BHOPAL : मध्य प्रदेश में निजीकरण की आहट अब स्वास्थ्य सेवाओं की चौखट पर दस्तक दे रही है। पहले भोपाल के हबीबगंज स्टेशन (अब रानी कमलापति स्टेशन) को निजी हाथों में सौंपा गया। फिर शिक्षा क्षेत्र पर भी निजीकरण की छाया पड़ी। स्कूलों को कार्पोरेट घरानों को देने की तैयारी हुई। अब सरकारी अस्पतालों, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और जिला अस्पतालों को भी कॉर्पोरेट घरानों की झोली में डालने की कवायद चल रही है। सरकार इसे पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप का नाम दे रही है, लेकिन हकीकत में ये कदम उस तिनके को भी छीनने जैसा है, जिससे गरीबों की जिंदगियां जुड़ी हुई हैं। विपक्ष और विशेषज्ञ इस निर्णय पर सरकार से सीधे सवाल कर रहे हैं। उनके अनुसार, सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं गरीबों की अंतिम जीवनरेखा हैं। सरकार के ताजा फैसले से उनका यह अधिकार भी छीना जा रहा है।
भले ही यह प्रोजेक्ट भविष्य में सफल साबित हो या नहीं, लेकिन 'द सूत्र' की गहन पड़ताल और विश्लेषण से शुरुआत में यह साफ है कि मौजूदा सरकारी तैयारियां अधूरी हैं। स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की दिशा में कदम उठाने का समर्थन तो सभी करते हैं, लेकिन बिना ठोस योजना के किए जा रहे इस निजीकरण का सीधा परिणाम उन गरीबों की तकलीफ में इजाफा ही करेगा, जिनकी उम्मीदें आज भी सरकारी अस्पतालों पर टिकी हैं।
पढ़िए 'द सूत्र' की यह खास रिपोर्ट...
क्या है सरकार की तैयारी?
क्या वाकई प्राइवेटाइजेशन आसान राह बनेगी या गरीबों की मुसीबतों में एक नया अध्याय जोड़ने की तैयारी है? फिलहाल तो इसका जवाब ना ही है। फिलहाल मध्य प्रदेश में 10 जिला अस्पतालों को निजी एजेंसियों को देने की रूपरेखा बनाई गई है। इन अस्पतालों से संबद्ध प्राइवेट मेडिकल कॉलेज खोले जाएंगे। इनमें कटनी, मुरैना, धार, खरगोन, पन्ना, सीधी, बालाघाट, टीकमगढ़, भिण्ड और बैतूल जिला शामिल है। प्रोजेक्ट के अगले चरण में 348 कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर यानी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और 51 सिविल अस्पतालों को भी आउटसोर्स से संचालित कराया जा सकता है।
पूरा मैनेजमेंट सौंपने की तैयारी!
दरअसल, स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण का जिन्न पहली बार 2020 में सामने आया था, तब प्रदेश ने खुद इसका विरोध किया था। अब नीति आयोग के 1 जनवरी 2020 के प्रस्ताव के आधार पर प्रदेश सरकार ने निजीकरण की दिशा में काम शुरू किया है। नीति आयोग प्रस्ताव में कहा गया था कि जिला अस्पतालों का उन्नयन, संचालन और रखरखाव निजी संस्थाओं को सौंपा जा सकता है, ताकि सेवाओं में सुधार लाया जा सके। इसके उलट प्रदेश के अफसरों ने नीति आयोग के सुझाव से एक कदम और आगे बढ़ते हुए जिला अस्पतालों का पूरा मैनेजमेंट निजी हाथों में देने का निर्णय लिया है।
डॉक्टरों के पद खाली पड़े
इन सबके बीच यदि सूबे के स्वास्थ्यगत ढांचे को देखा जाए तो यह राज्य काफी पिछड़ा हुआ है। केंद्र सरकार ने 2007 में इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड लागू किए थे, इसमें स्टाफ और इन्फ्रास्ट्रक्चर सहित तमाम पैरामीटर्स थे, लेकिन प्रदेश में इनकी पूर्ति अब तक नहीं हो सकी है। प्रदेश में अभी स्पेशलिस्ट के 2 हजार 374 पद खाली हैं। ऐसे ही चिकित्सा अधिकारियों के 1 हजार 54 और डेंटिस्ट के 314 पद रिक्त हैं। कई सीएचसी और जिला अस्पतालों में स्त्री रोग विशेषज्ञ व पैरामेडिकल स्टाफ नहीं है। प्रदेश में अभी सिर्फ 43 विशेषज्ञ, जनरल ड्यूटी मेडिकल ऑफिसर 670, लैब टेक्निशियन 483, 2087 नर्सिंग स्टाफ, रेडियोग्राफर 191 और फार्मासिस्ट 474 काम कर रहे हैं।
ये हैं जनता के सुलगते सवाल
बिना चर्चा के निर्णय क्यों?
सरकार ने सरकारी अस्पतालों का निजीकरण करने का फैसला ले लिया। इससे प्रभावित लोगों या स्वास्थ्य सेवाओं के हितधारकों से बात क्यों नहीं की गई? आखिर जनता से जुड़े इस अहम फैसले में उनकी राय तो लेनी थी सरकार?
मुफ्त स्वास्थ्य सेवाओं का क्या होगा?
निजी अस्पतालों का मकसद मुनाफा कमाना होता है। ऐसे में टीकाकरण, टीबी, कुष्ठ रोग और असंचारी रोग नियंत्रण जैसे मुफ्त सरकारी अभियान कैसे जारी रहेंगे? क्या इन अभियानों पर भी मुनाफे का दबाव आएगा?
बेड की कमी और गरीबों का हक?
सरकारी प्रस्ताव कहता है कि निजी संस्थाएं जब जिला अस्पताल चलाएंगी तो वहां केवल 55 फीसदी बेड मुफ्त रहेंगे और 45 फीसदी बेड पर शुल्क लगेगा। जब अभी ही सरकारी अस्पतालों में बेड की भारी कमी है तो निजीकरण के बाद गरीबों को मुफ्त इलाज का अधिकार कैसे मिलेगा?
विशेषज्ञों की कमी कैसे होगी पूरी?
सरकार के पास अस्पतालों के लिए डॉक्टर और विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में निजीकरण के बाद क्या जादू से अचानक ये डॉक्टर मिल जाएंगे या फिर बस आंकड़ों में सुधार किया जाएगा?
स्वास्थ्य सेवा से राज्य का पल्ला झाड़ना?
बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं देना राज्य सरकार का दायित्व है, लेकिन निजीकरण की दिशा में बढ़ते कदम से सरकार क्यों हाथ झाड़ रही है? आखिर जनता को स्वास्थ्य सेवाओं की गारंटी कौन देगा?
ये सर्विसेज पहले की निजी हाथों में
इसके उलट अभी की स्थिति देखें तो हालात चिंताजनक हैं। सरकार ने जिन हेल्थ सर्विसेज को प्राइवेट एजेंसियों को दिया है, वहां मरीज परेशान हो रहे हैं। अस्पतालों में होने वाले ब्लक टेस्ट, सीटी स्कैन, डायलिसिस जैसी सर्विसेज निजी कंपनियां संभाल रही हैं। प्रसव के लिए सीमांक संस्थाओं के रूप में चिह्नित सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में भी हायरिंग के माध्यम से निजी विशेषज्ञों की सेवाएं ली जा रही हैं। दूरस्थ अस्पतालों में संचालित टेलीमेडिसिन की सेवा भी निजी एजेंसियों के हाथों में है।
मध्य प्रदेश में डायलिसिस सेवा 51 जिला अस्पताल, 11 सिविल अस्पताल और 2 सीएचसी में है। यह पीपीपी मोड पर है। सरकारी अस्पताल द्वारा स्थान, उपकरण और दवाएं दी जाती हैं। निजी एजेंसी मैन पावर, जरूरी समग्री उपलब्ध कराती है। नेफ्रोलॉजिस्ट का परामर्श ऑनलाइन उपलब्ध कराती है।
सोनाग्राफी योजना दम तोड़ने के कगार पर
निजी कंपनियों ने कुछ बड़े अस्पतालों में जांच केंद्र बनाए हैं। दूरस्थ अस्पतालों में स्पोक हैं। वहां सैंपल लेकर हब में भेजा जाता है। जिला अस्पतालों में सीटी स्कैन निजी की भागीदारी से संचालित है। दूरस्थ क्षेत्रों के सीएचसी में फर्स्ट रेफरल यूनिट में भी निजी विशेषज्ञों को हायर किया जा रहा है। निजी एजेंसियां बीपीएल और आयुष्मान कार्ड धारकों को तो यह सेवाएं निःशुल्क दे रही हैं, लेकिन अन्य मरीजों से पैसे वसूले जा रहे हैं। वहीं, मुफ्त सोनोग्राफी की सुविधा भी दम तोड़ती नजर आ रही है।
आसानी से एक उदाहरण में समझ लीजिए गणित
अब ऐसे में सवाल यह है कि जब हेल्थ सर्विसेज का प्राइवेटाइजेशन होगा तो कैसे आम जनमानस को उनका अधिकार मिलेगा। मध्यप्रदेश मेडिकल टीचर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ.राकेश मालवीय सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा करते हैं। उनका कहना है कि निजीकरण की नीति बिल्कुल गलत है। उन्होंने उदाहरण देते हुए समझाया। बोले- मान लीजिए आज किसी जिले में निजीकरण हो गया। ऐसे में कोई मरीज जिला अस्पताल पहुंचा। उसकी गंभीर स्थिति को देखते हुए उसे मेडिकल कॉलेज में रेफर कर दिया गया, संभव है कि वहां उसे इलाज तो मिलेगा, लेकिन मोटी रकम चुकाकर, क्योंकि मेडिकल कॉलेज तो कॉर्पोरेट घरानों का होगा।
The Sootr View
'द सूत्र' हमेशा से विकास और व्यवस्था सुधार का पक्षधर है। हम चाहते हैं कि सरकार की योजनाएं जनता के हक में हों, पर स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण जैसे अफलातूनी और अचानक थोपे गए फैसले कई सवाल खड़े कर रहे हैं। जब बात जनता के स्वास्थ्य की है तो इस फैसले में निहित सभी पक्षों से विचार-विमर्श क्यों नहीं किया गया?
अचानक ऐसा क्या हो गया कि स्वास्थ्य सेवाओं को निजी हाथों में सौंपने की जरूरत आन पड़ी? क्या इसका ठोस सर्वे किया गया? क्या इससे जुड़े विशेषज्ञों, डॉक्टरों और जनता से उनके अनुभव और सुझाव लिए गए? क्या सरकार ने यह जानने की कोशिश की कि निजीकरण का यह कदम किस हद तक उन लोगों पर असर डालेगा, जो निजी अस्पतालों के भारी-भरकम खर्चे के चलते पहले ही सरकारी अस्पतालों की ओर रुख करते हैं? सरकार सब अच्छा कीजिए, पर सोझ समझकर कदम उठाएं।
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