चुअल हायरिंग टू सिविल पोस्ट रूल्स 2022 लागू करके 1,22,527 पद सृजित किए थे। लेकिन अब तक केवल 60,126 पदों पर ही नियुक्तियां दी गई हैं। सृजित पदों में से अभी भी संविदा कर्मचारियों के लिए 62,401 पद खाली पड़े हैं। लेकिन, विभिन्न विभागों के अधिकारी इन्हें भरने के लिए कोई कवायद नहीं कर रहे हैं। नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर वित्त विभाग ने 25 अक्टूबर 2024 को दिशा निर्देश (एसओपी) भी जारी किए थे। इसे सख्ती से लागू नहीं किया जा रहा। राज्य सरकार के 7 विभागों में ही अब तक संविदा कार्मिकों को नियुक्तियां मिली हैं।
नियमों के तहत नियुक्त संविदाकर्मी
शिक्षा (प्रारंभिक एवं माध्यमिक) - 35,804
चिकित्सा एवं स्वास्थ्य - 16,494
अल्पसंख्यक मामलात एवं वक्फ - 5,562
स्वायत्त शासन - 1,226
ग्राम विकास एवं पंचायतीराज - 978
तकनीकी शिक्षा - 41
संस्कृत शिक्षा - 21
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के अनुरूप राज्य सरकार को समान पद, समान वेतन का नियम तत्काल लागू करना चाहिए। इससे अल्प वेतनभोगियों को राहत मिल सकेगी। - आनंदसिंह नरुका, प्रदेशाध्यक्ष, कनिष्ठ शिक्षक एवं सहायक शिक्षक संघर्ष समिति, राजस्थान