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भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि सिर्फ भोजन का साधन ही नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की आजीविका का आधार भी है। कपास (Cotton) को "सफेद सोना" भी कहा जाता है, क्योंकि यह न सिर्फ किसानों की जिंदगी से सीधा जुड़ा है, बल्कि देश के टेक्सटाइल उद्योग और निर्यात का मजबूत स्तंभ भी है। लेकिन हाल ही में लिए गए सरकारी फैसले- कपास के आयात पर टैक्स यानी टैरिफ पूरी तरह हटाने, ने किसान समुदाय में बड़ी हलचल मचा दी है।
सरकार का तर्क है कि इससे कपड़ा उद्योग को सस्ते दामों पर कच्चा माल मिलेगा। लेकिन सवाल यही है कि इसका असर किस कीमत पर होगा? क्या किसान की मेहनत बाजार में और सस्ती हो जाएगी? आइए इस संकट को गहराई से समझते हैं।
भारत में कपास की खेती का गणित
भारत दुनिया का सबसे बड़ा कपास उत्पादक देश है और वैश्विक उत्पादन में इसका योगदान लगभग 25% है। कपास का लगभग 67% उत्पादन वर्षा आधारित क्षेत्रों में होता है। शेष 33% सिंचित भूमि पर उगाया जाता है। महाराष्ट्र, गुजरात और मध्यप्रदेश कपास उत्पादन में अग्रणी राज्य हैं।
कपास को "व्हाइट-गोल्ड" कहा जाता है, क्योंकि किसान सालभर की मेहनत के बाद इसी पर अपनी रोजमर्रा की जिंदगी और बच्चों की शिक्षा जैसी आवश्यकताओं का भार संभालते हैं। लेकिन खेती का गणित इतना सीधा नहीं है।
एक एकड़ कपास की खेती करने में किसान को 24,000 से 30,000 रुपए तक की लागत आती है। 2025 के लिए सरकार ने कपास का MSP (न्यूनतम समर्थन मूल्य) 8,110 रुपए प्रति क्विंटल तय किया है। पर असल लाभ तभी मिलता है, जब उत्पादन प्रति एकड़ कम से कम 6 क्विंटल हो।
बाजार में MSP और वास्तविक कीमत का फर्क
किसी भी किसान के लिए MSP उम्मीद की रोशनी होती है। लेकिन व्यावहारिक बाजार यही दिखाता है कि कपास का भाव MSP से नीचे मिल रहा है।
उदाहरण के लिए:
मध्यप्रदेश की अंजद और खरगोन मंडियों में कपास की मुहूर्त बिक्री 6,500 से 7,100 रुपए प्रति क्विंटल में हुई। सरकार ने इस बार कपास का समर्थन मूल्य 8,110 रुपए तय किया है। यानी अंजद और खरगोन मंडियों में कपास MSP से लगभग 1,500 रुपए कम पर बिका है।
कपास आयात शुल्क का किसानों पर असर
किसान संगठनों का मानना है कि यह सीधी चोट सरकार के फैसले की वजह से है। विदेश से आयातित सस्ती कपास आने लगी तो देशी किसानों की फसल की कीमत नीचे गिर गई। हालांकि कपास आयात शुल्क किसानों पर कितना असर डालेगा, ये देखने वाली बात होगी।
कपास आयात शुल्क हटने का क्या मतलब है?
भारत सरकार ने 2025 के अंत (31 दिसंबर तक) तक कपास पर लगने वाला 11% आयात शुल्क और कृषि अवसंरचना विकास उपकर हटा दिया है। इसका फायदा टेक्सटाइल मिलों को है, क्योंकि अब वे सस्ती विदेशी कपास खरीद सकती हैं। लेकिन इसका नुकसान किसानों को है, जिन्हें अपनी लागत तक वसूलना मुश्किल हो गया है।
संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) और अन्य किसान संगठन साफ कहते हैं कि, "यह फैसला किसान को नहीं, उद्योगपति को राहत देता है।"
सब्सिडी में भी असमानता: अमेरिका बनाम भारत
यही वो फेक्टर है, जो अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में भारतीय किसानों को कमजोर बनाता है। अमेरिका में कपास किसानों को उनकी लागत का लगभग 12% सब्सिडी मिलती है।जबकि भारत में किसानों को सिर्फ 2.37% सब्सिडी तक सीमित रखा जाता है।
इस वजह से अमेरिकी किसान सस्ते में कपास का उत्पादन करके वैश्विक बाजारों में बेच पाते हैं, जबकि भारतीय किसान अपनी लागत भी नहीं निकाल पाते। इससे "समान अवसर" यानी Level Playing Field पूरी तरह गायब हो जाता है।
उत्पादन और निर्यात की स्थिति भी चिंताजनक
बता दें कि भारत में कपास की खेती 120.55 लाख हेक्टेयर में होती है, जो दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 36% है। लेकिन चिंताजनक बात यह है कि: साल 2024-25 में कपास उत्पादन का अनुमान 311.40 लाख गांठ लगाया गया है। यह पिछले साल से लगभग 8% कम है। लगातार बढ़ती लागत और MSP से नीचे बिकते दामों ने किसानों को गहरे आर्थिक संकट में धकेला है।
दूसरी तरफ, भारत का टेक्सटाइल निर्यात (textile export) कपास आधारित उत्पादों पर ही टिका है। यह लगभग 7.08 अरब डॉलर का बिजनेस है, जिसमें कपास की हिस्सेदारी 33% है। लेकिन प्रश्न यह है कि अगर किसान ही घाटे में रहेगा, तो यह निर्यात कितने वर्षों तक टिक पाएगा?
किसानों में गुस्सा और विरोध क्यों है?
किसानों ने इस बार कपास की बुवाई भारी लागत से की थी और उन्हें उम्मीद थी कि बाजार में फसल को अच्छा दाम मिलेगा। लेकिन जैसे ही कीमतें MSP से नीचे गईं, किसानों में गुस्सा फैल गया। रही- सही कसर आयात होने वाले कपास को ड्यूटी फ्री करने से पूरी हो गई। इससे कपास किसान संकट में आ गए हैं। इसीलिए SKM ने इसे किसान विरोधी कदम बताया और फैसला वापस लेने की मांग की है।
किसानों ने जगह-जगह विरोध किया, आदेश की प्रतियां जलाईं और आंदोलन की चेतावनी दी। कपास उत्पादक राज्यों - महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और गुजरात - में असंतोष गहराता जा रहा है। यह सिर्फ कृषि संकट नहीं, बल्कि अब सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा भी बन चुका है।
कपास किसानों का संकट इतना गंभीर क्यों है?
- कपास उत्पादन वाले क्षेत्र पहले से ही किसान आत्महत्याओं के लिए बदनाम हैं।
- भारत में 60 लाख से ज्यादा परिवारों की आजीविका सीधी तरह कपास पर निर्भर है।
- उत्पादन लागत हर साल बढ़ रही है, लेकिन किसान की आमदनी का कोई पक्का आधार नहीं है।
- वैश्विक बाजार और सरकारी नीतियां, किसान को सबसे कमजोर खिलाड़ी बनाती हैं।
क्या कपड़ा उद्योग को वाकई फायदा होगा?
सरकार का कहना है कि कपड़ा उद्योग को सस्ती कच्ची सामग्री मिलेगी, जिससे:
- उद्योग की लागत घटेगी।
- निर्यात में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी।
- देश में रोजगार के अवसर बनेंगे।
लेकिन यहां बड़ा सवाल वही है - अगर उद्योग को फायदा होता है तो किसान को उसका हिस्सा क्यों नहीं मिलता?
आगे का रास्ता: किसानों और उद्योग के बीच संतुलन
नीति विशेषज्ञों का मानना है कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश को उद्योग और किसान दोनों के हित को साथ लेकर चलना होगा। इसके लिए कुछ उपाय हैं:
- MSP को कानूनी गारंटी दी जाए।
- सब्सिडी में अंतर को कम किया जाए, ताकि भारतीय किसान वैश्विक स्तर पर टिक सकें।
- फसल बीमा और लागत घटाने वाली नीतियां अपनाई जाएं।
- टेक्सटाइल उद्योग को राहत दी जाए, लेकिन किसानों की उपेक्षा नहीं की जाए।
निष्कर्ष
कपास भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था की धड़कन है। सरकार की नीतियों का सीधा असर करोड़ों किसानों के जीवन पर पड़ता है। अगर कच्चा माल उद्योग को सस्ता दिया जा सकता है, तो किसान को भी उसकी लागत और मेहनत का पक्का दाम मिलना चाहिए।
यह संकट बताता है कि भारत को अब अपनी नीतियों में किसानों को केंद्र में रखना होगा। नहीं तो कपास का "सफेद सोना" किसानों के लिए बोझ बन जाएगा।
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