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Photograph: (the sootr)
Indore. एमपी में आबकारी विभाग के चर्चित 71.58 करोड़ के घोटाले में ईडी की जांच रिपोर्ट का एक्सक्लूसिव 'द सूत्र' द्वारा खुलासा करने के बाद हलचल मच गई है। आबकारी विभाग में एक बार फिर से इस घोटाले की बाकी बची 49.42 करोड़ की रिकवरी की बात उठने लगी है।
वहीं सवाल ईडी के चालान पर भी उठ रहे है। ईडी ने ठेकेदारों को तो आरोपी बनाया लेकिन बयानों में अधिकारियों के नाम आने के बाद भी इन्हें आरोपी नहीं बनाया है। सवाल उठ रहे हैं कि आखिर इन आबकारी अधिकारियों को कौन बचा रहा है। जिसके चलते ईडी और विभाग दोनों ही स्तर पर यह मजे मे हैं।
ईडी में बयान ही सबूत होते हैं
प्रिवेंशन आफ मनी लाण्ड्रिंग एक्ट यानी पीएमएलए के तहत ईडी द्वारा लिए गए बयान ही अहम होते हैं। इन्हें कोर्ट भी स्वीकार करता है। ईडी में ठेकेदारों द्वारा दिए बयान में तत्कालीन सहायक आयुक्त संजीव दुबे, जिला आबकारी अधिकारी बीएल दांगी और सहायक जिला आबकारी अधिकारी सुखनंदन पाठक के नाम आए हैं।
यह भी सामने आया है कि चालान घोटाले से बची हुई कैश राशि आबकारी अधिकारियों को पहुंचाई जाती थी। इसके बाद भी इन्हें ईडी ने आरोपी नहीं बनाया है।
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सुप्रीम कोर्ट के विविध आदेश भी है
ईडी ने यह जांच मुख्य तौर पर रावजीबाजार थाने में हुई एफआईआर पर है। इसमें ठेकेदारों को ही आरोपी बनाया गया है। यह केस खुद आबकारी विभाग ने अगस्त 2017 में दर्ज कराया था ऐसे में अधिकारियों का नाम तो आना ही नहीं था। लेकिन इंदौर आबकारी घोटाला सामने आने के बाद 6 अधिकारियों पर कार्रवाई हुई थी। दुबे को भी इंदौर से हटा दिया था।
सुप्रीम कोर्ट के विविध केस (पवन डिबूर वर्सेस ईडी) में भी आया है कि भले ही आरोपी एफआईआर में नहीं हो लेकिन यदि इसमें लाभ पा रहा है तो वह भी आरोपी है। वहीं ईडी में आरोपियों के बयानों में साफ तौर पर आया कि यह घोटाले की राशि आबकारी अधिकारियों के पास जा रही थी।
दोनों मुख्य आरोपी एसी दुबे के मोहरे
इस जांच से यह सामने आया है कि यह घोटाला के मुख्य आरोपी अंश त्रिवेदी और राजू दशंवत तत्कालीन सहायक आयुक्त दुबे के ही मोहरे थे। दोनों को एक-एक कर कई शराब दुकानें आपरेट करने के लिए ठेकेदारों के जरिए मौखिक निर्देशों पर पर दी गई। दुकानें आबकारी नियमों के परे रखकर बिना लिखित करार के दी गई।
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घोटाले की राशि वसूली के नाम पर खानापूर्ति
वित्तीय साल 2015-16, 2016-17 व 2017-18 के दौरान यह घोटाला हुआ। इसमें पहले आकलन आया कि घोटाला 41.73 करोड़ का था। लेकिन बाद में यह आंकड़ा बढ़कर 71.58 करोड़ रुपए हुआ। आबकारी विभाग ने ठेकेदारों से 22.16 करोड़ तो भरवा लिए लेकिन घोटाले के 8 साल बाद भी 49.42 करोड़ राशि अभी भी बाकी है। इसकी रिकवरी आज तक नहीं हुई। वहीं घोटाले के बाद ठेकेदारों से आननफानन में 22 करोड़ भरवाए गए जो कैश भरे गए थे ना कि बैंक के जरिए, चेक से।
ऐसे मे यह भी जांच का मुद्दा है कि यह 22 करोड़ आखिर किसने कैसे भरवा दिए। क्या इतनी राशि नकद में मौजूद थी जो भरी गई। क्या यह अधिकारियों के कहने पर ही नहीं भरवाई गई ताकि मामले को दबाया जा सके। यह सभी भी जांच के बिंदु है।
वहीं बकाया 49 करोड़ की रिकवरी के लिए विभाग ने सुस्ती ओढ़ रखी है। कहने को ठेकेदारों से वसूली के लिए प्रक्रिया करने, संपत्ति कुर्क करने जैसी बात हो रही है। असल में इन ठेकेदारों के पास जो केवल मोहरे थे इतनी अचल संपत्ति ही नहीं मिली है कि इसे कुर्क किया जा सके।
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