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केंद्र सरकार ने जनगणना के लिए अधिसूचना जारी कर दी है। इसी के साथ आजादी के बाद पहली बार जातीय जनगणना का रास्ता साफ हो गया है। अब पूरे देश में मार्च 2027 की रेफरेंस डेट से जातीय जनगणना कराई जाएगी। हालांकि, इससे पांच महीने पहले अक्तूबर 2026 में पहाड़ी राज्यों में जातीय जनगणना का कार्यक्रम पूरा कर लिया जाएगा। यानी इन राज्यों में अक्टूबर 2026 में आबादी से जुड़े जो भी आंकड़े होंगे, वही रिकॉर्ड में दर्ज किए जाएंगे।
जनगणना की अधिसूचना जारी होने के बाद आगे क्या-क्या होगा? इस बार आबादी की गिनती की प्रक्रिया कितनी अलग होगी? आम जनगणना से जातीय जनगणना कितनी अलग होती है? भारत में इस तरह की जनगणना का क्या इतिहास रहा है? इसके अलावा देश में कब-कब जातिगत जनगणना की मांग हुई है? आइए जानते हैं...
भारत में जातिगत जनगणना का मुद्दा लंबे समय से राजनीतिक और सामाजिक चर्चा का विषय रहा है। केंद्र सरकार ने हाल ही में 2027 में जातिगत जनगणना कराने के लिए अधिसूचना जारी की है, जिससे यह पहली बार होगा कि सामान्य जनगणना में जातियों का डेटा भी शामिल किया जाएगा। अब से पहले, देश में सिर्फ अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) की जाति आधारित जानकारी प्रकाशित की जाती रही है, जबकि अन्य जातियों का आंकड़ा 1931 के बाद से जारी नहीं किया गया। इस लेख में हम जातिगत जनगणना के महत्व, इसके इतिहास और इससे जुड़ी विभिन्न समस्याओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
जातिगत जनगणना की आवश्यकता
जातिगत जनगणना की आवश्यकता लंबे समय से महसूस की जा रही थी, खासकर पिछड़े वर्गों (OBC) के लिए। 1990 में, वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया था और ओबीसी को आरक्षण का अधिकार दिया। इस समय 1931 के आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया था, जो अब 90 साल पुराने हो चुके हैं और वर्तमान सामाजिक स्थिति को ठीक से नहीं दर्शाते। कई विशेषज्ञों का मानना है कि वर्तमान में ओबीसी की संख्या का सही अनुमान लगाना मुश्किल है। यदि जातिगत जनगणना होती है, तो यह आंकड़े सही आधार प्रदान करेंगे और ओबीसी के आरक्षण के लिए उचित निर्णय लिया जा सकेगा।
जातिगत जनगणना 2027
केंद्र सरकार ने 2027 में जातिगत जनगणना कराने का निर्णय लिया है। यह निर्णय उन सभी वर्गों के लिए महत्वपूर्ण है, जो आरक्षण और सामाजिक न्याय से संबंधित मामलों में शामिल हैं। 2027 की जनगणना में, अनुसूचित जातियों (SC), अनुसूचित जनजातियों (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की जानकारी ली जाएगी। इससे पहले, 2026 में पहाड़ी राज्यों में जातिगत जनगणना पूरी कर ली जाएगी, और इन राज्यों के आंकड़े मार्च 2027 तक अपडेट कर दिए जाएंगे।
जनगणना का इतिहास
भारत में जनगणना की शुरुआत 1881 में हुई थी। यह जनगणना ब्रिटिश शासन के तहत हुई थी और इसमें जातिगत आंकड़े भी शामिल थे। इसके बाद से हर दस साल में जनगणना होती रही है, और 1931 तक हर बार जाति आधारित आंकड़े जारी किए गए। 1941 में जातिगत आंकड़े जुटाए गए थे, लेकिन इन्हें कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब से हर जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के आंकड़े जारी किए गए।
जातिगत जनगणना पर ऐसे बदलता रहा कांग्रेस और बीजेपी का रुख
जातिगत जनगणना को लेकर भारत की दो प्रमुख राजनीतिक पार्टियों- कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का रुख समय और राजनीतिक परिस्थितियों के साथ बदलता रहा है। दोनों पार्टियों ने सत्ता और विपक्ष में रहते हुए इस मुद्दे पर अलग-अलग रुख अपनाए, जो सामाजिक, राजनीतिक और चुनावी गणित से प्रभावित रहे। कैसे, आइए जानते हैं…
सबसे पहले बात कांग्रेस की…
2010-2011: दबाव में जातिगत जनगणना को मंजूरी, मगर डेटा जारी नहीं किया
रुख: यूपीए सरकार (कांग्रेस के नेतृत्व में) ने 2010 में संसद में कई सांसदों की मांग के बाद सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना (SECC) कराने का फैसला किया। 2011 में यह जनगणना हुई, लेकिन जाति से संबंधित आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किए गए।
कारण: उस समय विपक्षी दलों, खासकर क्षेत्रीय पार्टियों (जैसे जेडीयू, आरजेडी) और बीजेपी के दबाव के कारण कांग्रेस को यह कदम उठाना पड़ा। हालांकि, आंकड़े जारी न करने का कारण तकनीकी खामियां और राजनीतिक जोखिम (जातिगत तनाव बढ़ने का डर) बताया गया।
2018: विपक्ष में रहते हुए मांग तेज
रुख: सत्ता से बाहर होने के बाद कांग्रेस ने 2018 में 2011 के SECC आंकड़े जारी करने की मांग उठाई, लेकिन इसे सफलता नहीं मिली। यह रुख बीजेपी को घेरने और ओबीसी-दलित वोट बैंक को लामबंद करने की रणनीति का हिस्सा था।
कारण: बीजेपी की हिंदुत्व-आधारित राजनीति के जवाब में कांग्रेस ने सामाजिक न्याय को मुद्दा बनाया। राहुल गांधी ने इसे बार-बार उठाकर ओबीसी और दलित समुदायों में पैठ बनाने की कोशिश की।
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2023-2024: जातिगत जनगणना को प्रमुख मुद्दा बनाया
रुख: कांग्रेस ने 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले जातिगत जनगणना को अपने घोषणा पत्र का हिस्सा बनाया। राहुल गांधी ने इसे सामाजिक न्याय का हथियार बनाया और 50% आरक्षण की सीमा हटाने की मांग की। कर्नाटक और तेलंगाना जैसे कांग्रेस-शासित राज्यों में जातिगत सर्वे शुरू किए गए।
कारण: बिहार में 2023 के जातिगत सर्वे के बाद विपक्षी दलों (इंडिया गठबंधन) ने इसे बीजेपी के खिलाफ बड़ा हथियार बनाया। कांग्रेस ने इसे ओबीसी और दलित वोटरों को लुभाने के लिए इस्तेमाल किया, खासकर जब बीजेपी का वोट बैंक 2024 में बिखर गया।
राहुल गांधी ने 2023 में कहा, "कांग्रेस शासित राज्य जातिगत जनगणना कराएंगे।";
2024 में तेलंगाना के सीएम रेवंत रेड्डी ने दावा किया, "राहुल गांधी का विजन अब सत्ता पक्ष की नीति बन गया।"
2025: जीत का दावा, लेकिन संशय बरकरार
रुख: मोदी सरकार के अप्रैल 2025 में जातिगत जनगणना कराने के ऐलान के बाद कांग्रेस ने इसे अपनी जीत बताया। राहुल गांधी ने कहा, "हमने संसद में कहा था कि हम जातिगत जनगणना करवाएंगे।" हालांकि, बाद में कांग्रेस ने बीजेपी के इरादों पर सवाल उठाए, जैसे कि यह "वास्तविक" जनगणना होगी या नहीं।
कारण: कांग्रेस ने इसे अपनी दबाव की रणनीति की जीत माना, लेकिन बीजेपी द्वारा इसे सही तरीके से लागू न करने की आशंका जताई। यह रुख 2027 की जनगणना की समय-सीमा और बीजेपी की राजनीतिक रणनीति को लेकर संशय से उपजा।
अब बात बीजेपी के रुख की…
2010: विपक्ष में रहते हुए समर्थन
रुख: जब बीजेपी विपक्ष में थी, तब उसने जातिगत जनगणना का समर्थन किया। बीजेपी नेता गोपीनाथ मुंडे ने 2010 में संसद में कहा, "अगर ओबीसी की गिनती नहीं हुई तो सामाजिक न्याय में 10 साल और लगेंगे।"
कारण: बीजेपी उस समय ओबीसी वोट बैंक को मजबूत करने की कोशिश में थी और कांग्रेस को घेरने के लिए इस मुद्दे का इस्तेमाल कर रही थी।
2014-2021: सत्ता में आने के बाद विरोध
रुख: सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने जातिगत जनगणना का विरोध शुरू किया। 2021 में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने संसद में कहा, "सरकार का जातिगत जनगणना का कोई इरादा नहीं है।" पीएम मोदी ने इसे "समाज को बांटने की कोशिश" करार दिया।
कारण: बीजेपी ने हिंदुत्व और राष्ट्रवाद पर आधारित वोट बैंक को मजबूत किया, जिसमें जातिगत मुद्दे कम महत्वपूर्ण थे। जातिगत जनगणना से सामाजिक विभाजन और आरक्षण की नई मांगों का डर था, जो उनके कोर सवर्ण वोटरों को नाराज कर सकता था।
उदाहरण: 2018 में, जब राजनाथ सिंह गृह मंत्री थे, सरकार ने ओबीसी डेटा एकत्र करने का वादा किया था, लेकिन बाद में इससे पीछे हट गई।
2023: बिहार सर्वे के बाद दबाव में बदलाव
रुख: बिहार में 2023 के जातिगत सर्वे (जेडीयू-आरजेडी सरकार द्वारा) के बाद बीजेपी ने आधिकारिक तौर पर इसका समर्थन किया, हालांकि केंद्रीय स्तर पर इसका विरोध जारी रहा। अमित शाह के बयानों में नरम रुख दिखा, जो पीएम मोदी के "समाज को बांटने" वाले बयान से अलग था।
कारण: बिहार में सहयोगी जेडीयू और अन्य एनडीए दलों (जैसे एलजेपी) की मांग और विपक्ष के दबाव ने बीजेपी को रुख नरम करने पर मजबूर किया। साथ ही, ओबीसी वोटरों में पैठ बनाए रखने की जरूरत थी।
2025: यू-टर्न और जनगणना की मंजूरी
रुख: अप्रैल 2025 में मोदी सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना कराने का ऐलान किया, जिसे 2027 में लागू किया जाएगा। बीजेपी सांसद प्रदीप वर्मा ने इसे "विकसित भारत" का कदम बताया।
कारण: 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की सीटें घटने (विशेषकर यूपी में 64 से 36) और ओबीसी-दलित वोटरों का इंडिया गठबंधन की ओर झुकने के बाद बीजेपी को यह दांव चलना पड़ा। विपक्ष की आक्रामक रणनीति और सहयोगी दलों (जैसे जेडीयू, एलजेपी) के दबाव ने भी भूमिका निभाई। साथ ही, बीजेपी ने इसे विपक्ष के प्रमुख मुद्दे को "निष्क्रिय" करने की रणनीति के रूप में देखा।
आजतक ने 2 मई 2025 को लिखा, "बीजेपी को यह एहसास हो गया कि जाति के सवाल को अनदेखा करना जोखिम भरा हो सकता है।"
तुलनात्मक विश्लेषण: रुख बदलने के प्रमुख कारण
सत्ता vs विपक्ष का गणित
दोनों पार्टियां विपक्ष में रहते हुए जातिगत जनगणना का समर्थन करती हैं, क्योंकि यह सत्ताधारी दल को घेरने का हथियार बनता है। सत्ता में आने पर दोनों इसका विरोध करती हैं, क्योंकि यह सामाजिक तनाव और आरक्षण की नई मांगों को जन्म दे सकता है।
प्रोफेसर सतीश देशपांडे कहते हैं- "केंद्र में कोई भी सरकार आती है, वो जातिगत जनगणना से हाथ खींच लेती है।"
चुनावी रणनीति:
कांग्रेस ने 2023-2024 में इसे ओबीसी और दलित वोटरों को लुभाने के लिए प्रमुख मुद्दा बनाया, जबकि बीजेपी ने हिंदुत्व के जरिए वोटों को एकजुट करने की कोशिश की। 2024 के चुनावी नुकसान ने बीजेपी को 2025 में रुख बदलने पर मजबूर किया।
सहयोगी दलों का दबाव:
बीजेपी के लिए जेडीयू, एलजेपी जैसे सहयोगी दलों की मांग और कांग्रेस के लिए आरजेडी, सपा जैसे दलों का दबाव रुख बदलने में अहम रहा।
सामाजिक-राजनीतिक दबाव:
बिहार (2023), कर्नाटक (2015), और तेलंगाना (2024) में राज्य-स्तरीय सर्वे ने राष्ट्रीय स्तर पर दबाव बढ़ाया। आरएसएस ने भी 2024 में इसे सामाजिक कल्याण के लिए सकारात्मक बताया, जिसने बीजेपी को रुख बदलने में मदद की।
दरअसल कांग्रेस और बीजेपी का जातिगत जनगणना पर रुख सत्ता, विपक्ष, और चुनावी गणित के आधार पर बदलता रहा है। कांग्रेस ने 2011 में दबाव में जनगणना कराई, लेकिन आंकड़े छिपाए; 2023-2024 में इसे प्रमुख मुद्दा बनाया। बीजेपी ने 2010 में समर्थन किया, 2014-2021 में विरोध, और 2025 में फिर समर्थन दिया। यह बदलाव सामाजिक न्याय की मांग, सहयोगी दलों के दबाव, और वोट बैंक की रणनीति से प्रेरित रहा।
रिफ्रेंस:
बीबीसी, 1 मई 2025, 30 अप्रैल 2025, 2 अगस्त 2021
आजतक, 1 मई 2025, 2 मई 2025
नवभारत टाइम्स, 2 मई 2025
X पोस्ट, INCIndia, 6 जून 2025
जनगणना 2025: किस राजनीतिक पार्टी को क्या लाभ हो सकता है?
1. भारतीय जनता पार्टी (BJP)
रणनीति में बदलाव: बीजेपी ने पहले जातिगत जनगणना का विरोध किया था, लेकिन अब इसे लागू करने का फैसला विपक्ष के दबाव और सामाजिक न्याय की राजनीति के चलते लिया गया है। इससे बीजेपी को यह फायदा हो सकता है कि वह विपक्ष के मुख्य चुनावी मुद्दे की धार को कुंद कर सके, खासकर बिहार जैसे राज्यों में।
OBC वोट बैंक: जातिगत आंकड़ों से ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) की वास्तविक संख्या सामने आएगी। अगर ओबीसी की आबादी अपेक्षा से अधिक निकलती है, तो बीजेपी उनके लिए आरक्षण या कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा कर सकती है, जिससे ओबीसी वोट बैंक मजबूत हो सकता है।
क्रेडिट लेने की कोशिश: केंद्र में सरकार होने के नाते बीजेपी इसका श्रेय अपने पक्ष में ले सकती है कि उसने सामाजिक न्याय के लिए बड़ा कदम उठाया।
2. कांग्रेस (Congress)
सामाजिक न्याय की राजनीति: कांग्रेस लंबे समय से जातिगत जनगणना की मांग कर रही थी। राहुल गांधी ने इसे 2024 के चुनाव में मुख्य मुद्दा बनाया था। कांग्रेस को उम्मीद है कि इससे वह ओबीसी, एससी-एसटी और वंचित वर्गों में अपनी पकड़ मजबूत कर सकती है।
आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग: अगर आंकड़ों से पता चलता है कि ओबीसी या अन्य वंचित वर्गों की आबादी ज्यादा है, तो कांग्रेस आरक्षण की सीमा बढ़ाने का वादा कर सकती है, जिससे उसे इन वर्गों का समर्थन मिल सकता है।
सीधी टक्कर: कांग्रेस को उम्मीद है कि जातिगत आंकड़ों के आधार पर वह बीजेपी के हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के एजेंडे को चुनौती दे सकती है, खासकर उत्तर भारत के राज्यों में।
3. क्षेत्रीय और मंडलवादी पार्टियां (RJD, JDU, SP, BSP आदि)
सीधा लाभ: ये पार्टियां शुरू से जातिगत राजनीति और सामाजिक न्याय की पैरोकार रही हैं। जातिगत जनगणना के आंकड़े इनके लिए सबसे बड़ा चुनावी हथियार बन सकते हैं, खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड जैसे राज्यों में।
वोट बैंक की राजनीति: जातिगत आंकड़ों के आधार पर ये पार्टियां अपने-अपने जातिगत वोट बैंक को और मजबूत करने की कोशिश करेंगी। इससे सामाजिक ध्रुवीकरण और पहचान की राजनीति को बढ़ावा मिल सकता है।
आरक्षण और प्रतिनिधित्व: इन पार्टियों की मांग रहेगी कि आबादी के अनुपात में आरक्षण और राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिले, जिससे इनका प्रभाव और बढ़ सकता है।
4. संभावित नुकसान और चुनौतियां
सामाजिक ध्रुवीकरण: जातिगत आंकड़ों के सार्वजनिक होने से समाज में ध्रुवीकरण और तनाव बढ़ सकता है। पार्टियां अपने-अपने वोट बैंक को साधने के लिए जातिगत भावनाओं को भुना सकती हैं।
विरोध और हिंसा: अगर किसी जाति को लगता है कि उनकी संख्या कम आंकी गई है या उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला, तो विरोध प्रदर्शन और अस्थिरता की आशंका है।
परिवार नियोजन पर असर: कुछ विश्लेषकों का मानना है कि अगर किसी समुदाय को अपनी आबादी कम लगती है, तो वे जनसंख्या बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं, जिससे परिवार नियोजन कार्यक्रम प्रभावित हो सकता है।
कई विशेषज्ञों का मानना है कि वर्तमान में देश की कुल आबादी में पिछड़ी जातियों की सही संख्या का अनुमान लगाना बहुत कठिन है। उनका कहना है कि जबकि अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के आरक्षण का आधार उनकी आबादी पर आधारित है, वहीं अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के आरक्षण का आधार 90 साल पुरानी जनगणना है, जो अब प्रासंगिक नहीं रही। यदि जातिगत जनगणना की जाती है, तो इससे एक स्पष्ट और ठोस आंकड़ा मिलेगा, जिसके आधार पर आरक्षण में बदलाव किया जा सकता है, यदि आवश्यकता पड़ी तो।
2011 और 2027 की जनगणना में क्या अंतर होगा?
जातिगत जनगणना: इस बार केंद्र सरकार ने जातिगत आधार पर जनगणना कराने का निर्णय लिया है। इसका मतलब यह है कि अब सामान्य वर्ग के साथ-साथ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के अलावा, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की जानकारी भी जनगणना में शामिल की जाएगी। 1931 के बाद पहली बार जनगणना के इस अभियान में यह महत्वपूर्ण बदलाव किया जा रहा है।
परिसीमन की प्रक्रिया: 2026 के बाद सरकार को परिसीमन की प्रक्रिया भी लागू करनी होगी। यह कदम प्रतिनिधित्व के हिसाब से सीटों के वितरण को आबादी के आधार पर समायोजित करने के लिए आवश्यक है। इस समय तक भारत में परिसीमन 1971 की जनगणना के आधार पर ही लागू है।
इसके अलावा, सितंबर 2023 में सरकार ने महिला आरक्षण बिल को मंजूरी दे दी थी। इस बिल के तहत, परिसीमन के बाद लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं के लिए एक-तिहाई (33%) सीटें आरक्षित की जाएंगी। यह महिला आरक्षण कानून लागू करने के लिए जनगणना के आंकड़ों का आधार बनेगा।
जनगणना करने वाले अधिकारी किस प्रकार के सवाल पूछेंगे?
भारत में जनगणना की प्रक्रिया केवल लोगों की गिनती तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज के विभिन्न पहलुओं को समझने का भी एक महत्वपूर्ण अवसर है। जनगणना के जरिए सरकार को देश की कुल आबादी, पुरुषों और महिलाओं की संख्या, साक्षरता दर, धर्म, प्रजनन दर, और विभिन्न वर्गों की आर्थिक स्थिति जैसे महत्वपूर्ण आंकड़े प्राप्त होते हैं। यह सभी आंकड़े समाज के बुनियादी ढांचे और विकास की दिशा को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
जनगणना का यह कार्यक्रम बहुत ही विस्तृत और संरचित है। इसमें कई चरण होते हैं, जिनमें से पहला चरण घरों की सूचीबद्धता है। इसमें घरों और उनके बारे में बुनियादी जानकारी एकत्र की जाती है। उदाहरण के लिए, घर का प्रकार, शौचालय की व्यवस्था, पीने के पानी की स्थिति, और खाना पकाने के लिए किस प्रकार के ईंधन का उपयोग होता है आदि। 2011 की जनगणना में कुल 35 सवाल पूछे गए थे, जिनमें कुछ महत्वपूर्ण सवाल थे:
- घर का प्रकार और स्थिति कैसी है?
- घर में पीने का पानी उपलब्ध है या नहीं?
- शौचालय की स्थिति: क्या शौचालय है और अगर है तो किस प्रकार का है?
- रसोई घर (किचन) का प्रकार और खाना पकाने के लिए कौन सा ईंधन इस्तेमाल होता है?
- घर में किस प्रकार का वाहन इस्तेमाल किया जाता है?
- घर में फोन, टेलीविजन, कंप्यूटर जैसी सुविधाएं हैं या नहीं?
- इंटरनेट की सुविधा है या नहीं? कितने स्मार्टफोन हैं और किसके पास हैं?
- खाना किस प्रकार का खाते हैं और किस अनाज का अधिक प्रयोग होता है?
- इसके अलावा, आबादी की गणना के लिए भी कुछ सवाल तैयार किए जाते हैं, जैसे: व्यक्ति का नाम, लिंग और आयु
- धर्म और जाति (जैसे एससी या एसटी)
- मातृभाषा और अन्य भाषाएं
- शैक्षणिक स्तर और शिक्षा प्राप्ति
- रोजगार की स्थिति (क्या व्यक्ति काम कर रहा है, स्वरोजगार है या नहीं)
- परिवार की आय और रोजगार से संबंधित अन्य जानकारी
2027 की जनगणना का महत्व
भारत में जनगणना की शुरुआत 1881 में हुई थी और तब से यह हर दस साल में आयोजित की जाती रही है। 2011 तक जनगणना के आंकड़े नियमित रूप से जारी किए गए थे। हालांकि, 2021 में कोविड-19 महामारी के कारण जनगणना को स्थगित कर दिया गया था। अब 2027 की जनगणना को लेकर सरकार ने कई नए निर्णय लिए हैं, जिनसे यह जनगणना पिछले सभी जनगणनाओं से अलग होगी।
2021 के बाद सरकार ने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए हैं, जिनसे 2027 की जनगणना और अधिक विस्तृत और सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण होगी। यह जनगणना न केवल आम जनसंख्या का आंकलन करेगी, बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों, उनकी जरूरतों, और उनके सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को समझने में भी मदद करेगी।
जनगणना की प्रक्रिया में क्या बदलाव होंगे?
जाति आधारित जानकारी: 2027 की जनगणना में पहली बार जाति आधारित आंकड़े भी शामिल किए जाएंगे। इसके तहत अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की संख्या का विस्तृत आंकड़ा लिया जाएगा, जो पिछले जनगणनाओं से अलग होगा। यह निर्णय समाज के विभिन्न वर्गों के लिए आरक्षण और सामाजिक योजनाओं को बेहतर बनाने में सहायक होगा।
महिला आरक्षण: 2027 की जनगणना के बाद सरकार को परिसीमन की प्रक्रिया लागू करनी होगी, जो कि जनसंख्या के हिसाब से राज्य स्तर पर सीटों का पुनर्निर्धारण करेगा। इसके तहत महिलाओं के लिए लोकसभा और विधानसभा में एक-तिहाई (33%) सीटों का आरक्षण भी सुनिश्चित किया जाएगा।
आर्थिक स्थिति का आकलन: जनगणना के सवालों में इस बार घरों की आर्थिक स्थिति, रोजगार, परिवारों की आय और जीवन स्तर से जुड़ी जानकारी भी शामिल होगी, जो कि सरकार को विभिन्न सामाजिक-आर्थिक योजनाओं को लागू करने में मदद करेगी।
राहुल गांधी द्वारा जातिगत जनगणना की मांग
राहुल गांधी ने कई मौकों पर जातिगत जनगणना की मांग उठाई है, जो देश के सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन चुका है। नीचे उन प्रमुख घटनाओं का विवरण दिया गया है, जब राहुल गांधी ने
इस मुद्दे को जोरदार तरीके से उठाया:
16 अप्रैल 2023: कर्नाटक के कोलार में एक रैली के दौरान, राहुल गांधी ने 2011 की जाति आधारित जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने की मांग की और आरक्षण की 50% सीमा को हटाने का प्रस्ताव दिया। उन्होंने केंद्र सरकार में ओबीसी, दलित और आदिवासियों की कम प्रतिनिधित्व की समस्या भी उठाई।
25 सितंबर 2023: छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक रैली में राहुल गांधी ने कहा कि कांग्रेस पार्टी ने 2011 में जाति आधारित जनगणना करवाई थी, लेकिन मोदी सरकार इन आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं कर रही है। उन्होंने इसे भारत का "एक्स-रे" बताते हुए सरकार से इन आंकड़ों को जारी करने की अपील की।
30 सितंबर 2023: मध्य प्रदेश के शाजापुर में एक जनसभा में राहुल गांधी ने वादा किया कि यदि कांग्रेस केंद्र में सत्ता में आई, तो वह देश में जाति आधारित जनगणना कराएगी।
9 अक्टूबर 2023: पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की घोषणा के बाद राहुल गांधी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि कांग्रेस राज्यों और केंद्र में जाति आधारित जनगणना करवाएगी। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि मीडिया में ओबीसी, दलित और आदिवासियों की कितनी भागीदारी है।
16 नवंबर 2023: राजस्थान चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने कहा कि कांग्रेस की केंद्र और राज्य सरकारें जातिगत जनगणना कराएंगी और इसे एक क्रांतिकारी कदम बताया। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी पर ओबीसी मुद्दे पर दोहरा रवैया अपनाने का आरोप लगाया।
3 फरवरी 2024: भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान झारखंड में राहुल गांधी ने सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हुए कहा कि यदि देश में केवल अमीर और गरीब ही जातियां हैं, जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं, तो मोदी ने खुद को ओबीसी क्यों बताया? इस पर उन्होंने जातिगत जनगणना की मांग को दोहराया।
8 फरवरी 2024: छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना को अनिवार्य बताया और कहा कि इसे कोई भी नहीं रोक सकता।
25 अगस्त 2024: उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में संविधान सम्मान सम्मेलन में राहुल गांधी ने कहा कि जातिगत जनगणना उनका मिशन है और इसके लिए वे राजनीतिक कीमत चुकाने को तैयार हैं। उन्होंने इसे सामाजिक न्याय का आधार बताया।
23 सितंबर 2024: सोशल मीडिया पर राहुल गांधी ने लिखा कि वे तब तक नहीं रुकेंगे जब तक जातिगत जनगणना नहीं हो जाती और आरक्षण की 50% सीमा नहीं हटाई जाती।
26 सितंबर 2024: हरियाणा के असंध में एक रैली के दौरान राहुल गांधी ने बीजेपी पर संविधान विरोधी होने का आरोप लगाते हुए जातिगत जनगणना की मांग को दोहराया।
जातिगत जनगणना की मांग का इतिहास
जातिगत जनगणना की मांग 1980 के दशक से उठने लगी थी, जब विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियां उभरीं और इन पार्टियों ने सरकारी संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण की मांग की। सबसे पहले यूपी में बसपा नेता कांशीराम ने जातियों की संख्या के आधार पर आरक्षण की मांग की।
भारत सरकार ने 1979 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के लिए मंडल कमीशन का गठन किया। मंडल आयोग ने OBC के लोगों को आरक्षण देने की सिफारिश की, जिसे 1990 में प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लागू किया। इसके बाद देशभर में सामान्य श्रेणी के छात्रों ने उग्र विरोध प्रदर्शन किया।
2010 में लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे ओबीसी नेताओं ने मनमोहन सरकार पर जातिगत जनगणना कराने का दबाव बनाया। इसके साथ ही पिछड़ी जाति के कांग्रेस नेता भी इसका समर्थन कर रहे थे।
मनमोहन सरकार ने 2011 में सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (SECC) कराने का फैसला लिया और इसके लिए 4,389 करोड़ रुपये का बजट पास किया। 2013 में यह जनगणना पूरी हुई, लेकिन जातियों का डेटा आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 30 नवंबर 2023 को "विकसित भारत संकल्प यात्रा" के दौरान देश में केवल चार प्रमुख जातियों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि भारत में केवल चार जातियां हैं—गरीब, युवा, महिलाएं, और किसान। मोदी ने यह भी कहा कि वह इन चार जातियों के सशक्तिकरण के लिए काम कर रहे हैं और उनका मानना है कि देश की प्रगति के लिए इन चार जातियों का उत्थान आवश्यक है।
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