सुप्रीम कोर्ट बन गया 'सुपर संसद'? उपराष्ट्रपति धनखड़ को सिब्बल-सिंघवी का तीखा जवाब

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर गंभीर सवाल उठाए। जानें कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी के जवाब और संविधान की इस अहम बहस को। 

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Jitendra Shrivastava
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vice-president Photograph: (THE SOOTR)

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सुप्रीम कोर्ट और उपराष्ट्रपति के बीच हाल ही में हुए विवाद ने भारतीय राजनीति और संविधानिक व्यवस्था में एक नया मोड़ लिया है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्यपालों और राष्ट्रपति से संबंधित हालिया फैसलों की आलोचना की। इसके बाद वरिष्ठ वकीलों कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी ने इस मुद्दे पर जवाब दिया, जिससे यह बहस और गहरी हो गई।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर विवाद की शुरुआत 

तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा बिलों को मंजूरी देने में हुई देरी के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा, अन्यथा यह माना जाएगा कि राज्यपाल ने बिलों को मंजूरी दे दी है। इस फैसले के बाद उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अनुच्छेद 142 (Article 142) का आलोचना की और इसे ‘न्यूक्लियर मिसाइल’ करार दिया। उनका कहना था कि संविधान के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे महत्वपूर्ण पदों को कोर्ट से निर्देश नहीं मिल सकते। उन्होंने इसे लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी बताया।

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कपिल सिब्बल का जवाब 

राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने उपराष्ट्रपति के बयान पर तीखा जवाब दिया। उन्होंने कहा, "बहुत दुख होता है जब कोर्ट के फैसले सरकार के खिलाफ जाते हैं, तो उनकी आलोचना की जाती है, लेकिन जब फैसले सरकार के पक्ष में होते हैं, तो अदालत की सराहना की जाती है।" सिब्बल ने कहा कि अनुच्छेद 142 संविधान में सुप्रीम कोर्ट को ‘पूर्ण न्याय’ करने का अधिकार देता है, और यह कोई नया प्रावधान नहीं है। उनका यह भी कहना था कि राष्ट्रपति एक सांकेतिक पद है, असली शक्ति मंत्रिमंडल के पास होती है। उन्होंने उपराष्ट्रपति को यह समझने की सलाह दी कि लोकतंत्र में न्यायपालिका का एक अहम स्थान है।

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अभिषेक मनु सिंघवी का कानूनी चाबुक

कांग्रेस सांसद और वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने भी इस मुद्दे पर अपनी स्पष्ट राय दी। सिंघवी ने कहा, "आदरणीय लेकिन पूरी मजबूती से मैं असहमत हूं। अनुच्छेद 142 कोई नया प्रावधान नहीं है। इसकी जड़ें 50 साल पुरानी न्यायिक परंपरा में हैं।" उन्होंने यह भी कहा कि डॉ. भीमराव आंबेडकर ने स्वयं सुप्रीम कोर्ट को यह विशेष अधिकार देने का समर्थन किया था। उनका मानना था कि सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल आत्म-नियंत्रण के साथ किया है।
सिंघवी ने यह सवाल उठाया, "जब राज्यपाल केंद्र सरकार के राजनीतिक एजेंट की तरह काम करते हैं, तो क्या कोर्ट को चुप रहना चाहिए?" उनका इशारा पंजाब, बंगाल और तमिलनाडु के राज्यपालों के आचरण की ओर था, जो अक्सर बिलों को बिना किसी ठोस कारण के मंजूरी नहीं देते या उन्हें लटकाए रखते हैं।

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राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधिकार 

धनखड़ ने राष्ट्रपति के अधिकारों के बारे में चिंता जताई थी, लेकिन सिंघवी ने इसे खारिज कर दिया। सिंघवी का कहना था, "गवर्नर और राष्ट्रपति, दोनों के लिए संविधान का संरचना लगभग एक जैसा है। अगर कोर्ट राज्यपाल को समय सीमा दे सकती है, तो राष्ट्रपति को क्यों नहीं?" उन्होंने पूछा कि अगर राष्ट्रपति बिल पर निर्णय नहीं लेते हैं, तो क्या संसद और राज्य सरकारें यूं ही इंतजार करती रहेंगी?

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संवैधानिक मर्यादा और न्यायपालिका 

यह बहस अब सिर्फ कानूनी मुद्दे से कहीं अधिक हो गई है। यह संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा, संतुलन और दायित्व की लड़ाई बन चुकी है। जहां सरकार अनुच्छेद 142 को ‘ज्यादा शक्ति’ मानती है, वहीं विपक्ष इसे संविधान की ‘अंतिम ढाल’ मानता है। सिंघवी और सिब्बल दोनों का मानना है कि जब संवैधानिक मर्यादाएं खतरे में हों, तो न्यायपालिका को अपनी भूमिका निभानी चाहिए। देश दुनिया न्यूज

 

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