भोपाल. मध्यप्रदेश में उज्जैन की दताना-मताना हवाई पट्टी ( Ujjain Airstrip ) को पैसा वसूले बिना ही निजी कंपनी को सौंपने के मामले में पांच IAS अफसरों पर लोकायुक्त ने शिकंजा कस दिया है। मामले की जांच के बाद लोकायुक्त ( Lokayuktas ) ने इन्हें प्रारंभिक तौर पर दोषी मानते हुए इनके खिलाफ केस चलाने के लिए अभियोजन स्वीकृति मांगी है। इनमें पर्यटन एवं संस्कृति के प्रमुख सचिव शिव शेखर शुक्ला सहित 4 रिटायर्ड आईएएस ( IAS officer ) शामिल हैं। इनमें कविंद्र कियावत, बीएम शर्मा, अजातशत्रु श्रीवास्तव और अरुण कोचर के नाम शामिल हैं। इनमें चार आईएएस उज्जैन में कलेक्टर रह चुके हैं। वहीं अरुण कोचर विमानन विभाग के संचालक थे। हाईकोर्ट के आदेश पर लोकायुक्त इस मामले की जांच कर रहा था। इससे पहले, हाईकोर्ट के आदेश पर 5 आईएएस और 3 एग्जीक्यूटिव इंजीनियरों पर मामला दर्ज हो चुका है। कुल 20 लोगों को आरोपी बनाया जा चुका है।
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कंपनी पर मेहरबान रहे उज्जैन कलेक्टर
उज्जैन में देवास रोड पर मध्य प्रदेश सरकार की दताना-मताना हवाई पट्टी है। लोकायुक्त संगठन के अधिकारियों का कहना है कि सरकार ने यह हवाई पट्टी 2006 में यश यश एयरवेज और सेंटॉर एविएशन एकेडमी इंदौर को लीज पर दी थी। राज्य सरकार और कंपनी के बीच 7 साल के लिए अनुबंध हुआ था। यश एयरवेज को नाइट पार्किंग के लिए 5 हजार 700 किलो वजनी विमानों के लिए 100 रुपए चुकाने थे। इससे ज्यादा वजनी विमानों के लिए यह चार्ज 200 रुपए था, लेकिन कंपनी ने यह रकम सरकार को नहीं दी। इतना ही नहीं समय-समय पर पीडब्ल्यूडी व्दारा हवाई पट्टी पर किया गया मेंटेनेंस का खर्च भी निजी कंपनी ने नहीं दिया। सरकार और कंपनी का समझौता 2013 में खत्म होने के बावजूद, कंपनी हवाई पट्टी का उपयोग करती रही। अनुबंध की शर्तों के मुताबिक, यश एयरवेज को सालाना 1.50 लाख रुपए जमा कराने थे, लेकिन, कंपनी ने 7 साल में कुल 1.50 लाख रुपए ही जमा किए। इस तरह सरकार को लाखों रुपए का चूना लगा। इस अवधि में उज्जैन कलेक्टर के पद पर पदस्थ रहे 4 आईएएस अफसर कंपनी पर पूरी तरह मेहरबान रहे।
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समझौते की शर्तों का उल्लंघन
समझौते की शर्तों में साफ लिखा गया था कि हवाई पट्टी की सुरक्षा की समीक्षा उज्जैन कलेक्टर करेंगे। यश यश एयरवेज ने सालाना फीस के 1.50 लाख रुपए जमा किए या नहीं, इसकी निगरानी भी कलेक्टरों को करनी थी। लेकिन, अफसरों ने यह नहीं किया। कंपनी से हवाई पट्टी के मेंटेनेंस की निगरानी पीडब्ल्यूडी के इंजीनियरों को करनी थी। तमाम अफसर कंपनी पर मेहरबान बने रहे। नतीजतन, सरकार को लाखों रुपए का चूना लगता रहा।