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हर साल जब देशभर में दीपावली के दीये जलते हैं और पूरा वातावरण खुशियों की रोशनी से जगमगा उठता है, तो हम सब माता लक्ष्मी और भगवान राम की अयोध्या वापसी को याद करते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस महान पर्व का एक और गौरवशाली अध्याय उज्जैन के चक्रवर्ती सम्राट राजा विक्रमादित्य से भी जुड़ा है?
सदियों से चली आ रही लोक-कथाओं, धार्मिक ग्रंथों और ऐतिहासिक मान्यताओं में यह बात गहराई से बताइ गई है कि दीपावली केवल धन और समृद्धि का पर्व नहीं है, बल्कि यह महान सम्राट विक्रमादित्य की विजय और न्यायपूर्ण शासन की शुरुआत का भी प्रतीक है।
न्याय और पराक्रम के प्रतीक राजा विक्रमादित्य
धार्मिक ग्रंथों और ऐतिहासिक मान्यताओं के मुताबिक, राजा विक्रमादित्य को भारतीय इतिहास में न्यायप्रियता, वीरता और उदारता के लिए हमेशा याद किया जाता है।
वह ऐसे शासक थे जिन्होंने न केवल अपने राज्य को समृद्ध बनाया, बल्कि अपनी प्रजा के दुख-दर्द जानने के लिए रात में भेष बदलकर नगर में घूमते थे।
ये एक ऐसा आदर्श है जो आज भी ‘विक्रम-बेताल’ की कहानियों में जीवित है। उज्जैन के इस शासक ने विदेशी आक्रांताओं, खासकर 'शकों' को भारत भूमि से खदेड़कर बाहर किया। यह एक ऐसी ऐतिहासिक जीत थी जिसने भारतीय संस्कृति और संप्रभुता को बचाया।
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विजय का दीपोत्सव दीपावली
लोक-कथाओं और कुछ धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक इसी दीपावली के शुभ दिन पर हुआ था। कहा जाता है कि विक्रमादित्य ने शकों को परास्त करने के बाद कार्तिक मास की अमावस्या के दिन (यानी दीपावली) ही उज्जैन के सिंहासन पर बैठकर न्याय और धर्म के आधार पर एक नए और समृद्ध राज्य की स्थापना की थी।
यह दिन इतना खास था कि पूरी प्रजा ने इस महान विजय और नए युग की शुरुआत का स्वागत दीप जलाकर किया। यह दीपोत्सव केवल एक राजा की जीत का नहीं, बल्कि 'अंधकार पर प्रकाश की विजय' का वास्तविक और ऐतिहासिक उत्सव बन गया।
यह मान्यता दीपावली के महत्व को और बढ़ा देती है क्योंकि यह हमें याद दिलाती है कि बुराई कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, एक न्यायप्रिय और पराक्रमी शासक उसे मिटा सकता है।
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विक्रम संवत का आरंभ
राजा विक्रमादित्य और दीपावली का सबसे बड़ा जुड़ाव 'विक्रम संवत' से है। ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक, 57 ईसा पूर्व में राजा विक्रमादित्य ने शकों पर अपनी निर्णायक जीत की स्मृति में एक नए कैलेंडर युग की शुरुआत की। यही कैलेंडर आगे चलकर 'विक्रम संवत' कहलाया जो आज भी हिंदू धर्म में सबसे प्रचलित पंचांग है।
हालांकि, विक्रम संवत का पारंपरिक नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (हिन्दू नववर्ष) से शुरू होता है लेकिन गुजरात, महाराष्ट्र और उत्तरी भारत के कई व्यावसायिक समुदायों में, कार्तिक मास की अमावस्या के ठीक अगले दिन यानी गोवर्धन पूजा के दिन, नया साल शुरू करने की परंपरा है। यह दिन दीपावली पर्व का ही हिस्सा होता है।
लोक-कथाओं में विक्रमादित्य की भक्ति
विक्रमादित्य की लोक-कथाओं में उनकी भक्ति का भी गहरा रंग है। उज्जैन में स्थित 'श्री हरसिद्धि माता' का मंदिर, जो 51 शक्तिपीठों में से एक है, राजा विक्रमादित्य की कुलदेवी मानी जाती हैं।
मान्यता है कि राजा विक्रमादित्य प्रत्येक अमावस्या को माता की विशेष पूजा करते थे और देवी उनसे प्रसन्न रहती थीं। देवी की कृपा ने ही उन्हें शकों पर विजय दिलाई और एक धर्मपरायण शासक बनाया।
दीपावली, जो अमावस्या को मनाई जाती है उस दिन देवी हरसिद्धि की पूजा का विशेष महत्व हो जाता है, जो राजा विक्रमादित्य की अटूट भक्ति को दर्शाता है।
तो इस तरह दीपावली (दीपावली की कथा) का पर्व महान सम्राट विक्रमादित्य के विक्रम संवत की शुरुआत और उनकी विजय को भी गहरे रूप में दर्शाता है। व्यापारी वर्ग इस दिन अपने नए बही-खाते शुरू करते हैं, जो एक नए और समृद्ध साल की शुरुआत का प्रतीक है। vikram aditya
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