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जस्टिस अतुल श्रीधरन The Sootr
JABALPUR. देश की न्यायपालिका में एक अभूतपूर्व घटनाक्रम सामने आया है। सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने केंद्र सरकार के अनुरोध पर अपने ही फैसले को बदल दिया है। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस अतुल श्रीधरन का तबादला अब इलाहाबाद हाईकोर्ट कर दिया गया है।
इसका असर यह होगा कि इलाहाबाद HC में उनकी सीनियरिटी सातवीं होगी। दूसरी तरफ, छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में वह दूसरे नंबर पर होते। कॉलेजियम का यह कदम नई बहस को जन्म दे रहा है। यह कदम न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति संतुलन पर सवाल उठाता है।
कॉलेजियम ने क्यों बदला फैसला?
25 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने जस्टिस अतुल श्रीधरन को एमपी हाईकोर्ट से छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में ट्रांसफर करने की सिफारिश की थी। लेकिन केंद्र सरकार ने इस फैसले पर आपत्ति जताते हुए पुनर्विचार का आग्रह किया।
केंद्र की आपत्ति पर विचार करते हुए कॉलेजियम ने 14 अक्टूबर को अपने पिछले प्रस्ताव को “रिवोक” यानी वापस लेने का निर्णय किया और अब जस्टिस श्रीधरन को इलाहाबाद हाई कोर्ट भेजे जाने की नई सिफारिश की है।
कॉलेजियम के इस निर्णय को ‘रेयर मूव’ यानी अत्यंत दुर्लभ कदम माना जा रहा है, क्योंकि आमतौर पर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम अपनी सिफारिशों पर पुनर्विचार नहीं करता, खासकर जब मामला केंद्र सरकार की आपत्ति से जुड़ा हो।
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मंत्री विजय शाह के बयान और दमोह कांड पर की थी टिप्पणी
जस्टिस अतुल श्रीधरन ने वर्ष 1992 में दिल्ली में वकालत शुरू की थी और बाद में इंदौर में अपनी कानूनी प्रैक्टिस जारी रखी। उन्हें 2016 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त किया गया और 2018 में वे स्थायी न्यायाधीश बने।
जस्टिस श्रीधरन ने कई संवेदनशील मामलों में महत्वपूर्ण फैसले दिए, जिनमें जेल सुधार, पैरामेडिकल कॉलेजों की मान्यता और मंत्री विजय शाह द्वारा सेना अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी पर कथित टिप्पणी और दमोह में ओबीसी युवक से पर ढलने की घटना का स्वतः संज्ञान जैसे प्रकरण शामिल हैं।
यदि उन्हें छत्तीसगढ़ भेजा जाता तो वे वहां दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश बनते, लेकिन इलाहाबाद में उनका सीनियरिटी क्रम सातवें स्थान पर रहेगा। कानूनी जानकारों के अनुसार, यह बदलाव उनकी भविष्य की प्रोन्नति पर असर डाल सकता है।
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न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर उठे सवाल
जस्टिस अतुल श्रीधरन का ट्रांसफरः कॉलेजियम द्वारा केंद्र सरकार की आपत्ति को स्वीकार कर निर्णय पलटने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता और पारदर्शिता को लेकर बहस तेज हो गई है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह मामला “न्यायपालिका पर कार्यपालिका के प्रभाव” का संकेत देता है। आम तौर पर कॉलेजियम इस तरह का निर्णय सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करता कि किसी सिफारिश पर सरकार के दबाव में बदलाव किया गया हो। लेकिन, इस बार कॉलेजियम ने अपनी बैठक के मिनट्स में साफ लिखा है कि यह निर्णय केंद्र के पुनर्विचार अनुरोध को देखते हुए लिया गया। कई विशेषज्ञों ने इस पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि इससे भविष्य में जजों की नियुक्ति और तबादले की प्रक्रिया पर “राजनीतिक प्रभाव” की संभावना बढ़ सकती है।
क्या होगी नए दौर की शुरुआत?
अब यह देखना होगा कि क्या कॉलेजियम का यह निर्णय न्यायपालिका की कार्यप्रणाली में किसी नए दौर की शुरुआत करेगा या फिर इसे एक ‘अपवाद’ के रूप में देखा जाएगा। केंद्र सरकार की ओर से इस संबंध में अभी तक कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं हुआ है। हालांकि न्यायिक हलकों में यह कदम आने वाले समय में कॉलेजियम सिस्टम की पारदर्शिता और विश्वसनीयता पर गहरी छाप छोड़ सकता है।
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