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सुधीर नायक
साधो, पहले मैं सोचता था कि अमेरिका का राष्ट्रपति बनना बहुत कठिन काम होता होगा। मैं इस काम को ऐवरेस्ट पर चढ़ने से भी ज्यादा कठिन मानता था। अब तो खैर ऐवरेस्ट भी मेरे मन से उतर गया है। पिछले साल जब से ऐवरेस्ट पर जाम लगने की खबर आई है तब से ऐवरेस्ट अपनी मनुआभान की टेकरी जैसा लगने लगा है मुझे।
ज्यादा है तो दस बीस हाथ और बड़ा होगा। मुझे बचपन में लोगों ने मुझे डरा दिया था। किसी ने कहा था कि दुनिया में बस दो ही शक्तिमान हैं- आसमान में भगवान और धरती पर अमेरिकी राष्ट्रपति। मैं इतना डर गया कि उसके बाद से मैं अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के चक्कर में कभी नहीं रहा।
साधो,एक वज़ह और थी। अपन शार्टकट वाले लोग हैं। हमेशा पतली गली से निकलते रहे। और अमेरिका का राष्ट्रपति बनने का कोई शार्टकट मुझे नज़र नहीं आता था। साधो, हम गांव के लोग हैं। हमारे गांव में कोई रोड नहीं था। गर्मी की छुट्टियों में जब मामा के घर जाते थे तब कहीं रोड देखने मिलते थे।
हमारे गांव में गलियां थीं। गलियां भी परमानेंट नहीं थीं। देश-काल-परिस्थिति के हिसाब से गलियां बनती मिटती थीं। मौका बख़त देखकर हम लोग नयी गली बना भगते थे। तभी से गलियों की आदत है। साधो,हमें रोड नहीं पुसाते। रोडों पर डर लगता है। रोड खाली भी हो फिर भी मन आजूबाजू किसी पतली गली को तलाशता है।
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हर जगह घुसने की कोई न कई गली जरूर होती है
साधो, रोड धोखा दे जाते हैं पर गलियां वफादार होती हैं। रोड भले न पहुंचा पायें पर गलियां पहुंचा देती हैं। साधो, मेरा तजुर्बा है कि हर जगह घुसने की कोई न गली जरूर होती है। तो लंबे समय तक मेरा ख्याल रहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति बनने की भी कोई न कोई पतली गली जरूर होगी। बहुत खोजने पर भी पर जब नहीं मिली तो फिर मैंने उस ख्याल को छोड़ दिया।
साधो, तुम तो जानते हो अपन कोई फोकटिया तो है नहीं। अपने पास बहुत काम हैं। मैं दूसरे कामों में लग चुका था। साधो, मुझे कोई अफसोस नहीं था मैं अमेरिका का राष्ट्रपति बने वगैर ही मर जाता। पर अभी बुढ़ापे में पुरानी चुल फिर उठ आयी है। ये जो डोनाल्ड ट्रम्प हैं न, जबसे ये अमेरिका के राष्ट्रपति बने हैं,अभी तक सोयी पड़ी उम्मीद फिर से लहलहाने लगी है। मुझे बार बार लगता है कि जब ये बन सकते हैं तो मैं कौन सा बुरा हूं।
साधो, तुम नापकर देख लो। ट्रम्प से बीस ही बैठूंगा। पर साधो, एक चक्कर है। कुछ भक्त बताते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति बनने पर अमेरिका में रहना पड़ता है। अब बुढ़ापे में अमेरिका जाकर क्या करेंगे? साधो, मैं इसी उलझन में था कि कल मामला सुलट गया। एक बडे अधिकारी कल सत्संग के लिए आये थे। वे बातों बातों में बोल पड़े कि मंत्री लोग तो कुछ भी लिख देते हैं। उनसे अमेरिका का राष्ट्रपति बनने का पत्र लिखवा लो। वे लिख देंगे।
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मंत्री ज्ञानी होते हैं...
साधो, साहब की बात में मुझे पतली गली दिख गयी। साधो, अपने पास मंत्री भी आते जाते हैं। तुम्हारा क्या ख्याल है, साधो? कहो तो किसी मंत्री से अमेरिकी राष्ट्रपति बनने की चिट्ठी लिखवा लूं। मंत्री ज्ञानी होते हैं। वे जानते हैं कि होगा वही जो परमात्मा ने लिखा है। उनके लिखने से क्या होना जाना है? कागज़ ही काला करना है। इसलिए बेचारे वे कुछ भी लिख मारते हैं।
मैं सोच रहा हूं, साधो कि अधूरी इच्छा लेकर मरूंगा तो अगले जन्म में फिर वही रट्टा रहेगा। इसी जन्म में निपटा लूं तो फुर्सत हो जाऊंगा। कुटिया में बैठे बैठे फोकट में अमेरिका का राष्ट्रपति बन भगूंगा। बल्कि उनसे लिखवाना भी नहीं है। मैं खुद लिखकर ले जाऊंगा उनसे चिड़िया ही तो बिठवाना है। तुम क्या कह रहे हो, साधो कि लोग हंसेंगे। अरे जो सच्ची के है क्या उन पर लोग हंस नहीं रहे हैं? वे भी हंसने के सिवा और कौन से काम आ रहे हैं?
सुनो भाई साधो... इस व्यंग्य के लेखक मध्यप्रदेश के कर्मचारी नेता सुधीर नायक हैं |
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