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Thesootr Prime:कभी मोहल्ले की छोटी-सी किराना दुकान हमारी जिंदगी का हिस्सा हुआ करती थी। वहां सामान लेने जाना केवल खरीदारी नहीं, बल्कि रिश्तों का हिस्सा भी था।
दुकान वाला नाम से पहचानता था, हालचाल पूछता था, और अक्सर उसी दौरान दो-चार बातें हो जाया करती थीं- कभी घर की, कभी मोहल्ले की। उस दौर में खरीदारी और मानवीय रिश्ते एक-दूसरे से जुड़े हुए थे।
लेकिन अब नजारा बदल चुका है। आजकल जब हम किसी ऐप पर खाना या सब्ज़ी मंगवाते हैं, तो डिलीवरी बॉय सामान देता है और एक शब्द बोले बिना आगे बढ़ जाता है। हर बार वो एक सवाल पूछता है- OTP Please और हम भी मशीन की तरह चार नंबर बता देते हैं।
हम उसका नाम तक नहीं पूछते। उसके चेहरे पर नजर तक नहीं डालते। वह थका हुआ है या प्यासा, इसका हमें अहसास भी नहीं होता। यही है गिग इकोनॉमी का नया चेहरा-जहां इंसान दिन-रात शहर की मशीनरी को चलाने वाला बड़ा पुर्जा है, मगर अक्सर अदृश्य रह जाता है। thesootr prime में आज इन्हीं नए जमाने के मजदूरों की कहानी पर बात होगी।
राहुल की कहानी
भोपाल के एक पीजी रूम में रहने वाला 22 साल का राहुल साहू इस नई दुनिया का हिस्सा है। बैतूल जिले से पढ़ाई करने शहर आया राहुल अपने खर्च पूरे करने के लिए पहले परेशान था। लेकिन Rapido जैसी कंपनी ने उसके लिए दरवाजा खोल दिया।
वह बताता है- “शाम को तीन-चार घंटे बाइक चलाता हूं। दिन में 500 से 700 तक कमा लेता हूं। कभी-कभी काम कम मिलता है, मगर महीने के खर्च पूरे हो जाते हैं। पैसों के लिए महीनेभर इंतजार नहीं करना पड़ता, वही सबसे बड़ी राहत है।”
राहुल जैसा हर शहर में कोई-न-कोई नौजवान है जिसने गिग जॉब से अपनी पढ़ाई, किराया और परिजनों की जिम्मेदारी संभाल ली है।
गिग इकोनॉमी आखिर है क्या?
गिग इकोनॉमी उस व्यवस्था को कहते हैं जहां कंपनियां स्थायी कर्मचारियों की जगह टास्क-बेस्ड कामगार रखती हैं। यानी एक बार का काम, एक बार का मेहनताना।
- कैब ड्राइवर्स (Ola, Uber)
- फूड डिलीवरी एजेंट्स (Swiggy, Zomato)
- फ्रीलांस डिजाइनर, कंटेंट राइटर, ऑनलाइन असिस्टेंट
- घरेलू सेवाओं से लेकर ऐप-आधारित “टास्क” करने वाले लोग
यहां नौकरी का स्थायित्व नहीं है, न पेंशन, न छुट्टी, न सुरक्षा। लेकिन आजादी जरूर है-अपना वक्त चुनने की, अपनी क्षमता के अनुसार काम करने की।
“Gig” शब्द की दिलचस्प कहानी भी है। अंग्रेजी में यह शब्द संगीतकारों के अस्थायी प्रोग्राम से आया है। जैसे किसी होटल में एक रात का शो-वो gig कहलाता था। उसी से उधार लेकर आजकल हर अस्थायी काम को गिग कहा जाने लगा है।
क्यों बढ़ रही है गिग इकोनॉमी?
भारत में स्मार्टफोन और इंटरनेट की पहुंच के बाद से गिग इकोनॉमी ने रफ्तार पकड़ी। शहरों में सीधी-सपाट जॉब मिलने के बजाय अब ऐप्स पर मिलने वाले काम युवाओं की पहली पसंद बनते जा रहे हैं। इंदौर का आयुष कहता है-
“कंपनी की जॉब में टाइम फिक्स है, दबाव है। यहां कम से कम ये तो है कि जब पढ़ाई करनी हो तो काम बंद कर दूं, और जब पैसे चाहिए हों तो रात-रातभर डिलीवरी कर लूं।” युवाओं के लिए यह फ्लेक्सिबिलिटी सबसे बड़ा आकर्षण है।
गिग वर्कर्स की चुनौतियां – उम्मीद और हकीकत
गिग इकोनॉमी चमचमाती दुनिया लगती है, पर सच्चाई इससे उलट है। गिग वर्कर्स अपने हिस्से की कमाई तो निकालते हैं, लेकिन लंबी दौड़ में उनके पास सुरक्षा, भविष्य और सम्मान की कमी है।
1. आर्थिक असुरक्षा
- भारत के ज्यादातर गिग वर्कर महीने के अंत तक कुछ भी बचा नहीं पाते। मेडिकल इमरजेंसी या अचानक खर्च आते ही पूरा संतुलन बिगड़ जाता है।
2. अनिश्चित आय
- एक दिन 10 डिलीवरी मिल जाती हैं, अगली शाम 2 भी नहीं। यही अनिश्चितता EMI, किराया या फीस भरने में सबसे बड़ी समस्या बनती है।
3. भुगतान में देरी
- कई बार बोनस या इंसेंटिव समय पर नहीं मिलते। ऐप पर रेटिंग गिर जाए तो अगले दिन का काम सूख जाता है। खुद को साबित करने की लड़ाई रोज़ चलती रहती है।
4. कानूनी संरक्षण का अभाव
- प्लेटफॉर्म कहता है-“आप हमारे कर्मचारी नहीं, पार्टनर हैं।” नतीजा यह कि न श्रम कानून लागू होते हैं, न न्यूनतम वेतन। अकाउंट किसी भी समय सस्पेंड कर दिया जाए तो वर्कर के पास कोई सुरक्षा नहीं।
5. महिला वर्कर्स की चुनौतियां
गिग इकोनॉमी में महिलाओं की भागीदारी अभी कम है। सुरक्षा, देर रात काम, वेतन असमानता और सामाजिक पूर्वाग्रह-ये सभी बाधाएं सामने आती हैं।
6. करियर की स्थिरता नहीं
गिग जॉब से तुरंत पैसे मिल जाते हैं लेकिन प्रमोशन या स्किल डेवलपमेंट के मौके बहुत कम हैं। यह “आज की सुविधा” है, भविष्य का समाधान नहीं।
मध्यप्रदेश– डिजिटल मजदूरों का नया केंद्र
भोपाल, इंदौर, ग्वालियर और जबलपुर अब गिग इकोनॉमी के नए चेहरे बन चुके हैं।
भोपाल में ग्लोबल इन्वेस्टर समिट 2025 के बाद डिजिटल और IT सेक्टर में काफी निवेश आया है।
इंदौर क्रिएटिव इकोनॉमी, गेमिंग और डिलीवरी सर्विसेज़ का हब बन रहा है।
ग्वालियर और जबलपुर में स्टार्टअप्स और डिजिटल ट्रेनिंग प्रोग्राम गिग वर्कर्स को नए मौके दे रहे हैं।
आंकड़े बताते हैं:
2020-21 में भारत में 7.7 मिलियन गिग वर्कर्स थे। अनुमान है कि 2029-30 तक यह संख्या 23.5 मिलियन यानी 2.35 करोड़ तक पहुंच जाएगी। अकेले मध्यप्रदेश में ही अगले पाँच वर्षों में गिग वर्कर्स की संख्या 20 लाख तक होने का अनुमान है।
सरकार की कोशिशें
भारत सरकार ने ई-श्रम पोर्टल लॉन्च किया है, ताकि असंगठित श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा दी जा सके। लाखों गिग वर्कर्स इस पोर्टल पर पंजीकृत हो चुके हैं, हालांकि यह दावा कि “1 करोड़ गिग वर्कर्स जोड़े जा चुके” – थोड़ा अतिशयोक्ति भरा लगता है, क्योंकि इसमें असंगठित क्षेत्र के सभी कामगार शामिल होते हैं।
मध्यप्रदेश सरकार ने भी हेल्थ इंश्योरेंस, ट्रेनिंग और AVGC-XR नीति जैसे कदम उठाए हैं। लक्ष्य है कि अगले कुछ सालों में लाखों युवाओं को डिजिटल स्किल्स सिखाकर प्लेटफॉर्म आधारित नौकरी दिलाई जा सके।
गिग इकोनॉमी और महिलाएं
आज लगभग 28% महिलाएं गिग इकोनॉमी से जुड़ी हुई हैं। खासकर वे जो घर से काम करना चाहती हैं-जैसे कंटेंट क्रिएशन, वर्चुअल असिस्टेंस, डिजाइनिंग। इनके लिए यह लचीलापन एक वरदान है।
इंदौर की 26 वर्षीया प्रीति मालवीय कहती हैं-
“मैंने शादी के बाद बच्चों की देखभाल के साथ डिजाइनिंग का फ्रीलांस काम शुरू किया। पहले लगता था करियर खत्म हो गया, लेकिन अब घर बैठकर भी अपनी पहचान और कमाई दोनों है।”
गिग इकोनॉमी का सामाजिक और जातीय विश्लेषण
सामाजिक विश्लेषण
आय और आर्थिक अस्थिरता: अधिकतर गिग वर्कर प्रतिमाह 11,000 रुपए से कम कमाते हैं, जिनमें से कई अपने मासिक खर्चों को भी पूरा करने में संघर्ष करते हैं।
कार्य की अस्थिरता और लंबे घंटे: गिग वर्कर्स के लिए काम अस्थायी होता है और कार्य घंटों की लंबाई 10 से 14 घंटे तक होती है।
शहरी जीवन और आर्थिक दबाव: अधिकतर गिग वर्कर्स शहरी इलाकों में रहते हैं, जहां जीवन यापन की लागत अधिक होती है
परिवार की आर्थिक जिम्मेदारी: कई गिग वर्कर्स परिवार की प्रमुख आर्थिक जिम्मेदारी निभाते हैं। इनकी उम्र सामान्यतः 30 से 50 वर्ष के बीच होती है, और ये अपने परिवार की आजीविका के मुख्य आधार होते हैं।
जातीय और सामाजिक वर्गीकरण
भारत में गिग वर्कर्स विभिन्न जातीय और सामाजिक पृष्ठभूमियों से आते हैं, जिनमें प्रमुख रूप से निम्न और मध्य वर्ग के लोग शामिल हैं। ये वर्ग पारंपरिक स्थायी रोजगार के अवसरों के अभाव में गिग इकोनॉमी की ओर आकर्षित हुए हैं।
- जातीय भेदभाव और सामाजिक पूर्वाग्रह: गिग वर्कर्स को सामाजिक भेदभाव और जातीय पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है। विशेषकर महिलाओं और कुछ जातीय समूहों को कार्यस्थल पर भेदभाव और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, जिससे उनकी भागीदारी सीमित होती है।
गिग इकोनॉमी का मनोवैज्ञानिक पहलू
नंदिता दास की फिल्म “ज़्विगाटो” (2022) में गिग वर्कर की वही असलियत दिखाई देती है। ग्राहकों के लगातार कॉल, ऐप के दबाव और इंसेंटिव की लालसा में फंसा वर्कर, धीरे-धीरे थक जाता है।
ठीक यही अनुभव वंदना वासुदेवन की चर्चित किताब “OTP Please” में भी मिलता है, जो डिजिटल दुनिया के कामगारों की थकान, गुस्सा और अकेलेपन की परतों को उजागर करती है। (हालांकि इस किताब की पब्लिकेशन तिथि पर कुछ भ्रम है, इसे स्पष्ट करना जरूरी होगा।)
आगे की राह – आशा और चुनौतियां
डिजिटल इंडिया का सपना गिग इकोनॉमी के बिना अधूरा है। यह न केवल रोजगार दे रही है, बल्कि लाखों युवाओं को आर्थिक स्वतंत्रता भी। मगर यह तभी कारगर होगी जब:
सरकारें सामाजिक सुरक्षा, न्यूनतम वेतन और हेल्थ बेनिफिट सुनिश्चित करें।
प्लेटफॉर्म कंपनियां पारदर्शिता और निष्पक्षता पर ध्यान दें।
गिग वर्कर्स को लंबी अवधि के स्किल डेवलपमेंट के मौके मिलें।
गिग लाइफ की कथा: फिल्में और किताबें
“ज़्विगाटो” (2022): डिजिटल श्रम के मंच के पीछे की जद्दोजहद
“OTP Please” (2025): हर ओटीपी के पीछे का मनुष्य
“Gig Economy in India Rising” (2020, अमिताभ घोष): गिग इकोनॉमी का विस्तृत विश्लेषण
“The Gig Economy in India” (2025, प्रदीप निनन थॉमस): राज्य-स्टार्टअप्स और प्लेटफॉर्म्स की भूमिका
“Gigged” (2018, सारा केसलर): नई पीढ़ी की सुरक्षित भविष्य की चिंता
मध्यप्रदेश की गलियों और बड़े शहरों में घूमते हर डिलीवरी एजेंट, हर बाइक कैब ड्राइवर और हर फ्रीलांसर की अपनी कहानी है। यह कहानियां अक्सर अदृश्य रह जाती हैं। मगर यही लोग हैं जो नयी डिजिटल अर्थव्यवस्था की रीढ़ बने हुए हैं।
गिग इकोनॉमी हमें सुविधा देती है, हमारा समय बचाती है। पर अहम सवाल यह है-क्या इस रफ्तार भरी डिजिटल दौड़ में हम उन चेहरों को पहचान पा रहे हैं, जो हमें यह सुविधा दे रहे हैं?
राहुल जैसे युवाओं के सपने और संघर्ष ही इस नई इकोनॉमी की असली तस्वीर हैं। और यही तस्वीर तय करेगी कि गिग इकोनॉमी भविष्य का भरोसा बनेगी, या सिर्फ आज की मजबूरी। फूड डिलीवरी कंपनियां
FAQ
स्रोत/क्रेडिट
Drishti IAS: गिग इकोनॉमी रिपोर्ट, मध्यप्रदेश नीति व डेटा
बजट रिपोर्ट्स, Portal Updates, नीति आयोग रिपोर्ट
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