क्या जो बाइडेन अर्थव्यवस्था को लेकर मोदी से सबक ले सकते हैं?

भारत में युवाओं में बढ़ती बेहताशा बेरोजगारी और काम की कमी के बावजूद मोदी कीमतों को कंट्रोल किए हुए हैं। इसका मतलब यही है कि भारत में चुनाव स्थिरता से जीते जाते हैं, सब्सिडी से नहीं, जैसा कि प्रचारित किया जाता है। यही सबक बाइडेन को भी सीखना होगा।

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Dr Rameshwar Dayal
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NEW DELHI: भारत में लोकसभा के चुनाव ( loksabha election ) शुरू हो चुके हैं। कुछ हफ्तों के बाद यह जाहिर हो जाएगा कि देश में मोदी सरकार ( Modi government ) एक बार फिर से शासन करने जा रही है या नतीजों में बदलाव की संभावना है। वैसे पूरी दुनिया मान रही है कि महंगाई और असमान वेतनमानों ( inflation and unequal pay scales ) में जूझने के बावजूद भारत की अर्थव्यवस्था ( economy ) लगातार आगे बढ़ रही है। अर्थव्यवस्था की यह विकास दर इस चुनाव में मोदी को अनुकूल रेटिंग दे रही है। उनकी यह लोकप्रियता ‘रहस्यमय’ मानी जा सकती है, क्योंकि दुनिया के अधिकतर लोकतांत्रिक देशों के नेता अपने को लोकप्रिय बनाए रखने के लिए संघर्ष करते नजर आ रहे हैं। कहा जा रहा है कि मोदी की इस आर्थिक लोकप्रियता से अमेरिका के राष्ट्रपति ( US President ) जो बाइडेन ( Joe Biden ) ‘प्रेरणा’ ( inspiration ) ले सकते हैं, ताकि अमेरिका के चुनाव में उनकीा अस्तित्व बना रहे।

एक तरफ आर्थिक विकास दूसरी तरफ बेरोजगारी 

कोई भी मानक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सफलता की सटीक व्याख्या नहीं कर सकता है, क्योंकि देश में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। दुनिया के अर्थशास्त्री भी मान रहे हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था प्रभावी तरीके से आगे बढ़ रही है। लेकिन माना जा रहा है कि इसके बावजूद देश में रोजगार और वेतनमानों की उचित बढ़ोतरी नहीं हो रही है। सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि देश में पिछले एक दशक में लोगों के मासिक वेतन या कमाई में गिरावट आई है, या वे स्थिर बने हुए हैं। देश में काम करने वाली आधी आबादी को सरकार की ओर से निर्धारित वेतनमानों से कम मिल रहा है। यह आंकड़े इस ओर इशारा करते हैं कि देश के आर्थिक विकास ने मोदी की लोकप्रियता में चाहे इजाफा किया हो, लेकिन इसका लाभ बहुत कम देशवासियों को मिल रहा है। इसके बावजूद मोदी लोकप्रिय हैं और अमेरिका में मोटी सब्सिडी और खर्च पैकेजों के साथ चुनाव में उतर रहे राष्ट्रपति बाइडेन उनसे प्रेरणा ले सकते हैं? इसे हम समझने का प्रयास करते हैं।

इसके बावजूद क्यों लोकप्रिय हैं मोदी

यह ठीक है कि मोदी अपनी मजबूत हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा और उससे जुड़े बयानों के चलते देश में खासे लोकप्रिय हैं। यह लोकप्रियता उत्तर भारत में अधिक दिखाई देती है। लेकिन यह भी सच है कि बेहतर आर्थिक प्रबंधन या उसकी विकास दर ही मोदी को तीसरी बार सत्ता में बनाए रख सकती है। उनकी सफलता की इस ‘कलाकारी’ से दुनिया के दूसरे देश भी बहुत कुछ सीख सकते हैं, खासकर अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन, जो खुद को जीतने के लिए मोटी सब्सिडी व खर्च पैकेजों के बल पर देश के चुनाव में दांव लगाते नजर आ रहे हैं। तो क्या निवर्तमान पीएम मोदी का आर्थिक विकास और वेतनमानों में बढ़ोतरी उनकी लोकप्रियता को बढ़ा रही है, तो हम स्पष्ट रूप से कहेंगे कि नहीं। तो फिर लोकप्रियता बढ़ाने को लेकर कौन से कारण मोदी को दूसरों से आगे बढ़ाए हुए हैं।

क्या मुद्रास्फीति पर कंट्रोल पॉजिटिव संदेश दे रहा है?

अर्थशास्त्री मानते हैं कि इन दोनों के बजाय मोदी ने अपना ध्यान मुद्रास्फीति को कंट्रोल करने के लिए किया है। मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी का सीधा संबंध वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों के बढ़ने से जुड़ा हुआ है। यह इसलिए होता है जब डिमांड और सप्लाई में असंतुलन पैदा हो जाता है। हम देख रहे हैं कि मोदी सरकार संस्थागत सुधारों को लेकर बहुत उत्सुक नहीं है, लेकिन उसने रिजर्व बैंक के लिए मुद्रास्फीति लक्ष्य निर्धारित करने वाले कानून को जल्द आगे बढ़ाया। सरकार ने इसके लिए रिजर्व बैंक की छह सदस्यीय मौद्रिक नीति समिति ( Monetary Policy Committee of India ) को ब्याज दरों का प्रबंधन करने को उसके भरोसे छोड़ दिया। विशेष बात यह कि इसको लेकर वित्त मंत्रालय ने कुछ नाराजगी भी जताई, लेकिन सरकार ने इसमें हस्तक्षेप नहीं किया। मोदी सरकार ने इस समिति का गठन जून 2016 में किया था। इसका उद्देश्य ब्याज दर निर्धारण को अधिक उपयोगी व पारदर्शी बनाना है। 

इन खास कदमों ने देश को अस्थिर होने से बचाया

सूत्र बताते हैं कि इस बीच कीमतों के नियंत्रण से बाहर होने से बचाने के लिए सरकार ने मैक्रो- माइक्रोइकोनॉमिक ( Macroeconomics and Microeconomics ) सिस्टम को मिलाकर एक विशेष नीति बनाई। असल में अर्थशास्त्र ( Economics ) को दो महत्वपूर्ण वर्गों में बांटा गया है, इसमें मैक्रोइकॉनॉमिक्स समग्र अर्थव्यवस्था के व्यवहार से संबंधित है, जबकि माइक्रोइकॉनॉमिक्स व्यक्तिगत उपभोक्ताओं और उनसे जुड़े कारोबारों पर फोकस्ड है। इसके तहत ही कोविड महामारी के दौरान सप्लाई की समस्याओं से निपटा गया, इसके लिए ऐसा बजट बनाया गया जो घाटे को कम रख सके। इसी सिस्टम के तहत आम जन को ईंधन की बेतरतीब बढ़ती कीमतों व मुद्रास्फीति के उतार-चढ़ाव से काफी हद तक बचाया गया। इसी योजना के तहत भारत सरकार ने रूस के यूक्रेन पर आक्रमण व रूस पर विश्वव्यापी बंदिशों को नकारते हुए उससे ईंधन खरीदा ताकि इनकी लागत कम रहें। ऐसा भी माना जा रहा है कि सरकार के इसी पॉजिटिव व्यवहार के चलते इलेक्ट्रॉनिक वाहन कंपनी के टेस्ला के मालिक एलन मस्क भारत में कारोबार को राजी हुए, जबकि सरकार ने उन्हें कोई मदद का वादा नहीं किया। वह अपनी कार की कम कीमत के लिए भी राजी हैं।

कुछ निर्णय गलत, लेकिन पूर्व सरकारों ने दी ‘प्रेरणा’

वैसे आपको यह भी बता दें कि मुद्रास्फीति को कंट्रोल करने के सभी सरकारी प्रयास समझदारी भरे नहीं माने गए। सरकार ने देश में खाद्य पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी को बचाने के लिए जब-तब इनका निर्यात रोक दिया, इसके चलते भारत जैसे विकासशील देशों को समस्याओं का सामना करना पड़ा। इसके अलावा मोदी सरकार किसानों की आय दोगुनी करने के अपने वाले पर विफल रही। इसके बावजूद ऐसा लगता है कि मोदी ने देश की पूर्ववर्ती सरकारों की गलतियों से कुछ न कुछ सीखा है। देश की पिछली सरकारें कीमतों को कंट्रोल करने में विफल रहीं, जिसके चलते उन्हें व्यापक जन असंतोष का सामना करना पड़ा। खास बात यह है कि पूर्व सरकारों का विकास और वेतन का सिस्टम मोदी से बेहतर माना गया, लेकिन मुद्रास्फीति की गड़बड़ ने इन सरकारों से उसका ताज छीन लिया। 

बाइडेन से इसलिए विचलित है वोटर

मान सकते हैं सत्ता चाहने वाले नेता अर्थव्यवस्था को लेकर ‘बेवकूफी’ करते रहे हैं। लेकिन उन्हें ऐसा करने से बचना होगा। उसका कारण है कि अस्थिर मु्द्रास्फीति वोटरों को सरकार से दूर ले जाती है, चाहे अर्थव्यवस्था स्थिर रहे या बेरोजगारी कम रहे। जाने-माने अमेरिकी अर्थशास्त्री व नोबल पुरस्कार विजेता पॉल क्रुगमैन ( paul krugman) का मानना है कि जो बाइडेन ने देश को एक अच्छी अर्थव्यवस्था ( good economy ) प्रदान की है, लेकिन दक्षिणपंथी मीडिया अपनी निगेटिव भावनाओं के कारण उसे मान्यता नहीं दे रहा है। यह सच है कि अमेरिका में रोजगार में प्रभावी बढ़ोतरी हो रही है। उनकी सरकार आर्थिक घाटे को झेलते हुए भी रोजगार को प्राथमिकता दे रही है। इसके बावजूद यह जरूरी नहीं है कि अधिकांश वोटर उनकी सरकार खुश हों। उसका कारण यह है कि बेतहाशा सरकारी खर्च और किंतु-परंतु के आर्थिक प्रयासों ने अमेरिका में कीमतों को बहुत ज्यादा और हैरतअंगेज बना दिया है। वैसे हम यह भी कह सकते हैँ कि लोगों की इनकम बढ़ रही है, लेकिन वहां के वोटर तो कीमतों की नाममात्र बढ़ोतरी से ‘गंभीर’ हो जाते हैं। तो क्या मानकर चलें कि वोटरों की यह रहस्यमय ‘अनुभूति’ राष्ट्रपति बाइडेन को चुनाव में खतरा पैदा कर सकती है?

मोदी से सबक लें अमेरिकी प्रधानमंत्री वरना…

तो ऐसे में मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन को कुछ सीख दे सकते हैं? कहा जा सकता है, हां। असल में पश्चिमी देशों के नेताओं ने इस मसले पर काम नहीं किया है। वे खर्च बढ़ा रहे हैं और औद्योगिक सब्सिडी को दोगुना कर रहे हैं, लेकिन वे इस पर विचार नहीं कर रहे हैं कि बढ़ती कीमतें वास्तव में वोटरों को चिंतित करने लगती हैं। ऐसा सर्वे भी कह रहे हैँ। दूसरी ओर भारत में युवाओं में बढ़ती बेहताशा बेरोजगारी और काम की कमी के बावजूद मोदी कीमतों को कंट्रोल किए हुए हैं। इसका मतलब यही है कि भारत में चुनाव स्थिरता से जीते जाते हैं, सब्सिडी से नहीं, जैसा की प्रचारित किया जाता है। यही सबक बाइडेन के अलावा यूरोप की मुख्यधारा की पार्टियों के नेताओं को भी सीखना होगा, वरना इस बात की संभावना है कि उन्हें हार का मुंह देखना पड़ सकता है। 

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