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मध्य प्रदेश में ट्रांसफर सीजन के दौरान स्वास्थ्य विभाग ने अपनी गति इतनी तेज कर ली कि वे जमीन पर उतरना भूल गए। इस दौरान यह भी नजरअंदाज कर दिया गया कि ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टर और नर्सों की पहले से ही भारी कमी है। विभाग ने एक के बाद एक ट्रांसफर आदेश जारी किए, जिससे सिस्टम में खलल पड़ गई।
अब जब ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की कमर टूटती दिखी, तो विभाग अपनी ही गलती छुपाने के लिए हवा-हवाई आदेश निकालकर उन्हें निरस्त करने लगा है।
ट्रांसफर की बयार में चरमराई स्वास्थ्य व्यवस्था
स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने के नाम पर शुरू हुई ट्रांसफर प्रक्रिया अब खुद ही बीमार पड़ चुकी है। संविदा स्वास्थ्य कर्मियों को ग्रामीण क्षेत्र से शहर में तबादला करते समय यह तक नहीं सोचा गया कि गांवों में इलाज करने वाला कोई बचेगा भी या नहीं।
विभाग के सूत्र बताते हैं कि अधिकतर ट्रांसफर अपने लोगों को फायदा पहुंचाने की होड़ में जल्दबाजी में कर दिए गए। अब जब जमीनी हकीकत सामने आई, तो सब कुछ पलटा जा रहा है, वह भी बिना किसी ठोस तर्क के।
मजाक बने आदेश
ताजा मामला जबलपुर का है जहां NHM की संचालक सलोनी सिडाना ने एक ट्रांसफर लिस्ट पर आपत्ति जताई। निर्देश दिए कि सभी ग्रामीण से शहरी तबादले रद्द कर दिए जाएं। इस आदेश में NHM के 4 जुलाई 2025 और सामान्य प्रशासन विभाग के 29 अप्रैल 2025 के पत्रों का हवाला दिया गया।
चौंकाने वाली बात ये है कि इन पत्रों में कहीं भी ऐसा नहीं लिखा गया है कि ग्रामीण क्षेत्र के कर्मचारियों का ट्रांसफर शहरी क्षेत्र में नहीं हो सकता। बावजूद इसके, जबलपुर कलेक्टर ने इस आधार पर सारे ग्रामीण से शहरी क्षेत्र में हुए ट्रांसफर रद्द कर दिए।
स्वास्थ्य विभाग के ट्रांसफर आदेश पांच प्वाइंट में समझें...
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लेटर नंबर सही पर आदेश काल्पनिक
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन मध्य प्रदेश की संचालक सलोनी सिडाना ने 4 जुलाई को आदेश जारी करते हुए सामान्य प्रशासन के जी पत्र का हवाला दिया था। उसका पत्र क्रमांक 6-1/2024/एक/9 और दिनांक 29 अप्रैल 2025 बताई गई थी।
इसके हवाले से NHM ने जबलपुर कलेक्टर से 17 जून 2025 को ग्रामीण से शहरी किए गए सभी ट्रांसफरों को कैंसिल करने का अनुरोध किया। लेकिन हैरानी की बात यह थी कि जिस पत्र क्रमांक की NHM ने बात की और जिसके आधार पर कलेक्टर ने ट्रांसफर रद्द किया। उस लेटर को 29 अप्रैल नहीं बल्कि 30 मई 2025 को जारी किया गया था। इसमें केवल ट्रांसफर पर प्रतिबंध की छूट को 10 जून किए जाने की जानकारी थी। उसमें कहीं पर भी यह नहीं लिखा था कि ग्रामीण क्षेत्र के संविदा कर्मचारियों को शहरी क्षेत्र में स्थानांतरित नहीं किया जाएगा।
बिना पढ़े आदेश साइन और काम तमाम
इस पूरे मामले में एक और शर्मनाक पहलू उजागर हुआ है, वो है आदेशों की पढ़ाई न करने की आदत। चाहे सलोनी सिडाना हों या फिर कलेक्टर दीपक सक्सेना, सामने आई जानकारी के अनुसार इन अधिकारियों ने वो पत्र ही सही से नहीं पढ़े जिनका हवाला दिया गया। यह नजर आया कि बाबुओं द्वारा तैयार आदेश पर आंख मूंदकर हस्ताक्षर कर दिए गए। इससे अब न केवल कर्मचारियों में असमंजस है, बल्कि प्रशासन की साख पर भी सवाल उठने लगे हैं।
गांवों में ताले, शहरों में बहार
ट्रांसफर के इस खेल में गांवों के अस्पतालों में अब स्टाफ की भारी कमी हो गई है। कई उपस्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में ताले लटकने की नौबत आ चुकी है। मरीज बेहाल हैं, और ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं बुरी तरह चरमरा गई हैं। बावजूद इसके, ट्रांसफर रद्द करने के लिए जो तर्क दिए जा रहे हैं, वो खुद ही नियमों से मेल नहीं खाते। यानी जो संकट बनाया गया है, उसे छिपाने के लिए अब 'फर्जी नियमों' की आड़ ली जा रही है।
शासन के आदेश पर ट्रांसफर आदेश किया कैंसिल
इस मामले में जबलपुर कलेक्टर दीपक सक्सेना से जब बात की गई तो उन्होंने कैमरे के सामने तो कुछ भी कहने से इनकार कर दिया। लेकिन यह बताया कि उन्हें एनएचएम से निर्देशित किया गया था। साथ ही, शासन के निर्देशों के आधार पर ही यह ट्रांसफर कैंसिल किए गए हैं।
यह भी जानकारी दी गई की जबलपुर सीएमएचओ के जरिए जो अलग-अलग ट्रांसफर ऑर्डर्स जारी किए गए थे, उसके लिए उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। हालांकि जिस पत्र के हवाले से यह ट्रांसफर कैंसिल किए गए हैं उसका कोई जवाब जबलपुर कलेक्टर के पास भी नहीं था। उन्होंने कहा कि इन ट्रांसफरों के कैंसिल होने के बाद जिन्हें समस्या होगी वह कोर्ट जाने के लिए स्वतंत्र हैं।
अब हाईकोर्ट पहुंचे तो?
जिन कर्मचारियों के ट्रांसफर रोके गए हैं उनका यह कहना है कि एक बार ग्रामीण क्षेत्र में पदस्थ होने वाले कर्मचारियों को क्या कभी शहरी क्षेत्र में काम करने का मौका ही नहीं मिलेगा। इन आदेशों के पीछे चहेतों को उपकृत करने का भी आरोप लग रहा है।
सूत्र बताते हैं कि अगर यह मामला हाईकोर्ट की चौखट तक पहुंच गया, तो विभागीय अधिकारियों को खासी फजीहत झेलनी पड़ सकती है। ट्रांसफर आदेशों को निरस्त करने का आधार जांच में फर्जी निकलना तय है। इसका सीधा असर प्रशासन की कार्यप्रणाली और अधिकारियों की जवाबदेही पर पड़ेगा। क्योंकि जबलपुर के अलावा नरसिंहपुर, सागर सहित अन्य जिलों में भी ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्र में ट्रांसफर हुए हैं जिन पर किसी ने उंगली नहीं उठाई है।
ट्रांसफर नहीं व्यवस्था का संक्रमण
दरअसल ये मामला सिर्फ ट्रांसफर का नहीं, पूरे प्रशासनिक ढांचे के उस संक्रमण का है। यहां जिम्मेदारी से ज्यादा जल्दी में फैसले लिए जा रहे हैं। व्यवस्था को सहेजने के बजाय उसे अपनी पसंद-नापसंद का मोहरा बनाया जा रहा है। जब हालात बिगड़ते हैं, तो उन्हें हवा-हवाई आदेशों और बिना जांच के हस्ताक्षरों से छिपाने की कोशिश की जाती है।
स्वास्थ्य व्यवस्था को ही चाहिए इलाज
मध्य प्रदेश जैसे राज्य में जहां पहले से ही ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था चुनौती झेल रही है। ऐसे में यह ट्रांसफर सर्कस हालात और बदतर कर रहा है। जिम्मेदार अधिकारियों को चाहिए कि जल्दबाजी में लिए गए आदेशों की समीक्षा करें। साथ ही, संवेदनशीलता के साथ ऐसे कदम उठाए जो गांव और गरीब के हित में हों, न कि महज कागज के लिए सीमित रहें।
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