पुस्तक समीक्षा 'भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परम्परा' एक पूरा शास्त्र है...

विज्ञान का सूर्य पश्चिम में ही उगा था और उसी की ऊर्चा से यह दुनिया देदीप्यमान है, अगर अंतर्मन में आपको भी यह सवाल कचोटता है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक, वरिष्ठ अध्येता और लेखक सुरेश सोनी की पुस्तक 'भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परम्परा' के 204 पन्ने जरूर पढ़ने चाहिए।

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरएसएस के प्रचारक सुरेश सोनी। Rashtriya Swayamsevak Sangh pracharak rss Suresh Soni   

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हरीश दिवेकर. भोपाल 
विज्ञान यानी विशिष्ट ज्ञान। सूर्य की स्थिरता, चंद्रमा का पृथ्वी के चक्कर लगाना, समुद्र की गहराई और आकाश की ऊंचाई... यह सब हम विज्ञान से ही सीख और समझ सके हैं। आज चंदा मामा पर हमारी चहलकदमी, सूर्य की ओर बढ़ते कदम और समुद्र की अनंत गहराइयों तक का सफर यूं ही तय नहीं हुआ। यह सब संभव किया विज्ञान ने। इस भौतिक दुनिया में विज्ञान संदेह नहीं, सत्य पर आधारित है।
पश्चिम के रहवासी भारत और भारतीयों के बारे में हमेशा से कहते आए हैं कि यह जादू-टोना, अंधविश्वासों से भरा से देश है। यहां कभी वैज्ञानिक दृष्टि नहीं रही। न ही विज्ञान के क्षेत्र में भारतीयों का कोई विशिष्ट योगदान है। ऐसे प्रकल्पों से आमजन मानस के मन में यह बात भीतर तक बैठा ​दी गई कि विज्ञान पश्चिम की देन है। विज्ञान का सूर्य पश्चिम में ही उगा था और उसी की ऊर्जा से यह दुनिया दैदीप्यमान है। 
अगर अंतर्मन में आपको भी यह सवाल कचोटता है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रचारक, वरिष्ठ अध्येता और लेखक सुरेश सोनी की पुस्तक 'भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परम्परा' के 204 पन्ने जरूर पढ़ने चाहिए। यह पुस्तक हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, मराठी, तेलुगू, उड़िया, मलयालम, पंजाबी और असमियां सहित कुल 9 भाषाओं प्रकाशित हो चुकी है। मुझे लगता है कि पुस्तक की लोकप्रियता बताने के लिए यह तथ्य काफी है। 

श्री सोनी ने कुल 21 अध्यायों में धातु विज्ञान, विमान विद्या, गणित, काल गणना, खगोल विज्ञान, रसायन शास्त्र, वनस्पति शास्त्र, प्राणी शास्त्र, कृषि विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, ध्वनि और वाणी विज्ञान, लिपि विज्ञान को इतने सरल और सहजता से समेटा है, मानो गागर में सागर समाहित कर दिया हो। राजनीति शास्त्र में एमए श्री सोनी की विज्ञान, इतिहास और संस्कृति में पकड़ और रुचि का परिणाम है कि वे अब तक सारगर्भित  8 पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। आज के आधुनिक दौर में उनकी हर पुस्तक एक काव्य सरीखी है। 

अब मूल पर आते हैं। जैसा कि पुस्तक का शीर्षक है 'भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परम्परा', यही किताब की संपूर्ण जानकारी देने के लिए पर्याप्त है। दर्शन, विज्ञान और गणित में भारत की उल्लेखनीय प्रतिष्ठा है। 20वीं सदी के आरंभ में आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय, ब्रजेन्द्रनाथ सील, जगदीशचन्द्र बसु, राव साहब वझे जैसे अध्येताओं ने अध्ययन से यह साबित किया है कि भारत विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। श्री सोनी की पुस्तक हमारे समृद्ध विज्ञान की 'परिभाषा' बेहद आसानी से समझाती है।

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 तीनों लोक हमारे लिए स्वदेश

श्री सोनी लिखते हैं, भारत सदियों से विश्व में मानव जाति के लिए प्रेरणा का केंद्र रहा है। हमारे पूर्वजों ने 'कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम्' यानी संपूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाएंगे और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' अर्थात् वसुधा एक कुटुम्ब है और 'स्वदेशो भुवनत्रयम्' तीनों लोक हमारे लिए स्वदेश हैं, की उदात्त भावना का संचार किया है। इसीलिए भारत विश्वगुरु कहलाता रहा है। इसकी एक झलक पाश्चात्य चिंतक मार्क ट्वेन के उस वक्तव्य में दिखाई देती है, जिसमें वे कहते हैं कि 'भारत उपासना पंथों की भूमि, मानव जाति का पालना, भाषा की जन्म भूमि, इतिहास की माता, पुराणों की दादी और परंपरा की परदादी है। मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान और सृजनशील सामग्री है, उसका भंडार अकेले भारत में है। यह ऐसी भूमि है, जिसके दर्शन के लिए सब लालायित रहते हैं और एक बार उसकी हल्की सी झलक मिल जाए तो दुनिया के अन्य सारे दृश्यों के बदले में भी वे उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं होंगे।' 

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 घोड़े के दांत गिन लीजिए!

पश्चिम और भारत की तर्क तथा प्रयोगों के प्रति दृष्टि को समझाते हुए श्री सोनी लिखते हैं, पश्चिम में प्रायोगिक विज्ञान का प्रारंभ साधारणत: 450 वर्ष पहले गैलीलियो से माना जाता है। उससे पहले कोपरनिकस ने यह वैज्ञानिक मान्यता स्थापित की थी कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी उसके आसपास चक्कर लगाती है। परंतु उस समय साधारण समाज की धारणा, मानसिकता कैसी थी, इसका विश्लेषण करते हैं तो पता चलता है कि उस समय जीवन के किसी भी प्रश्न के उत्तर के संदर्भ में अरस्तू प्रमाण था। कोई भी प्रश्न, कोई भी समस्या खड़ी हुई तो इस संदर्भ में अरस्तू ने क्या कहा, यह खोजने की एक सामान्य प्रवृत्ति थी। इस बारे में एक मनोरंजक कथानक प्रचलित है। एक बार लंदन में किसी हॉल में बैठकर कुछ विद्यान बात कर रहे थे। इसका विषय था, घोड़े के मुंह में कितने दाँत होते हैं? अलग-अलग विद्वान अलग-अलग संख्या बता रहे थे, पर निर्णय नहीं हो पा रहा था। एक युवक पास में बैठा बात सुन रहा था। इतने में एक विद्वान ने कहा, अंतिम निर्णय के लिए देखा जाए कि घोड़े के दांत के विषय में अरस्तू ने क्या कहा है? अत: एक विद्वान पास के पुस्तकालय में अरस्तू की पुस्तक खोजने गया। इस बीच यह चर्चा सुनने वाला युवक उठा और उस हाल से बाहर चला गया। वह बाहर चला गया है इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया, लेकिन कुछ समय बाद लौटकर जब वह हॉल में आया तो सब उसकी ओर देखने लगे, क्योंकि वापस आते समय उसके साथ एक जीवित घोड़ा था। उस घोड़े को सामने खड़ाकर उसने विद्वानों से कहा कि अरस्तू को क्यों परेशान करते हो? यह घोड़ा खड़ा है, इसके दांत गिनकर निर्णय कर लीजिए।

 गेलीलियो और अरस्तू में कौन बेहतर?

कुल मिलाकर कहें तो गैलीलियो के जनम से पूर्व करीब 1500 वर्षों तक यूरोप पर अरस्तू के विचारों और धारणाओं का राज रहा। इसी दिशा में आगे चलकर अनेक विद्वानों ने और अधिक प्रमाणों के साथ प्राचीन भारतीय विज्ञान को विभिन्न पुस्तकों और लेखों में अभिव्यक्त किया है। इनमें विशेष रूप से आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय की हिन्दू केमेस्ट्री, ब्रजेन्द्रनाथ सील की 'दी पॉजेटिव सायन्स ऑफ एन्शीयन्ट हिन्दूज', राव सा. वझे का 'हिन्दी शिल्प शास्त्र' तथा धर्मपालजी की 'इण्डियन सायन्स एण्ड टेकनॉलॉजी इन दी एटीन्थ सेंचुरी' में भारत में विज्ञान व तकनीकी परंपराओं को उद्घाटित किया गया है। वर्तमान में संस्कृत भारती ने संस्कृत में विज्ञान तथा बॉटनी, फिजिक्स, मेटलर्जी, मशीन्स, केमिस्ट्री आदि विषयों पर कई पुस्तकें निकालकर इस विषय को आगे बढ़ाया है। इसके अतिरिक्त बेंगलूरु के एम.पी. राव ने विमानशास्त्र व वाराणसी के पी.जी. डोंगरे ने अंशबोधिनी पर विशेष रूप से प्रयोग किए। विज्ञान भारती मुंबई व पाथेय कण जयपुर ने उपर्युक्त सभी प्रयासों को संकलित रूप से समाज के सामने लाने का प्रयत्न किया। डॉ. मुरली मनोहर जोशी के लेखों, व व्याख्यानों में प्राचीन भारतीय विज्ञान परम्परा को प्रभावी रूप से प्रस्तुत किया गया है। 

ऋषियों ने अपना संपूर्ण जीवन दिया

हमारे में विज्ञान की दशा और दिशा को समझने के लिए आज भी वे ग्रंथ हैं, जिनकी रचना के लिए वैज्ञानिक ऋषियों ने अपना संपूर्ण जीवन समर्पित किया था। इनमें महर्षि भृगु, महर्षि वशिष्ठ, महर्षि भारद्वाज, महर्षि आत्रि, महर्षि गर्ग, महर्षि शौनक, शुक्र, महर्षि नारद, चाक्रायण, धुंडीनाथ, नंदीश, काश्यप, अगस्त्य, परशुराम, द्रोण, दीर्घतमस, कणाद, चरक, धनंवतरी, सुश्रुत पाणिनि और महर्षि पतंजलि आदि ऐसे नाम हैं, जिन्होंने विमान विद्या, नक्षत्र विज्ञान, रसायन विज्ञान, अस्त्र-शस्त्र रचना, जहाज निर्माण आदि क्षेत्रों में काम किया। अगस्त्य ऋषि की संहिता के उपलब्ध कुछ पन्नों का अध्ययन कर नागपुर के संस्कृत के विद्वान डॉ.एससी सहस्त्रबुद्धे को पता चला कि उन पन्नों पर इलेक्ट्रिक सेल बनाने की विधि थी। महर्षि भरद्वाज रचित विमान शास्त्र में अनेक यंत्रों का वर्णन है। नासा में काम कर रहे वैज्ञानिक ने सन् 1973 में इस शास्त्र को भारत से मंगाया था। राजा भोज के समरांगण सूत्रधार का 31वें अध्याय में अनेक यंत्रों का वर्णन है। लकड़ी के वायुयान, यांत्रिक दरबान और सिपाही (रोबोट की तरह) चरक संहिता, सुश्रुत संहिता में चिकित्सा की उन्नत पद्धितियों का विस्तार से वर्णन है। यहां तक कि सुश्रुत ने तो 8 प्रकार की शल्य क्रियाओं का वर्णन किया है।  

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 गणित का ज्ञान
लेखक ने विज्ञान-पश्चिम व भारतीय धारणा, विद्युत् शास्त्र, मैकेनिक्स (कायनेटिक्स) एवं यंत्र विज्ञान, धातु विज्ञान, विमान विद्या, नौका शास्त्र, वस्त्र उद्योग, गणित शास्त्र, काल गणना, खगोल विज्ञान, स्थापत्य शास्त्र, रसायन शास्त्र, वनस्पति विज्ञान, कृषि विज्ञान, प्राणी विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, ध्वनि तथा वाणी विज्ञान और लिपि विज्ञान को एक साथ लाकर एक वैज्ञानिक पुस्तक लिखी है। इसमें पुरातन साक्ष्यों का भी वर्णन किया गया है। जैसे गणित विज्ञान पर प्रकाश डालते हुए श्री सोनी लिखते हैं, गणित शास्त्र की परम्परा भारत में बहुत प्राचीन काल से ही रही है। ईशावास्योपनिषद् के शांति में कहा गया है कि...
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
यह मंत्र मात्र आध्यात्मिक वर्णन नहीं है, बल्कि इसमें महत्वपूर्ण ज्ञान की प्रगति में दिया गया गणितीय संकेत छिपा है, जो समग्र गणित शास्त्र का आधार बना। मंत्र कहता है, यह भी पूर्ण है, वह पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण की उत्पत्ति होती है तो भी वह पूर्ण है और अंत में पूर्ण में लीन होने पर भी अवशिष्ट पूर्ण ही रहता है। जो वैशिष्ट्य पूर्ण के प्रस्तुत करेंगे। वर्णन में है, वही वैशिष्ट्य शून्य व अनंत में है। शून्य में शून्य जोड़ने या घटाने पर शून्य ही रहता है। यही बात अनन्त की भी है। 

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 हमने काल गणना दुनिया को सिखाई 
इसी तरह भारत का कैलेंडर पंचाग ज्योतिर्विज्ञान पूर्णत: वैज्ञानिक आधार पर है और यह ईसा से भी अनेक वर्षों पूर्व से। हमारे ऋषियों ने काल की परिभाषा करते हुए कहा है 'कलयति सर्वाणि भूतानि', जो संपूर्ण ब्रह्माण्ड को, सृष्टि को खा जाता है। साथ ही कहा कि यह ब्रह्माण्ड एक बार बना और नष्ट हुआ, ऐसा नहीं होता। बल्कि उत्पत्ति और लय पुनः उत्पत्ति और लय यह चक्र चलता रहता है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, परिवर्तन और लय के रूप में विराट् कालचक्र चल रहा है। काल के इस सर्वग्रासी रूप का वर्णन भारत में और पश्चिम में अनेक कवियों ने किया है। हमारे यहां इसको व्यक्त करते हुए महाकवि क्षेमेन्द्र कहते हैं-
अहो कालसमुद्रस्य न लक्ष्यन्तेऽतिसंतताः।
मज्जन्तोन्तरनन्तस्य युगान्ताः पर्वता इव॥
यानी काल के महासमुद्र में कहीं संकोच जैसा अन्तराल नहीं, महाकाय पर्वतों की तरह बड़े-बड़े युग उसमें समाहित हो जाते हैं। 
गर्वित हुइए और अपना कर्तव्य भी जानिए 
अपने लेखन में श्री सोनी ने सनातन, पुरातन और आधुनिक भारत के विज्ञान के हर उस पहलु पर प्रकाश डाला है, जो जनमानस को जानना चाहिए। वे लिखते हैं, विश्व के विज्ञानी, चिंतक, इतिहासकार व मनीषी भारत की भूमिका के बारे में आशा भरी नजर से देख रहे हैं। उसकी पूर्ति के लिए जरूरी है कि भारत को पुनः उसकी महानता के शिखर पर पहुंचाया जाए। आजादी के बाद वर्तमान समय तक इसकी कुछ झलक दिखाई देती है। जब जगदीशचन्द्र बसु ने जीव निर्जीव में एकत्व को प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया, रामानुजन की गणितीय प्रतिभा का लोहा विश्व ने माना, सत्येन्द्र नाथ बोस के फोटोन कणों के व्यवहार पर गणितीय व्याख्या के आधार पर ऐसे कणों को बोसोन नाम दिया गया, उनके शोध पत्र से आंइस्टीन इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसके साथ अपना नाम जोड़ा तथा आग्रह किया कि इसे बोस आइंस्टीन सांख्यिकी कहा जाए न की आइंस्टीन बोस सांख्यिकी।  आचार्य पी. सी. राय ने रसायन उद्योग की नींव डाली, चन्द्रशेखर वेंकटरामन के प्रकाश से सम्बन्धित रामन इफेक्ट पर नोबल पुरस्कार मिला, तारों की जीवन और मृत्यु में चन्द्रशेखर द्वारा दिया गया माप विश्व में चन्द्रशेखर लिमिट के नाम से जाना गया, होमी जहांगीर भाभा ने न केवल परमाणु विज्ञान की नींव डाली, अपितु अमेरिका के परमाणु भट्टी स्थापना में सहयोग के वायदे से मुकरने पर पहली परमाणु भट्टी का निर्माण कराया, साथ ही जिस प्रक्रिया से तारों में ऊर्जा की उत्पत्ति हो रही, उस संलयन प्रक्रिया को पृथ्वी पर संभव बनाने की उनकी कल्पना ने विश्व को चमत्कृत किया। विक्रम साराभाई ने अंतरिक्ष विज्ञान की नींव डाली तो तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने शस्त्रों के मामलों में प्रक्षेपास्त्रों की श्रृंखला पृथ्वी, नाग, आकाश, त्रिशूल, अग्नि एक व दो के द्वारा देश की सुरक्षा को मजबूत बनाया। विजय भाटकर ने अमेरिका के ना कहने पर सुपर कम्प्यूटर का स्वदेशी तकनीक से निर्माण किया। हमारे वैज्ञानिक तारापुर बिजली घर हेतु अपना परमाणु ईधन बनाने में सफल हुए। स्वदेशी तकनीक से क्रायोजेनिक इंजन बनाने में सफल हुए वहीं स्वयं के राकेट जी.एस.एल.वी. द्वारा 36000 कि.मी. दूर उपग्रहों को स्थापित करने में भी हम सफल हुए हैं तथा सुपर कण्डक्टर निर्माण की दिशा में हम आगे बढ़ रहे हैं।
इन उपलब्धियों के बाद भी अभी विज्ञान का विकास प्रकृति से सुसंगत हो, वह पर्यावरण को दूषित करने वाला न हो, सम्पूर्ण सृष्टि के लिए कल्याणकारी हो, ऐसी तकनीक भारत की एकात्मक विज्ञान दृष्टि से ही उद्भूत हो सकती है। ऐसी तकनीक विकसित करने वर्तमान के वैज्ञानिकों के प्रति आदर भाव रखते हुए अपने पूर्वजों, उनकी उपलब्धियों, उनके चिंतन व ज्ञान के प्रति मन में स्वाभिमान पैदा करना पड़ेगा, ताकि आज की पीढ़ी उस प्राचीन एकात्मक विज्ञान परम्परा को आगे बढ़ा सके जो सम्पूर्ण विश्व के लिए मार्गदर्शक हो सके। (सुरेश सोनी आरएसएस | सहकार्यवाह सुरेश सोनी | आरएसएस प्रचारक | राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक सुरेश सोनी | Rashtriya Swayamsevak Sangh preacher Suresh Soni | Rashtriya Swayamsevak Sangh | rss)

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