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Photograph: (thesootr)
BHOPAL. मध्य प्रदेश कार्य गुणवत्ता परिषद के नाम पर सरकार करोड़ों रुपए खर्च कर रही है, लेकिन नतीजा शून्य है। परिषद में न तकनीकी स्टाफ है और न ही सामान्य प्रशासनिक कर्मचारी। जो कुछ अधिकारी पदस्थ हैं, वे भी ऑफिस टाइम में अपने घरों में आराम फरमा रहे हैं।
अफसर के चैंबर में ताला, मैदान में बच्चे
जब 'द सूत्र' ने शुक्रवार शाम 5 बजकर 10 मिनट पर परिषद के भोपाल कार्यालय का दौरा किया, तो जिम्मेदार अधिकारी नदारद मिले। चेंबर में ताला लटका था और ऑफिस में कोई नहीं था। इतना ही नहीं, कार्यालय परिसर के ग्राउंड में उसी समय बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे।
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तीन साल में सिर्फ 13 जांचें, वो भी भोपाल तक सीमित
परिषद के गठन के बाद पहले छह महीनों में 13 निर्माण कार्यों की जांच की गई थी। लेकिन उसके बाद पूरे ढाई साल में एक भी जांच नहीं हुई। इन जांचों में ज्यादातर भोपाल और आसपास के क्षेत्रों के प्रोजेक्ट शामिल थे। जैसे
सीएम राइज स्कूल (औबेदुल्लागंज, नरसिंहगढ़, बैरसिया, आष्टा), हॉकी स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स (बरखेड़ा नाथू), आदिवासी छात्रावास, प्रधानमंत्री आवास योजना (बाग मुगलिया) और अन्य। तीन साल में मात्र 13 जांचें होना इस परिषद की निष्क्रियता को स्पष्ट करता है।
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तकनीकी स्टाफ की भारी कमी
परिषद में रेग्युलर स्टाफ का चयन आज तक नहीं हो सका है। कामकाज कुछ तकनीकी परीक्षक और सतर्कता विभाग के कर्मचारियों के भरोसे चल रहा है। कुल 21 कर्मचारियों में से एक इंजीनियर का ट्रांसफर हो चुका है। मुख्य महाप्रबंधक सेवक राम उईके 2017 से उसी पद पर हैं, जबकि देवाशीष पाल 2021 से महाप्रबंधक (प्रशासन व तकनीकी) हैं।
सब-इंजीनियर राजेंद्र शर्मा 8 साल से और अजय टेकाम पूरे 20 साल से एक ही जगह पदस्थ हैं। जो सरकारी नियमों की सीधी अवहेलना है।
बीमार बाबू और रिटायर होने वाला सिक्योरिटी गार्ड
कार्यालय में एक बाबू कैंसर पीड़ित हैं, जो करीब एक साल से ऑफिस नहीं आ पा रहे। दो प्यून पिछले छह महीने से सामान्य प्रशासन विभाग में पदस्थ हैं। सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाल रहे रायकवार भी दिसंबर में सेवानिवृत्त होने वाले हैं। कुल मिलाकर परिषद का हाल स्टाफ की कमी और लचर व्यवस्था से बेहाल है।
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तीन साल में करोड़ों खर्च, परिणाम शून्य
वित्तीय रिकॉर्ड बताते हैं कि परिषद को पिछले तीन वर्षों में करोड़ों की अनुदान राशि मिली
- 2023-24: ₹3.75 करोड़ मिले, खर्च ₹3.13 करोड़।
- 2024-25: ₹2.50 करोड़ मिले, खर्च ₹2.45 करोड़।
- 2025-26: ₹1.80 करोड़ मिले, खर्च केवल ₹89.60 लाख।
शेष राशि हर बार शासन की संचित निधि में वापस चली गई। यानी करोड़ों खर्च करने के बावजूद परिषद का आउटपुट लगभग निल रहा।
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सरकारी धन का दुरुपयोग या सिस्टम की लापरवाही?
अब बड़ा सवाल यह है जब जांचें नहीं हो रहीं, स्टाफ नहीं है, और दफ्तर में ताले लटके हैं, तो करोड़ों की राशि आखिर जा कहां रही है? कही सरकारी धन बर्बादी तो नहीं हो रही है। परिषद का गठन निर्माण कार्यों की गुणवत्ता जांचने के लिए हुआ था, पर अब यह विभाग खुद ही गुणवत्ता संकट में फंसा दिख रहा है।
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