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दाएं में मृतक राजेश जोशी बाएं में मोहन सेंगर Photograph: (the sootr)
इंदौर में 12 अगस्त 1997 की दोपहर 12 बजे सुभाष नगर चौराहे पर हुए सबसे चर्चित पार्षद राजेश जोशी हत्याकांड के आरोपियों को बरी करने पर अब सुप्रीम कोर्ट की भी मुहर लग गई। इस मामले में कांग्रेस से बीजेपी में आए और केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक मोहन सेंगर व अन्य आरोपी सुप्रीम कोर्ट से भी बरी हो गए। इस मामले में मप्र शासन द्वारा हाईकोर्ट द्वारा साल 2011 में दिए गए फैसले के खिलाफ की गई अपील सुप्रीम कोर्ट से खारिज हो गई। सेंगर साल 2018 में कांग्रेस से विधानसभा दो में बीजेपी के रमेश मेंदोला के खिलाफ चुनाव लड़ चुके हैं। साल 2020 में सिंधिया के बीजेपी में आने के दौरान वह भी कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आ गए।
इस तरह चला केस
अगस्त 1997 में हुएं इस हत्याकांड के बाद ट्रायल कोर्ट में केस चला। इसमें साल 2002 में मोहन सेंगर व अन्य आऱोपियों को उम्र कैद की सजा सुनाई गई। बाद में हाईकोर्ट से जमानत हुई। आरोपियों ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी और हाईकोर्ट ने जिला कोर्ट के फैसले को खारिज कर सभी को बरी कर दिया। यह फैसला दिसंबर 2011 में आया था। सुप्रीम कोर्ट में सरकार अपील में गई और वहां सेंगर के अधिवक्ता एसके व्यास ने तर्क रखे। सुनवाई के बाद शासन की अपील खारिज हो गई और सेंगर व अन्य बरी हो गए।
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यह सभी आरोपी केवल इस कारण से हुए बरी
इस हत्याकांड में पुलिस ने 12 अगस्त 1997 की रात को मोहन सेंगर के साथ ही उदल सिंह, गोविंदसिंह, वीरेंद्र सिंह, राजेंद्र सिंह, देवीसिंह, इंदरसिंह, लक्ष्मणसिंह, दिनेश आरोपी थे। ट्रायल कोर्ट में सुनवाई के दौरान ही दिनेश की मौत हो गई। वहीं कोर्ट में लक्ष्मणसिंह और देवीसिंह को संदेह का लाभ देते हुए बरी किया गया। बाद में वीरेंद्रसिंह और इंदरसिंह की भी अपील के दौरान मौत हो गई। बाकी बचे मोहनसेंगर, उदलसिंह, राजेंद्रसिंह और गोविंदसिंह की अपील पर हाईकोर्ट ने दिसंबर 2011 में फैसला दिया और बरी किया। इनके बरी होने का बड़ा कारण पुलिस द्वारा घटनाक्रम साढ़े 12 बजे ही पता चलने के बाद भी एफआईआर रात नौ बजे करना रहा। इस दौरान आरोपी पक्ष यह सिद्ध करने में कामयाब रहा कि सभी गवाह और घटनास्थल पास ही था लेकिन इसके बाद भी बयान नहीं लिए गए और केस दर्ज नहीं किया, सभी ने मिलकर इसमें आरोपी बनाने के लिए पूरी कहानी तैयारी की और इसके बाद साजिश कर यह आरोपियों को फंसाने के लिए एफआईआर दर्ज की गई।
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यह हुआ था पूरा हत्याकांड में- जोशी को कहा था बहुत बड़े नेता बन गए हो
दिनांक 12.8.97 को प्रातः लगभग 11.30 बजे राजेश जोशी एवं मनोज धवन (पीडब्लू 1) राजेश जोशी के घर पर बैठे हुए थे। उस समय एक अज्ञात व्यक्ति राजेश जोशी के पास आया तथा उसे बताया कि उसे नगर निगम, जोनल कार्यालय सुभाष नगर, इंदौर में बुलाया गया है। राजेश जोशी एवं मनोज धवन अपने स्कूटर क्रमांक एमकेआई-4514 पर जोनल कार्यालय गए। कार्यालय पहुंचने पर उन्हें वहां कोई नहीं मिला। राजेश जोशी के घर एवं जोनल कार्यालय के बीच लगभग तीन मिनट की दूरी है तथा जब वे स्कूटर पर वापस आ रहे थे, तभी वहां पहले से छिपे हुए आठ आरोपी सामने आए तथा स्कूटर चला रहे राजेश जोशी को रोका। उन्होंने राजेश जोशी को गालियां दी तथा उसे स्कूटर से खींच लिया तथा कहा कि वह दिन-प्रतिदिन नेता बनता जा रहा है तथा उसने उनकी दुकानें तोड़ दी हैं, वह ऐसा नहीं होने देगा तथा वे उसे जान से मार देंगे तथा दोनों को चोटें पहुंचाईं। विभिन्न हथियारों से राजेश जोशी को चोटें पहुंचाईं, जिसके परिणामस्वरूप उनकी मृत्यु हो गई तथा मनोज धवन) को भी चोटें आईं।
आरोपी व्यक्तियों द्वारा इंदौर के सुभाष नगर चौराहे पर शिव मंदिर है। इस मंदिर के परिसर में अवैध रूप से एक होटल का निर्माण किया गया था। आरोपी व्यक्तियों को यह भ्रम था कि मृतक राजेश जोशी अतिक्रमण हटाने के लिए जिम्मेदार था और यही कारण था कि राजेश जोशी की हत्या करने के लिए एक अवैध भीड़ बनाई गई थी। राजेश जोशी इंदौर नगर निगम के सदस्य थे।
कोर्ट में आया कि इस मामले में प्रमुख गवाह मनोज धवन, नीलेश जायसवाल और धर्मेंद्र तिवारी तीनों ही राजेश जोशी के करीबी थे, ऐसे में घटना की कहानी पर भरोसा नहीं कर सकते हैं। नीलेश ने तो यह भी कहा कि घटना के पश्चात मृतक का भाई संजय जोशी उसके पास आया था, परन्तु उसने उसे यह नहीं बताया कि आरोपियों ने उसके भाई की हत्या कर दी है।
यह अहम तर्क था कि उपरोक्त तीन प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों से यह कहा जा सकता है कि तथाकथित एफआईआर 9 घंटे की अत्यधिक देरी से दर्ज की गई थी और उक्त देरी का उपयोग अभियोजन पक्ष की कहानी को एक रूप देने और आरोपियों को झूठा फंसाने के लिए किया गया है।
हाईकोर्ट ने पाया कि सभी मामलों में एफआईआर दर्ज करने में देरी अभियोजन पक्ष के लिए घातक नहीं है। हालांकि, जब शिकायत की उत्पत्ति के संबंध में कुछ संदेह होता है, तो इस तरह के गंभीर मामले में मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत को शीघ्रता से प्राप्त करना सबसे सुरक्षित उपाय होगा। जब पुलिस कर्मी भी उपलब्ध थे और उन्होंने कुछ ही मिनटों में घटना के बारे में पता लगा लिया और घटनास्थल के साथ-साथ अस्पताल और जहां घायल को भर्ती कराया गया था, वहां पहुंच गए, लेकिन उन्होंने घायल और अन्य प्रत्यक्षदर्शियों के बयान दर्ज नहीं किए, जो घटनास्थल और अस्पताल में मौजूद थे और वे उपलब्ध थे, लेकिन इसके बावजूद एफआईआर दर्ज करने में अत्यधिक देरी हुई और तथ्य यह है कि एफआईआर दर्ज करने से पहले बहुत विचार-विमर्श और परामर्श किया गया था और एफआईआर दर्ज करने में देरी अभियोजन पक्ष के मामले की सत्यता पर असर डालेगी।