एमपी: पांच साल में 232 से ज्यादा शिकायतें, केवल 24 में ही हुई कार्रवाई

मध्य प्रदेश के सरकारी महकमों में दागी अफसरों का बोलबाला है। ये अफसर सिस्टम पर इतने हावी हैं कि कार्रवाई तो दूर शिकायतों पर शुरू हुई जांच भी दबा दी जाती है।

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Sanjay Sharma
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BHOPAL. प्रदेश के सरकारी महकमों में दागी अफसरों का बोलबाला है। ये अफसर सिस्टम पर इतने हावी हैं कि कार्रवाई तो दूर शिकायतों पर शुरू हुई जांच भी दबा दी जाती है। विभागों में जमे 232 से ज्यादा अफसरों के जाति प्रमाण पत्र फर्जी होने की शिकायतों पर उच्च स्तरीय समिति जांच कर रही है। जिस जांच के लिए जीएडी द्वारा दो महीने का समय तय है उसमें भी चार से पांच साल बीत चुके हैं। जीएडी, गृह, स्वास्थ्य, पीएचई, वन और महिला एवं बाल विकास सहित ज्यादातर विभागों में फर्जी जाति प्रमाण पत्र की शिकायतें सामने आ चुकी हैं। साल 2020 से अब तक 24 जाति प्रमाण पत्र फर्जी पाए जाने पर अधिकारी-कर्मचारियों को सेवा से निकाला गया है। जबकि अभी भी 57 मामलों में जांच छानबीन समिति कर रही है। सबसे ज्यादा शिकायतें आदिवासी समुदाय की उपजातियों से मिलते-जुलते उपनामों के सहारे नौकरी हासिल करने के हैं। 

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प्रदेश में एक ओर लाखों युवा नौकरी के लिए भटक रहे हैं। वहीं विभागों में फर्जी जाति प्रमाण पत्रों के सहारे दूसरे के हक पर कब्जा करने के मामले भी बढ़ रहे हैं। फर्जी जाति प्रमाण पत्रों के आधार पर नौकरी करने वाले अधिकारियों के खिलाफ बीते पांच साल में सैंकड़ा भर शिकायतें सामने आ चुकी हैं। इनमें से सबसे ज्यादा शिकायतें आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित पदों की हैं और उसके बाद अनुसूचित जाति वर्ग का नंबर है। आरोपों के घेरे में आने वाले ये अफसर व्यवस्था पर इतने हावी हैं कि उनके खिलाफ जांच आगे ही नहीं बढ़ पा रही है। फर्जी जाति प्रमाण पत्र की शिकायतें प्रदेश स्तरीय छानबीन समिति तक तो पहुंचती हैं लेकिन यहां फाइल दबकर रह जाती है। शिकायतों की जांच सालों तक अटकी रहती है और अफसरों को पदोन्नति का भरपूर लाभ मिलता रहता है। 

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दो माह में जांच के नियम पर भारी पड़‍े दागी 

फर्जी जाति प्रमाण पत्रों के जरिए नौकरी हासिल करने की शिकायतों की जांच के लिए प्रदेश स्तर पर छानबीन समिति बनी हुई है। इस समिति को शिकायत पर जांच शुरू करते हुए अधिकतम दो माह में अपनी रिपोर्ट पेश करने का नियम है। जीएडी का यह नियम 28 साल से अस्तित्व में है लेकिन इतने सालों में कभी इस नियम के आधार पर जांच और कार्रवाई नहीं हुई है। फर्जी जाति प्रमाण पत्र के प्रकरण के संज्ञान में आने के बाद उच्च स्तरीय छानबीन समिति को जांच की दैनिक प्रगति की रिपोर्ट भी तैयार करनी होती है। हांलाकि अब तक शायद ही किसी मामले में जीएडी के इन नियमों का पालन हुआ हो। इसी वजह से फर्जी जाति प्रमाण पत्र की शिकायतें लगातार बढ़ रही हैं लेकिन जांच धीमी होती जा रही है। पिछले पांच साल में ऐसे 57 मामले छानबीन समिति के पास लंबित हैं।  

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आदिवासियों के हक पर सबसे ज्यादा डांका 

सरकारी नौकरी हथियाने के लिए जनजातीय समुदाय के हक पर सबसे ज्यादा डांका डाला जा रहा है। ज्यादातर विभागों में इस समुदाय से योग्य अभ्यर्थी नहीं मिलने से उनके पद बैकलॉक में खाली रह जाते हैं। इसका फायदा उठाने के लिए आदिवासी समुदाय की उपजातियों से मिलते-जुलते सरनेम का उपयोग किया जाता है। इन्हीं सरनेम को जोड़कर  जाति प्रमाण पत्र तैयार कराए जाते हैं और फिर नौकरी पर कब्जा जमा लिया जाता है। प्रदेश में बीते सालों में जो शिकायतें सामने आई हैं उनमें सबसे ज्यादा कोरकू, कोल, सहरिया, गौंड, मांझी, पनिका, हलबा, भुजिया, भार, मन्नेवार, कीर, चत्री, मीणा, धनगड़ जाति या उपजाति के उपयोग से संबंधित हैं। 

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विधानसभा में स्वीकारोक्ति फिर भी ठंडी जांच 

प्रदेश में फर्जी जाति प्रमाण पत्रों के मामले लगातार बढ़ने के बाद भी सरकार का रुख सख्त नहीं है।  हाल ही में मध्यप्रदेश विधानसभा में कांग्रेस विधायक के सवाल के जवाब में सरकार की ओर से स्वीकारोक्ति सामने आई थी। जनजातीय कार्य मंत्री कुंवर विजय शाह ने सदन में 232 अधिकारी-कर्मचारियों के जाति प्रमाण पत्रों के फर्जी होने की शिकायत पर जांच कराने की जानकारी दी थी। मंत्री ने सदन को बताया था कि साल 2020 के बाद अब तक फर्जी जाति प्रमाण पत्र पाए जाने पर 24 अधिकारी-कर्मचारी सेवा से बाहर किए गए हैं। वहीं शिकायतों के चलते 232 अधिकारी-कर्मचारियों के दस्तावेजों की जांच कराई जा रही है। फर्जी जाति प्रमाण पत्र का उपयोग करने की शिकायत की जांच करने वाली उच्च स्तरीय छानबीन समिति जनजातीय कार्य विभाग के प्रमुख सचिव के निर्देशन में काम कर रही है।  

पीएचई अफसरों के प्रमाण पत्रों पर भी संदेह 

पीएचई यानी लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग में शीर्षस्थ अधिकारियों के जाति प्रमाण पत्र भी संदेह के दायरे में हैं। ईएनसी से लेकर अधीक्षण यंत्री जैसे वरिष्ठ पदों पर काबिज रहे अफसरों के विरुद्ध शिकायतें सालों से लंबित हैं। इनकी शिकायतें कई बार विभाग से लेकर सरकार तक पहुंच चुकी हैं लेकिन केवल दायित्व परिवर्तन के कोई कार्रवाई नहीं हुई है। इन अधिकारियों का प्रभाव इतना है कि विभाग ने उच्च स्तरीय छानबीन समिति को इनकी जानकारी देने से ही इंकार कर दिया है। पीएचई में ईएनसी रहे संजय कुमार अंधवान और अधीक्षण यंत्री संजय कुमार के जाति प्रमाण पत्र फर्जी होने की शिकायत पर पूर्व आईएएस रघुवीर श्रीवास्तव द्वारा जांच की अनुशंसा की गई थी। अंधवान ईएनसी रह चुके हैं और उन्हें साल 2024 में जल विकास निगम में महाप्रबंधक बनाया गया था। वहीं अधीक्षण यंत्री का भी दायित्व बदला गया था, लेकिन पीएचई ने दोनों को विभाग का अधिकारी न मानते हुए जानकारी में रोड़ा अटका दिया।

इन अफसरों के जाति प्रमाण पत्रों की जांच लंबित 

-आरके केवट, डीएसपी पुलिस  (गृह विभाग)
-रविशंकर खैरवार, अनुभाग अधिकारी, सीएस कार्यालय
-अनिल कुमार नंदनवार, इंस्पेक्टर, सेंट्रल जीएसटी  
-सुनील कुमार सहरिया, चिकित्सा अधिकारी, स्वास्थ्य विभाग
-द्वारिका दास संत, सहायक वन संरक्षक, वन विभाग
-सुनील मंडावी, अवर सचिव, सामान्य प्रशासन विभाग 
-गीता पडवार, सशक्तिकरण अधिकारी, महिला एवं बाल विकास विभाग
-शैलेष कोहद, संयुक्त संचालक, नगर तथा ग्राम निवेश
-डॉ. माया पारस, सहायक प्राध्यापक, शिक्षा विभाग
-मनोज बाथम, उप संचालक, सामाजिक न्याय एवं निःशक्तजन कल्याण विभाग

नियमों की उलझन में अटक रहीं जांच 

छानबीन समिति में पहुंचने वाली शिकायतों की प्राथमिक स्तर जांच के लिए प्रकरण संबंधित क्षेत्र के पुलिस थाने भेजे जाते हैं। वहां से जांच रिपोर्ट मिलने में काफी समय लगता है। इधर छानबीन समिति द्वारा विभागीय स्तर पर भी रिपोर्ट तलब करती है जहां संबंधित अधिकारी-कर्मचारी अपने प्रभाव का उपयोग कर जांच में रोड़ा अटकाते हैं। जबकि इसके लिए विभाग को 30 दिन का समय निर्धारित है। छानबीन समिति को इन चरणों के बाद आम सूचना का प्रकाशन कराना होता है। पूरी प्रक्रिया के लिए दो महीने का समय तय है लेकिन एक भी ऐसा प्रकरण नहीं है जिसमें इस अवधि में जांच पूरी हुई हो।

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