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पुल निर्माण में अनियमितताएं, CAG की रिपोर्ट में खुलासा। Photograph: (BHOPAL)
BHOPAL. सरकारी मशीनरी की अनदेखी और निर्माण कार्यों की अनदेखी के मामले मध्य प्रदेश के लिए नए नहीं है। विभागों में जमे अफसर पहले तो ज्यादा लागत के टेंडर जारी करते हैं और फिर इन्हें बदल दिया जाता है। इससे ठेकेदारों को फायदा होता है और अफसरों की जेब भी भरती हैं। बार- बार लगने वाले आरोप और शिकायतों को सरकार अपनी दलीलों से खारिज करती आ रही है। लेकिन नेता, अफसर और चहेते ठेकेदारों कैसे निर्माण कार्यों को खोखला कर रहा है इसका खुलासा कैग की रिपोर्ट ने किया है। CAG यानी भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट मध्य प्रदेश में पुलों के निर्माण के गाइडलाइन के उल्लंघन से पर्दा उठाने वाली है। कैग की इस रिपोर्ट में प्रदेश सरकार की उन दलीलों को भी खारिज किया है जो गुणवत्ता से समझौता करने वाली हैं।
कैग की रिपोर्ट में सामने आई गड़बड़ियाँ
प्रदेश में बीते एक दशक में कैसे बड़े पुलों के निर्माण में खेल हुआ है ये भी कैग की रिपोर्ट से समझा जा सकता है। रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि निर्माण में देरी, डिजायन-ड्राइंग में हेराफेरी से कैसे सरकारी खजाने में सेंधमारी की गई। साल 2015 से 2020 के बीच 1630 छोटे और 347 बड़े पुलों को स्वीकृति दी थी। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा साल 2015 से 2020 के बीच स्वीकृत और निर्माणाधीन 72 बड़े पुलों के निर्माण का परीक्षण किया गया। इनमें से केवल 9 पुलों का निर्माण ही समय पर हुआ जबकि 63 पुलों के निर्माण में कुछ माह से लेकर 5 साल की देरी हुई। यहीं नहीं इसके जरिए सरकारी खजाने को 100 करोड़ से ज्यादा का चूना लगाया गया। मध्य प्रदेश विधानसभा के शीतकालीन सत्र में भी विधायकों ने पुलों के निर्माण में हो रहे गड़बड़झाले की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित कराया था।
प्लानिंग में विफल मध्य प्रदेश
कैग ने लोक निर्माण विभाग (सेतु) को प्लानिंग में मामले में फिसड्डी माना गया है। पीडब्लूडी जिले से लेकर राज्य स्तर तक पुल निर्माण की प्लानिंग नहीं कर पाया। विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट, सर्वे, स्थल परीक्षण भी दुरुस्त नहीं रहे। इसके साथ ही डिजाइन-ड्राइंग में बार-बार परिवर्तन किए गए। निर्माण के लिए जरूरी गाइडलाइन और गुणवत्ता की भी अनदेखी की गई। पुलों की मजबूती का आधार नींव, पिलर्स और स्पॉन के नापजोख से भी छेड़छाड़ की गई। इसके कारण इन पुलों के निर्माण पर सरकारी खजाने से 101.83 करोड़ रुपए ज्यादा खर्च करने पड़े।
खनन के बदले कम वसूली गई रॉयल्टी
टेंडर के जरिए अफसरों ने ठेकेदारों को फायदा पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। डिजायन-ड्राइंग में बदलाव के जरिए करोड़ों का लाभ पहुंचाने के अलावा निर्माण कार्यों के लिए हुए खनन के बदले 64 लाख की कम रॉयल्टी वसूली गई। एक पुल के टेंडर में गैर एसओआर की स्वीकृति में देरी के चलते इसके निर्माण पर 2.54 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार उठाना पड़ा। जबकि दो पुलों का निर्माण प्रशासनिक स्वीकृति की दोबारा जांच और तकनीकी स्वीकृति न लेने की वजह से सरकार को 1.76 करोड़ रुपए का घाटा झेलना पड़ा है।
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डिजाइन ड्राइंग बदलने से 137% बढ़ी लागत
अक्टूबर 2020 से सितंबर 2021 के बीच प्रदेश के 5 सेतु संभागों में 12 पुलों के निर्माण में कई बदलाव किए गए। ठेकेदार को लाभ पहुंचाने अधिकारियों ने बेसिक डिजाइन ड्राइंग बदल दी। कैग की रिपोर्ट के अनुसार कार्यस्थल के साथ ही नींव की प्रकृति भी बदली गई। स्पान की संख्या एवं लंबाई में बदलाव के दौरान भार क्षमता का ध्यान नहीं रखा गया। ये बदलाव तब किए गए जबकि टेंडर पास हो चुका था। वर्क ऑर्डर के स्तर पर पहुंचने के बाद इस तरह के बदलाव अनुचित थे। अधिकारियों की अनदेखी से लागत 5 प्रतिशत से 137 प्रतिशत तक बढ़ी और विभाग को 101.83 करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा।
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मुख्य अभियंता के आदेश का हुआ उल्लंघन
बाढ़ वाले क्षेत्रों में बने पुलों के निर्माण के साथ ही एप्रोच रोड में भी अनियमिता बरती गई। प्रदेश में ऐसे क्षेत्रों में बने पुल और सड़क को जोड़ने वाले एप्रोच रोड सीमेंट कांक्रीट से बनाने का नियम है। इसको लेकर पीडब्लूडी(सेतु) के मुख्य अभियंता द्वारा सभी संभागों को आदेशित भी किया गया है। बावजूद इसके भोपाल और इंदौर संभाग में पुलों को जोड़ने के लिए एप्रोच रोड बिटुमिन यानी डामर से बनाए गए। इसकी वजह से बारिश आते ही पुल और सड़क के बीच संपर्क टूटने से आवागमन बाधित होने की स्थिति से लोगों को जूझना पड़ता है। ऐसे दो पुलों के एप्रोच रोड पर 29 लाख रुपए से ज्यादा खर्च किया गया था। वहीं एप्रोच रोड बनाने में देरी की वजह से 6 से ज्यादा बड़े पुल निर्माण तीन-तीन साल तक उपयोग में नहीं आ पाए।
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एस्टीमेट भूलकर किया मनमाना निर्माण
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में पुलों के निर्माण में जमकर धांधली हुई है। साल 2021 में सेतु संभागों के 16 पुलों में एस्टीमेट और मौके पर हुए निर्माण में काफी भिन्नता मिली है। जिनका प्रावधान किया गया वे पुल के साथ नहीं थीं जबकि ठेकेदारों ने लागत बढ़ाने मनमानी की। अधिकारियों ने यह सब देखते हुए भुगतान को स्वीकृति भी दे डाली। इन 16 पुलों के निर्माण पर 175.77 करोड़ रुपए का बजट खर्च हुआ है। 81.73 करोड़ की लागत वाले 5 पुलों के साथ फुटपाथ नहीं बनाए गए। जबकि इंडियन रोड सेफ्टी की गाइडलाइन के अनुसार पुल पर फुटपाथ बनाना जरूरी है।
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ये है उदाहरण
1. प्रदेश में पुलों के निर्माण का जिम्मा पीडब्लूडी की सेतु इकाई के पास है। इकाई प्रदेश को 5 सेतु संभागों में बांटकर काम करती है। इसके तहत इंदौर सेतु संभाग के अंतर्गत ओंकारेश्वर डेम के नजदीक नागर घाट पर हाई लेवल पुल बनाया जाता था। साल 2016 में सर्वे ओर जांच जांच के बाद पुल को 177 मीटर हाई फ्लड लेवर और 180.72 मीटर फॉर्मेशन लेवल पर बनाने की स्वीकृति बनी। जनरल अरेंजमेंट ड्राइंग यानी जीएडी भी दे दी गई। इस बीच लोगों ने विरोध शुरू कर दिया गया क्योंकि उनकी राय ही नहीं ली गई थी। विरोध को देखते हुए इसे नर्मदा नदी की डाउन स्ट्रीम में डेम से 2100 मीटर दूर कर डिजाइन-ड्राइंग बदल दी गई। नतीजा बारिश में नर्मदा का पानी अनुमानित हाई फ्लड लेवल 176.45 मीटर से ऊपर पहुंच गया और काम रोकना पड़ा। प्लानिंग की खामी के कारण साल 2021 में इसी अधूरे पुल पर ही दोबारा सबमर्सिबल पुल की डिजाइन तैयार कराई गई जिस पर 10.62 करोड़ रुपए ज्यादा खर्च हो गए।
2. राजधानी भोपाल के सुभाषनगर में रेलवे क्रॉसिंग पर आरओबी निर्माण के लिए साल 2016 में वर्क ऑर्डर जारी किया गया था। वाटर सप्लाई लाइन बदलने के काम के चलते यह निर्माण 11 महीने तक अटका रहा। आरओबी निर्माण में देरी के लिए भी सीधे तौर पर पीडब्लूडी के अधिकारी ही जिम्मेदार थे। क्योंकि वर्क ऑर्डर तो 2016 में जारी किया लेकिन वे पाइपलाइन हटाने के लिए नगर निगम को बताना ही भूल गए। विभाग से नगर निगम से एक साल बाद संपर्क किया गया जिसके बाद आगे बढ़ पाया। इस निर्माण में देरी के लिए पीडब्लूडी ने रेलवे को जिम्मेदार ठहराया है लेकिन कैग की रिपोर्ट में विलम्ब की जिम्मेदारी पीडब्लूडी की है।
3. सलकनपुर-धर्मकुंडी मार्ग पर नर्मदा नदी के आंवलीघाट पर पुल का निर्माण फरवरी 2013 में शुरू होना था। एजेंसी को काम देने से पहले नदी में मिट्टी, चट्टान और जमीन के परीक्षण के लिए सेंपल जुटाने एक भी बोर होल नहीं कराया। जबकि 17 पाइंट चिन्हित थे। पुल के पिलर्स के नजदीक गहरी खाई को भी अनदेखा किया गया। जिस कारण एक पिलर हटाना पड़ा और 75 मीटर लंबे स्पान का उपयोग जरूरी हो गया। क्योंकि पिलर्स के बीच दूरी ज्यादा हो गई थी और इस लंबे स्पान से ही पुल और सड़क को जोड़ा जा सकता था। स्वीकृत ड्राइंग में इस बदलाव के कारण लागत 1.52 करोड़ रुपए बढ़ गई। इस पूरे काम के दौरान तीन बार डिजाइन ड्राइंग बदली गई और काम पूरा होने में 57 महीने यानी 4 साल 9 महीने का लंबा समय लग गया।
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