बोल हरि बोल: खदान में किसने किया खेला, टेंशन में दो माननीय और सरकार वह तिलस्मी आदेश...अब क्या होगा?

मंत्रालय में एक खदान से जुड़ी फाइल के खेल की चर्चा है। मंत्री जी अपनी सोशल मीडिया ब्रांडिंग को लेकर परेशान हैं, वहीं पुलिस की नाकामी से जनता का भरोसा टूटा है। पढ़ें आज के बोल हरि बोल में क्या यह सियासत की नयी चाल है या सिर्फ अफसरशाही का खेल?

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Harish Divekar
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सत्ता, सिस्टम और सियासत...इन तीनों के बीच जो कुछ पकता है, उसकी महक अक्सर फाइलों से नहीं, फुसफुसाहटों से आती है। आज के बोल हरि बोल में कुछ ऐसे ही किस्से हैं, जिनकी खुशबू खुसर पुसर में ज्यादा है। मंत्रालय में इन दिनों एक बड़ी खदान की खूब चर्चा है।

एक मंत्री जी को सोशल मीडिया एक्सपर्ट की तलाश है। वे इतने बेचैन हैं कि बस विज्ञापन नहीं दे पा रहे, बाकी सभी प्रयास किए जा रहे हैं। एक मंत्री जी अपने हमनाम नेता की वजह से टेंशन में हैं। सबसे खास जो हैं, वो डॉक्टर साहब का एक मैसेज है, जिसकी हर तरफ चर्चा है।

देश, प्रदेश में खबरें तो और भी बहुत हैं। आप तो सीधे नीचे उतर आईए और वरिष्ठ पत्रकार हरीश दिवेकर के लोकप्रिय कॉलम Bol Hari Bol के रोचक किस्सों का आनंद लीजिए। 

खदान में कौन कर गया खेल?

मंत्रालय के गलियारों में इन दिनों एक ही चर्चा गूंज रही है ​कि खदान की फाइल में आखिर किसने खेल कर दिया? कहते हैं, मामला किसी छोटी खदान का नहीं, बल्कि बड़ी खदान से जुड़ा है, इसलिए खुसर पुसर हो रही है। दिलचस्प बात ये है कि खेल किसी बड़े अफसर ने नहीं, बल्कि एक छोटे लेकिन तेज अफसर ने अपने स्तर पर कर डाला है। ऊपर तक बताए बिना फाइल इधर-उधर हुई और नीचे ही नीचे फैसला भी हो गया।

शुरू में सब कुछ इतना सलीके से हुआ कि किसी को भनक तक नहीं लगी। लेकिन मंत्रालय में फाइलें ज्यादा देर तक खामोश नहीं रहतीं। अब वही फाइल खुसर-फुसर का हिस्सा बन चुकी है। इसकी खबर सूबे के मुखिया तक भी पहुंच गई है। अब देखना है कि छोटा अफसर अकेला फंसेगा या फाइल के साये में बड़े नाम भी झुलसेंगे? 

मंत्री जी की अजब उलझन!

इन दिनों सूबे के एक मंत्री जी की बेचैनी चर्चा का विषय बनी हुई है। हां भाई हां...। इसकी वजह न कोई फाइल है, न कोई विभागीय संकट। ये उलझन तो सोशल मीडिया पर चमकने की अधूरी चाहत है। मंत्री जी अपनी ब्रांडिंग को लेकर इतने सजग हैं कि उन्हें योग्य सोशल मीडिया इंचार्ज मिल ही नहीं पा रहा।

हालात ये हैं कि अब तक दो-तीन कंपनियां बदल दी गईं, लेकिन मनपसंद चेहरा और मनचाहा कंटेंट अभी भी सपना बना हुआ है। मंत्री जी की अपेक्षाएं आसमान छूती हैं। उनके नाजो-नखरे इतने हैं कि कोई उनके सोशल मीडिया हैंडल्स संभालना ही नहीं चाहता है। कहते हैं कि काम से ज्यादा मंत्री जी के मूड का मैनेजमेंट करना पड़ता है। मंत्री जी की तलाश अब भी जारी है।

खाकी की किरकिरी, अफसरों की खामोशी

प्रदेश में इन दिनों पुलिस की खूब भद्द पिट रही है। आला अफसरों का रवैया इतना सुस्त है कि मैदानी अफसरों की मनमानी खुलकर सामने आ रही है। जिसे जो ठीक लग रहा है, वही कर रहा है और पूछने वाला कोई नहीं है। नतीजा ये कि जनता का भरोसा लगातार दरक रहा है।

बड़े और संवेदनशील मामलों में पुलिस की नाकामी भी अब कोर्ट तक पहुंच रही है। अदालतें एक के बाद एक फटकार लगा रही हैं, लेकिन अफसरों की नींद फिर भी पूरी हो रही। सबसे ज्यादा चर्चा एक साहब की है, जो प्यार-मोहब्बत के चक्कर में फंस गए हैं। उन्हें बचाने में पूरा अमला लगा हुआ है। जांच के नाम पर खानापूर्ति चल रही है और फाइलें गोल-गोल घूम रही हैं। अंदरखाने कहा जा रहा है कि जब तक कोर्ट सख्त कदम नहीं उठाएगा, तब तक ऊपर बैठे अफसरों के कान पर जूं नहीं रेंगने वाली। 

दिल्ली दरबार में बेटे की लॉन्चिंग 

सूबे की सियासत में फिलवक्त एक नेताजी फिर सक्रिय नजर आने लगे हैं। दरअसल, वे बेटे को लॉन्च करने की तैयारी में हैं। हाल ही में नेताजी दिल्ली पहुंचे और वहां तीन सीनियर मिनिस्टर्स से मुलाकात की। बाहर से देखने वालों को यह शिष्टाचार भेंट लग सकती है, लेकिन ये मुलाकातें पूरी तरह रणनीतिक थीं। नेताजी खुद पिछली सरकार में अहम विभाग संभाल चुके हैं, अब मौजूदा सरकार में उन्हें किनारे कर दिया गया है।

इसके बाद से वे थोड़ा असहज हैं और तबीयत भी अक्सर नासाज रहती है। लिहाजा, नेताजी अब खुद की नहीं, बल्कि सियासत की विरासत आगे बढ़ाने की तैयारी में हैं। दिल्ली दरबार में हाजिरी इसी सिलसिले का हिस्सा मानी जा रही है। आपको बता दें कि ये नेताजी महाराज के खासमखास हैं। सूबे के पूर्व सरकार से भी उनकी अच्छी पटरी बैठती है।

खबरों से बढ़ जाती है मंत्री जी की बेचैनी

सूबे के एक मंत्री जी इन दिनों कुछ तनाव में बताए जा रहे हैं। वजह कोई विभागीय फाइल नहीं, बल्कि उनका नाम है, जो बार-बार अखबारों और टीवी स्क्रीन पर चमक रहा है। हालांकि असल कहानी थोड़ी घुमावदार है। दरअसल, मामला मंत्री जी का नहीं, बल्कि उनके हमनाम एक नेता जी का है, जिनका नाम एक गंभीर केस में आ गया है। इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी गठन के आदेश दिए हैं और यहीं से मंत्री जी की मुश्किलें शुरू हो गईं ​हैं।

जैसे ही खबर में नाम उछलता है, मंत्री जी की धड़कन तेज हो जाती है। लोग पूरा मामला पढ़ें या न पढ़ें, बस नाम देखते ही जोड़-घटाव शुरू हो जाता है। विरोधी इस मौके को भुनाने में पीछे नहीं हैं। सोशल मीडिया पर माहौल गरमाया जाता है और इशारों-इशारों में मंत्री जी को घेरने की कोशिश होती है।

तिलस्मी सरकारी भाषा!

सरकारी भाषा कितनी तिलस्मी होती है, ये मामला उसकी बानगी है। ये केस आईएएस संतोष वर्मा से जुड़ा है। राज्य सरकार ने केंद्र को कार्रवाई का प्रस्ताव भेजा है। बाहर की दुनिया में साफ संदेश देने की कोशिश हो रही है कि सरकार सख्त है और बर्खास्तगी तय मानी जाए। समाज इसे अपनी जीत भी मान बैठे हैं।

लेकिन फाइल की असली कहानी कुछ और ही है। प्रशासनिक जानकार बताते हैं कि सरकार का प्रस्ताव खुद ही सवालों से घिरा हुआ है। उसमें यह साफ नहीं लिखा है कि सरकार वर्मा को नौकरी से बाहर करना चाहती है या सिर्फ उनका प्रमोशन रोकना चाहती है। 12 दिसंबर को DoPT को भेजी गई फाइल में ठोस आधार, नियमों का हवाला और कार्रवाई का स्पष्ट उद्देश्य नदारद है।

एक पूर्व मुख्य सचिव कहते हैं कि ऐसी धुंधली फाइलें अक्सर दिल्ली से वापस लौट आती हैं। ऐसे में कार्रवाई से ज्यादा किरकिरी अब उस सरकारी भाषा की हो रही है, जिसने पूरे मामले को तिलस्मी बना दिया है।

उनका काम मंत्रालय में है...

डॉक्टर साहब ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बड़े साहब को लेकर जो कहा है, उसकी खूब चर्चा हो रही है। दरअसल, गाहे-बगाहे बड़े साहब डॉक्टर साहब के मानो निशाने पर ही रहते हैं। हाल ही में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में तो डॉक्टर साहब ने सीधे कह दिया कि उनका (बड़े साहब) काम मंत्रालय में है। वे वहां फाइलें निपटाएं। उनकी यहां जरूरत नहीं है।

अब अधिकारियों के बीच में चर्चा है कि क्या डॉक्टर साहब किसी मामले को लेकर बड़े साहब से खफा हैं? क्योंकि जिस मौके पर डॉक्टर साहब ने ये बात कही है, वो सरकार के लिहाज से बड़ा इवेंट था। सत्ता के शीर्ष लोग उस मंच पर थे, लेकिन बड़े साहब कहीं नजर नहीं आ रहे थे। इसे लेकर अब तमाम तरह की कयासबाजी हो रही है।

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