राष्ट्र रक्षा में आज ही के दिन बलिदान हुए थे महायोद्धा दत्ताजी शिंदे

अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण के बाद मराठा सेना नायक दत्ताजी शिंदे ने राष्ट्र रक्षा के लिए लड़ाई लड़ी, लेकिन उनके साथ विश्वासघात हुआ। रुहेलों की रणनीति के कारण  महायोद्धा दत्ता जी घिर गए और महान संघर्ष के बाद बलिदान हो गए।

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Vikram Jain
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Bravery and sacrifice of Maratha army leader Dattaji Shinde

विचार मंथन। Photograph: (the sootr)

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वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा...

भारतीय स्वतंत्रता का संघर्ष साधारण नहीं है। इसमें अनगिनत बलिदान हुए हैं। और सबसे बड़ी त्रासदी यह कि बाह्य आक्रमणकारियों की सहायता अनेक स्वदेशी राजाओं और सेना नायकों ने की है। विदेशी आक्रांता यदि भारत में सफल हुए हैं तो स्थानीय लोगों की सहायता लेकर ही। कितने महानायक ऐसे हैं जिनका बलिदान स्थानीय और आत्मीय कहे जाने वाले विश्वासघातियों के रहते ही हुआ है। मराठा सेना नायक दत्ताजी शिंदे के साथ भी ऐसा ही हुआ। भारत पर जब अहमदशाह अब्दाली का आक्रमण हुआ और मुगल बादशाह ने मानों समर्पण कर दिया। तब हमलावर ने लूट और हत्याओं का तांडव किया तब मराठों की फौज राष्ट्र रक्षा के लिए दिल्ली पहुंची। पहले रूहेलखंड का सूबेदार नजब खां तटस्थ रहा। मानों अहमदशाह अब्दाली को मार्ग दे रहा हो लेकिन दत्ता जी शिंदे के पहुंचते ही वह अहमदशाह अब्दाली से मिल गया और उसकी सेना खुलकर मराठों से मोर्चा लेने लगी।

अहमदशाह अब्दाली के आतंक का काल

अहमदशाह अब्दाली विश्व प्रसिद्ध लुटेरे और हत्यारे नादिरशाह का वंशज था। यह वही नादिरशाह था जिसने दिल्ली में कत्ले-आम कराया था। अहमदशाह के भी भारत में कुल 6 आक्रमण हुए। उसका हर आक्रमण हत्याकांड, महिलाओं के अपहरण और लूट से भरा है। उसने कैसी लूट की होगी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन दिनों पंजाब से दिल्ली तक एक कहावत मशहूर हो गई थी कि "जितना खा लो पी लो पहन लो वही अपना है, बाकी तो अहमदशाह ले जाएगा"। यह भारतीय इतिहास का वह कालखंड है जब मुगल साम्राज्य विखर रहा था। उसे राज्य संचालन के लिए या तो मराठों की सहायता लगती थी या रुहेलों की। मराठा मुगल साम्राज्य की सहायता तो करते लेकिन इसके बदले में आर्थिक लाभ लेते और इसके साथ मंदिरों का जीर्णोद्धार भी करते।

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रूहेलों की मराठों से ईर्ष्या क्यों थी?

आज के उत्तर प्रदेश और पंजाब के अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार इसी काल में हुआ इसमें मथुरा और बनारस के मंदिर भी शामिल हैं। लेकिन रुहेलों को यह बात पसंद न थी इसलिए वे मराठों से ईर्ष्या रखने लगे थे। रुहेलों का मराठों से ईर्ष्या रखने का एक कारण और था। वह था पेशावर और लाहौर की जीत। वस्तुतः पेशावर और लाहौर पर अफगानों ने अधिकार कर लिया था । उनका अधिकार हटाने के लिए पेशवा ने अठारह हजार सैनिकों की सेना के साथ दत्ता जी को उत्तर भारत भेजा। मराठों ने जीत दर्ज की और पंजाब और सिंध में फिर से सनातनी राज्य की स्थापना की। यह परिवर्तन सात सौ साल बाद हुआ था। सिंधु सम्राट जयपाल का अंतिम वंशज त्रिलोचनपाल थे। उनका बलिदान मेहमूद गजनवी के साथ युद्ध में 1020 ईस्वी में हो गया था, तब से इस क्षेत्र में सत्ताएं बदलीं शासक भी बदले पर सनातनी सत्ता बहाल न हो सकी। यह काम अब दत्ता जी के नेतृत्व में सन् 1758-59 के बीच लगातार युद्ध में  मराठों की सेना ने किया था। मराठों के इस अभियान में अहमदशाह अब्दाली का पुत्र भी मारा गया था। 

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अहमदशाह अब्दाली का फिर से हमला

दत्ता जी अपना अभियान पूरा करके ग्वालियर लौट आए। अहमद शाह ने पहले मराठों की सेना को लौटने की प्रतीक्षा की। इस प्रतीक्षा में वह चुप नहीं बैठा। उसने गजनी और आसपास के इलाकों में ऐलान कराया कि लूट के लिए चलना है। लूट और स्त्रियों के हरण का लालच देकर उसने साठ हजार की फौज एकत्र की। इधर, रुहेलों को मजहब का वास्ता देकर तोड़ा। इतनी तैयारी करके अब्दाली ने हमला बोला। अब्दाली के इससे पहले जो हमले हुए उनमें रुहेलो और मराठों ने मिलकर ही मोर्चा लिया था और अब्दाली वापस लौटने पर विवश किया था। लेकिन इस हमले में यह बात न रही। नजब खां रुहेला भीतर से तो अब्दाली से मिल गया था लेकिन बाहर से उसने दत्ता जी को सहयोग का आश्वासन दिया। उसके आश्वासन पर दत्ता जी केवल ढाई हजार की सेना के साथ ग्वालियर से रवाना हुए। तब तक अब्दाली पंजाब  में लूट मार करता हुआ दिल्ली आ धमका था। 

पेशवा बाजीराव के बाल सखा राणों जी के पुत्र थे दत्ता जी

दत्ता जी यह तो जानते थे कि अब्दाली की सेना कई गुना है, लेकिन रुहेलों और मुगलों की सेना के सहयोग की उम्मीद थी। लेकिन नजब खां के माध्यम से अब्दाली ने बादशाह को तटस्थ कर लिया था। वह दत्ताजी से अपने पुत्र की मौत का बदला लेना चाहता था। सेना कम होने के बाबजूद दत्ता जी का वीरभाव तनिक भी विचलित न हुआ। वे छापामार युद्ध में भी पारंगत थे इसलिए दिल्ली की ओर तेजी से आगे बढ़े। उन्हें अपने पूर्वजों के वीरभाव और विजय परंपरा का अनुसरण करना था। वे राणों जी शिंदे के पुत्र थे। राणों जी पेशवा बाजी राव के बाल सखा थे। पेशवा बाजीराव ने ही तीन मराठा सरदारों होल्कर, पंवार और राणोजी सिंधिया को उत्तर भारत भेजा था। राणों जी ने पहले अपना केंद्र उज्जैन बनाया था, बाद में ग्वालियर और मथुरा। मराठों ने ही मुगल बादशाह को पराजित कर मालवा और राजस्थान में राजस्व वसूली अधिकार लिए थे। जो दत्ता जी के नेतृत्व में संचालित हो रहा था। 

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रूहेलखंड का ऐतिहासिक महत्व

मराठों ने अपना केन्द्र ग्वालियर बना लिया था पर उनकी सीमा मथुरा तक लगती थी। उनकी सीमा से लगा रूहेलखंड इलाका था। इतिहास में रूहेलखंड का वर्णन ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से मिलता है। सामान्यतया रूहेलखंड की सीमा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से तक्षशिला तक फैली थी। यह कोई दस हजार वर्गमील क्षेत्र था।  इसमें कुछ क्षेत्र राजस्थान और सिंध का हिस्सा भी शामिल था। यह माना जाता है एक समय मगध सम्राट चंद्रगुप्त ने इस क्षेत्र को सैन्य शक्ति के रूप में विकसित किया था। रुहेले का एक अर्थ योद्धा भी होता है। यह व्यवस्था सिकंदर के आक्रमण के अनुभव के बाद आचार्य चाणक्य के परामर्श से लागू की गई थी। धीरे-धीरे कुछ क्षेत्र टूटे और रूहेलखंड एक स्वतंत्र रियासत के रूप में अस्तित्व में आ गया। 

रुहेलों का इतिहास और मनोवृत्ति जानते थे दत्ता जी

सल्तनत काल में दिल्ली के सुल्तानों को सबसे बड़ा प्रतिरोध इसी इलाके से झेलना पड़ा। फिर अलाउद्दीन खिलजी के समय दमन और धर्मांतरण का अभियान चला। लंबे समय तक दमन और धर्मांतरण का अभियान चला। दिल्ली की सत्ता भले बदली हो पर रुहेलखंड का दमन न रुका। इसके साथ अफगानिस्तान से पठानों को भी लाकर बसाने का काम भी तेज हुआ। इन दोनों कामों से पूरे रूहेलखंड का रूपान्तरण हो गया। इस बदलाव के साथ रुहेले जो कभी दिल्ली की सत्ता के सिरदर्द हुआ करते थे अब दिल्ली सल्तनत के वफादार माने जाने लगे। जय हुई हो या पराजय लेकिन रुहेलों ने हर हमले में मुगलों के पक्ष में ही युद्ध किए थे उन्हे दरबार में भी एक सम्मान जनक स्थान भी प्राप्त था। दत्ता जी रुहेलों के इतिहास और मनोवृत्ति से अवगत थे। इसलिए उन्होंने रुहेलों के आश्वासन पर बिल्कुल संदेश न किया और तेजी से दिल्ली बढ़ आए। वे रुहेलों की नियत में खोट को समझ ही न पाये। 

10 जनवरी 1760 को क्या हुआ था... 

इतिहासकारों को इस बात पर आश्चर्य होता है कि दत्ताजी के पास चालीस हजार की फौज थी, फिर भी वे केवल ढाई हजार सैनिकों के साथ रवाना हो गए। वे दिल्ली के पास बुराड़ी घाट नामक स्थान पर पहुंचे और वहां घिर गए। उन्हें वहां घेरने की रणनीति रुहेलों ने ही बनाई थी। वे अपनी पगड़ी में कन्हैया जी को रखते थे। उन्हें हालात समझते देर न लगी। उन्होंने पगड़ी से कन्हैयाजी को निकाला और अपने भाई माधवराव को देकर निकल जाने को कहा। उनके साथ जितने सैनिक आए थे सबने जी तोड़ युद्ध किया। उनके सामने बीस हजार पठानों की सेना और आठ हजार रुहेलों की सामने थी। किसी सैनिक ने पीठ न दिखाई सबने सीने पर वार झेले और बलिदान हुए। दत्ताजी भी बुरी तरह घायल होकर  भूमि पर गिर पड़े। तभी नजब खां आया और उसने घायल दत्ताजी का शीश काटकर अहमदशाह अब्दाली को जाकर दिया। यह 10 जनवरी 1760 का दिन था।

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मराठों के बलिदान के बाद अब्दाली की लूट

इस तरह अपने जीवन की अंतिम सांस तक मराठों ने भारत भूमि को आक्रमणकारी से बचाने की कोशिश की। इनके बलिदान के बाद ही अब्दाली ने लूट शूरू की। इस घटना से बादशाह इतना भयभीत हो गया था कि उसने न केवल नगर बल्कि महल में भी लूट की अनुमति दे दी। हमलावरों ने दिल्ली में जमकर लूट की स्त्रियों का हरण किया। इतिहासकार लिखते हैं कि मुगल खानदान की भी कोई स्त्री ऐसी न बची जिसके साथ अनाचार न हुआ हो।

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