इमरान हाशमी, यामी की शाहबानो केस पर बनी हक मूवी होगी रिलीज, याचिका खारिज

इंदौर में शाहबानो केस पर आधारित फिल्म हक का विवाद बढ़ गया था, लेकिन इंदौर हाईकोर्ट ने शाहबानो की बेटी की याचिका को खारिज कर दिया। फिल्म 7 नवंबर को रिलीज होगी। इस फिल्म में इमरान हाशमी और यामी गौतम मुख्य भूमिका में हैं।

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Sanjay Gupta
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देश को हिला देने वाले इंदौर के सबसे चर्चित शाहबानो केस पर बनी फिल्म को लेकर बड़ी खबर समने आई है। अभिनेता इमरान हाशमी और यामी गौतम धर अभिनीत फिल्म हक रिलीज होगी। इस मूवी को लेकर शाहबानो की बेटी सिद्धीका के जरिए लगाई गई याचिका को इंदौर हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया है। यह मूवी सात नवंबर को रिलीज हो रही है।

इस आधार पर की गई खारिज

इंदौर हाईकोर्ट ने सभी तर्कों को सुनने के बाद चार नवंबर को आदेश रिजर्व कर लिया था, जो 6 नवंबर को जारी कर दिया गया। जस्टिस प्रणय वर्मा ने आदेश में लिखा है कि फिल्म को लेकर फरवरी 2024 से काम चल रहा था। इस संबंध में विविध आर्टिकल प्रकाशित हुए।

23 सितंबर 2025 में टीजर आया, इस पर 6 अक्टूबर को संबंधित फिल्म मेकर्स को नोटिस हुए। फिर हाईकोर्ट में याचिका फिल्म रिलीज से 6 दिन पूर्व, 1 नवंबर को दाखिल की गई। इसमें पर्याप्त समय होने के बाद भी देरी की गई और याचिका रिलीज के कुछ दिन पहले लगाई गई। यानी वह इसे लेकर सतर्क नहीं थे।

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हाईकोर्ट ने यह भी तर्क सही पाए

हाईकोर्ट ने फिल्म मेकर्स की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अजय बागड़िया और अधिवक्ता एचवाई मेहता व चिन्मय मेहता के तर्कों को सही पाया। मेहता के जरिए पेश किए गए विविध कोर्ट केसों का जिक्र भी आदेश में किया गया।

इसमें साफ किया गया कि फिल्म मेकर्स ने डिस्क्लेमर दिया है कि यह फिल्म काल्पनिक चित्रण है। इस केस के रिकॉर्ड सार्वजनिक रूप से मौजूद हैं, साथ ही बानो-भारत की बेटी पुस्तक भी इस पर आधारित है।

लगातार इस पर आर्टिकल हुए और साहित्य मौजूद है, लेकिन कभी भी परिजनों द्वारा कोई आपत्ति नहीं ली गई। यह फिल्म बायोपिक नहीं है और न ही किसी व्यक्ति विशेष पर डाक्यूमेंट्री है। ऐसे में याचिका को खारिज किया जाता है।

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इन सभी को बनाया गया था पक्षकार

इसमें शाहबानो की बेटी सिद्धीका बेगम ने अधिवक्ता तौसीफ वारसी के जरिए याचिका लगाई थी। साथ ही, फिल्म रिलीज पर रोक की मांग की थी। केस में केंद्र सरकार, सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन यानी सेंसर बोर्ड, इंसोमेनिया मीडिया एंड कंटेंट सर्विसेस लिमिटेड, प्रोड्यूसर ऑफ फिल्म हक, बावेजा स्टूडियोज प्रालि, जंगलीज पिक्चर्स, और डायरेक्टर सुपर्ण वर्मा को पक्षकार बनाया गया।

सुनवाई के दौरान इन्होंने रखे थे तर्क

केस में केंद्र की ओर से रोमेश दवे ने पक्ष रखा। वहीं जंगलीज प्रोड्यूसर की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अजय बागड़िया ने और इंसोमेनिया की ओर से अधिवक्ता एसएच मेहता व अधिवक्ता चिन्मय मेहता ने पक्ष रखे। इसमें फिल्मों के डायलॉग्स व सेंसर बोर्ड के नियमों व अन्य कोर्ट केस फैसलों के आधार पर याचिका को खारिज करने की मांग की गई।

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अधिवक्ताओं ने इन केस के डायलॉग्स से दी दलील

वरिष्ठ अधिवक्ता बागड़िया ने कहा था कि यह काल्पनिक चित्रण है, यह बायोपिक नहीं है। इसमें महिला के संघर्ष को दिखाया गया है, इसमें दो अहम डायलॉग्स हैं जो टीजर और ट्रेलर में हैं। एक बानो तो बहाना है, हम पर हमला तो पुराना है और कौम के साथ गद्दारी की है।

यह बताता है कि किस तरह महिलाओं के लिए हालात थे और कैसे लड़ाई की गई। यह व्यक्तिगत मामला नहीं है। इसी तरह अधिवक्ता एचवाई मेहता ने भी सेंसर बोर्ड के नियमों के तहत बताया। उन्होंने कहा कि फिल्म को सर्टिफिकेट मिल चुका है, तो क्या कोई ऐसा नियम है जो सर्टिफिकेट को रोकता है? ऐसा कोई नियम नहीं है। इसमें किसी तरह की प्राइवेसी में दखल नहीं दिया गया है।

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क्या है देश को हिलाने वाला शाहबानो केस?

शाहबानो इंदौर की रहने वाली एक मुस्लिम महिला थीं। साल 1975 में शाहबानो के पति मोहम्मद अहमद खान ने उसे तलाक दे दिया था। शाहबानो और उसके 5 बच्चों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया था। उस समय शाहबानो की उम्र 59 साल थी। शाहबानो ने बच्चों के लिए हर महीने गुजारा भत्ता देने की मांग की थी। वहीं, उसके पति मोहम्मद अहमद खान ने शाहबानो को तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) दे दिया था। इसके बाद उसने किसी भी तरह की मदद करने से इनकार कर दिया था।

निचली कोर्ट, हाईकोर्ट से होते हुए मामला सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ तक पहुंचा। शाहबानो ने कहा कि तीन तलाक के बाद इद्दत की मुद्दत तक ही तलाकशुदा महिला की देखरेख की जिम्मेदारी उसके पति की होती है। तलाक के बाद गुजारा भत्ता देने का कोई प्रावधान नहीं है।

मामला मुस्लिम पर्सनल लॉ से जुड़ा था। लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची। पांच जजों की संविधान पीठ ने 23 अप्रैल 1985 को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के आदेश के खिलाफ जाते हुए शाहबानो के पति को आदेश दिया कि वह गुजारा भत्ता दें।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत हर महीने मोहम्मद अहमद खान को 179.20 रुपए देने थे। इस आदेश में संविधान पीठ ने सरकार से समान नागरिक संहिता की दिशा में आगे बढ़ने की अपील की थी। वहीं, समान नागरिक संहिता वाली टिप्पणी और इस फैसले को लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने जमकर नाराजगी जताई थी।

इसके बाद, विरोध से झुकते हुए राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) कानून 1986 सदन में पेश किया था। एक तरह से उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था।

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