ऐसे दो क्रांतिकारी जिनके अंग्रेजों ने हथौड़े से तोड़े दांत, उखाड़े नाखून, फिर दी फांसी

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गाथा क्रांतिकारियों की वीरता से भरी हुई है, जिन्होंने अंग्रेजों से संघर्ष में अपनी जान की बाजी लगाई। सूर्य सेन और तारकेश्वर दत्त जैसे वीरों की संघर्ष की कहानी ऐसी है, जो आज भी हमें प्रेरित करती है।

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Vikram Jain
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Chittagong Armoury Raid surya sen tarkeshwar datt freedom struggle hero

विचार मंथन। Photograph: (the sootr)

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वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास साधारण नहीं है। इसमें बलिदान के कुछ ऐसे प्रसंग भी हैं जिन्हें पढ़कर आत्मा कांप उठती है। क्रांतिकारी सूर्यसेन और तारकेश्वर दत्त को फांसी देने से पहले अमानवीय यातनाएं दी गई, हथौड़े से उनके दांत तोड़े गए, नाखून उखाड़े गए और फिर उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया। इसके बाद उनके शव को समंदर में फेंक दिया गया। इस बर्बर और अमानवीय कृत्य के बाद उनका संघर्ष और बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक अभिन्न हिस्सा बन गए।

वीर सूर्यसेन का क्रांतिकारी सफर

इतिहास के पन्नों में अधूरी सी यह कहानी उन क्रांतिकारियों की है जिन्होंने चटगांव बंदरगाह पर अंग्रेजों का शस्त्रागार लूटकर सशस्त्र क्रांति की योजना बनाई थी। इस अभियान के नायक क्रांतिकारी सूर्यसेन थे। वे शिक्षक थे। उन्होंने अपने 50 से ज्यादा विद्यार्थियों का क्रांतिकारी दल बनाया था। सूर्यसेन के पिता रमानिरंजन चटगांव के नोआपाड़ा क्षेत्र के निवासी थे। 22 मार्च 1894 को जन्में सूर्यसेन छात्र जीवन से ही क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ गए थे। 1916 में इंटरमीडियेट की पढ़ाई के दौरान अनुशीलन समूह से जुड़े और बहरामपुर में बीए की पढ़ाई क्रांतिकारी संस्था युगांतर से जुड़े। समय के साथ शिक्षक बने, लेकिन अपने शिक्षकीय दायित्व के साथ युवाओं में भारत की स्वाधीनता के लिए क्रांतिकारी आंदोलन से जोड़ने लगे।

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चटगांव शस्त्रागार पर कांतिकारियों ने बोला धावा

जब इनका समूह बड़ा हो गया तब इसका नाम भारतीय रिपब्लिकन सेना रखा गया। रिपब्लिकन सेना ने सशस्त्र अभियान से अंग्रेजों को बाहर करने की योजना बनाई। इसके लिए शस्त्र जुटाने के लिए अंग्रेजों का चटगांव शस्त्रागार लूटा गया। चटगांव में दो शस्त्रागार थे। योजना के अनुसार 18 अप्रैल 1930 की रात 10 बजे कुल 65 क्रांतिकारियों ने दोनों शस्त्रागारों पर धावा बोल दिया। सूर्यसेन ने क्रांतिकारियों की तीन टुकड़ियां बनाई। पहली टुकड़ी के 16 क्रांतिकारियों के समूह ने पुलिस शस्त्रागार पर धावा बोला। इसका नेतृत्व गणेश घोष कर रहे थे। तो लोकेंद्रनाथ के नेतृत्व में दूसरी टुकड़ी ने सेना के शस्त्रागार पर अपना अधिकार कर लिया। जबकि तीसरी सशस्त्र टुकड़ी ने इन दोनों दलों को कवर करके सुरक्षा दी ताकि ये शस्त्र लेकर सुरक्षित निकल सकें।

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अभियान की सफलता और असफलताएं

भारतीय रिपब्लिकन सेना के इस बड़े अभियान की एक सफलता यह थी कि शस्त्रागार पर धावा बोलने से पहले क्रांतिकारियों ने टेलीफोन, टेलीग्राफ और रेल्वे लाइन आदि संपर्क के सभी सूत्र काट दिए थे, लेकिन एक असफलता यह थी कि हथियार तो मिले पर गोला बारूद नहीं मिला, जिससे इन हथियारों की उपयोगिता ही न रह गई थी। दूसरी सबसे बड़ी चूक यह रही कि शस्त्रागार में एक गुप्त अलार्म भी था, जिसकी जानकारी क्रांतिकारियों को नहीं थी। जब क्रांतिकारी हथियार एकत्र करके गोला बारूद ढूंढ रहे थे तब वहां तैनात सुरक्षा कर्मियों ने चुपके से अलार्म बजा दिया। हथियार लूटकर सभी क्रांतिकारी पुलिस शस्त्रागार के बाहर एकत्र हुए जहां सभी ने इस अभियान के नायक क्रांतिकारी सूर्यसेन को सैन्य सलामी दी और राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया। और यहीं एक अस्थायी क्रांतिकारी सरकार की घोषणा भी कर दी गई। सुबह होते होते सभी क्रांतिकारियों ने चटगांव नगर छोड़ दिया और चार समूहों में विभाजित होकर सभी अलग-अलग दिशाओं में चले गए।

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सूर्यसेन पर इनाम और विश्वासघात

भारतीय रिपब्लिकन सेना, जिसका नेतृत्व सूर्यसेन ने किया, बंगाल के विभिन्न हिस्सों में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्षरत रही। लगभग तीन सालों तक इस समूह ने बंगाल के विभिन्न स्थानों पर धावा बोला और अनेक अत्याचारी अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतारा। अंग्रेजों ने सूर्यसेन पर दस हजार रुपए का इनाम घोषित किया और मुखबिर भी तलाशे। किसी विश्वासघाती के कारण क्रांतिकारियों के छिपे होने की सूचना अंग्रेजों को मिल गई। उन्हें सेना ने घेर लिया। इसके बाद मुकाबला हुआ। सेना के 70 जवान और 14 क्रांतिकारी बलिदान हुए। नायक सूर्यसेन और तारकेश्वर सहित कुछ क्रांतिकारी सुरक्षित निकल गए। लेकिन 16 फरवरी 1933 को ये दोनों भी गिरफ्तार कर लिए गए।

कैद में क्रांतिकारियों के साथ अमानवीय यातनाएं

सूर्यसेन और उनके साथी तारकेश्वर दत्त को जेल में जो अमानवीय यातनाएं दी गईं, वह किसी भी मानवता की सीमा को पार करती थीं। ब्रिटिश अधिकारियों ने इन क्रांतिकारियों से रिपब्लिकन आर्मी से जुड़े अन्य नामों और मदद करने वालों के बारे में पूछताछ की। लेकिन ब्रिटिशों की शारीरिक तथा मानसिक यातनाओं के बावजूद उनसे कोई भी महत्वपूर्ण जानकारी हासिल नहीं कर पाए। 

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क्रांतिकारियों को फांसी और शव का अपमान

अंततः जनवरी 1934 में, इन दोनों क्रांतिकारियों को फांसी दी गई। लेकिन फांसी से पहले उन्हें जो शारीरिक यातनाएँ दी गईं, वह कल्पना से भी परे थीं। ब्रिटिश अधिकारियों ने इन दोनों क्रांतिकारियों के हथौड़े से उनके दांत तोड़े, उनके नाखून उखाड़े और उनके शरीर पर बुरी तरह से अत्याचार किए। उनके शरीर से हड्डियाँ झांकने लगी थीं, लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी मेहनत और बलिदान की भावना को बनाए रखा। फांसी के बाद, इन दोनों क्रांतिकारियों का अंतिम संस्कार भी नहीं किया गया। उनका शव समंदर में फेंक दिया गया।

मास्टर दा सूर्यसेन का पत्र

जिन दिनों सेना और पुलिस कांतिकारियों के समूहों को ढूंढकर खत्म करने के अभियान में लगे थी और रिपब्लिकन आर्मी बिखर रही थी तब 'मास्टर दा' सूर्यसेन को अपने अंत का आभास हो गया था। उन्होंने अपने एक मित्र को पत्र लिखकर अपने अंत का संकेत दे दिया था। पत्र में लिखा था कि "मौत मेरे दरवाजे पर दस्तक दे रही है। मेरा मन अनंतकाल की ओर उड़ रहा है... ऐसे सुखद समय पर ऐसे गंभीर क्षण में, मैं तुम सब के पास क्या छोड़ जाऊंगा? केवल एक चीज, यह मेरा सपना है, एक सुनहरा सपना- स्वतंत्र भारत का सपना... कभी भी 18 अप्रैल, 1930, चटगांव के विद्रोह के दिन को मत भूलना... अपने दिल के देशभक्तों के नाम को स्वर्णिम अक्षरों में लिखना जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता की वेदी पर अपना जीवन बलिदान किया है।" यह पत्र कलकत्ता संग्रहालय में सुरक्षित है।

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