News Strike: परिवारवाद पर नर्म हो रहा बीजेपी का रुख? खंडेलवाल के अध्यक्ष बनने के बाद नेतापुत्रों में जगी आस !

बीजेपी में अब वंशवाद या परिवारवाद को लेकर कोई एतराज नहीं दिख रहा। हेमंत खंडेलवाल के प्रदेशाध्यक्ष बनने के बाद नेतापुत्रों को भी मौका मिलने की संभावना जताई जा रही है। इससे सियासी गलियारों में चर्चा तेज हो गई है।

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Harish Divekar
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news strike 7 july

Photograph: (The Sootr)

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NEWS STRIKE: बीजेपी को अब वंशवाद या परिवारवाद से कोई एतराज नहीं। नेतापुत्रों को भी अब बीजेपी में मौका मिलने के रास्ते खुल चुके हैं। ये वो सुगबुगाहटें हैं जो अब सियासी गलियारों में जोर पकड़ रही हैं। 

बीजेपी के ताजा फैसले के बाद ये चर्चा दोबारा शुरू हो चुकी है। और, कोई हैरानी नहीं होगी अगर नेताओं को भी ये आस बंध गई हो कि अब उनके बेटों को भी बीजेपी बड़ा ओहदा मिल सकेगा। हेमंत खंडेलवाल के बीजेपी के प्रदेशाध्यक्ष बनने के बाद नेतापुत्रों को मौका मिलने पर बातचीत का सिलसिला फिर चल पड़ा है।

नजर आने लगी है उम्मीद की किरण

बीजेपी हमेशा ही कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के परिवारवाद पर हमलावर रही है। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं कर सकती कि बीजेपी में भी परिवारवाद हावी है। परिवारवाद वो कोयले की खदान है जिसकी कालिख कांग्रेस, समाजवादी पार्टी या अन्य किसी दल पर है तो बीजेपी पर भी है। बस बीजेपी जरूरत पड़ने पर उस कालिख पर कपड़ा डाल देती है और जब मन किया तब हटा देती है।

इसका नुकसान मध्यप्रदेश बीजेपी के ही कई नेता पुत्रों को हुआ है। जिन्हें प्रदेश की सक्रिय राजनीति में जगह नहीं मिल सकी। परिवारवाद के खिलाफ पीएम मोदी के दिए मंत्र को सीख मानकर सभी नेता खामोश रहे। लेकिन अब हेमंत खंडेलवाल के प्रदेशाध्यक्ष बनने के बाद ऐसे नेताओं को उम्मीद की नई किरण नजर आने लगी है।

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हेमंत खंडेलवाल ने यूं रखा था राजनीति में कदम

हेमंत खंडेलवाल के पिता विजय कुमार खंडेलवाल बैतूल लोकसभा क्षेत्र से 11वीं, 12वीं, 13वीं और 14वीं लोकसभा के सांसद रहे। पिता की मौत के बाद, भाजपा ने हेमंत खंडेलवाल को 2008 में हुए उपचुनाव में प्रत्याशी बनाया, जिसमें उन्होंने जीत दर्ज की।

इससे ये तो साफ हो ही जाता है कि खुद खंडेलवाल को भी परिवारिक विरासत संभालने के बहाने ही राजनीति में कदम रखने का मौका मिला। इसके बाद खंडेलवाल पार्टी में कई अहम पद पर रहे।

साल 2020 में हुए बड़े दल बदल और कांग्रेस की सरकार को हटा कर वापस सरकार बनवाने में उनकी अहम भूमिका रही। इन कामों के दम पर वो इस पद तक पहुंचे।

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नेतापुत्रों के लिए खुलेंगे पार्टी के दरवाजे!

खंडेलवाल के प्रदेश के सबसे अहम पद पर काबिज होने के बाद ये माना जा रहा है कि अब बीजेपी या वो खुद परिवारवाद के खिलाफ आवाज कैसे बुलंद कर सकेंगे। हो सकता है वो नेतापुत्रों के लिए पार्टी के दरवाजे भी खोल दें।

मौजूदा कैबीनेट मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के बेटे को मौका मिला था, लेकिन पिछले चुनाव में आकाश विजयवर्गीय का टिकट काटकर कैलाश विजयवर्गीय को ही टिकट दे दिया गया। पार्टी का ये फैसला भी नेताओं के लिए किसी झटके से कम नहीं था।

ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसे नेताओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है जो अपने बच्चों का पॉलिटिकल सेटलमेंट करना चाहते हैं। इसमें से एक शिवराज सिंह चौहान भी हैं जिन के बड़े बेटे कार्तिकेय राजनीति में एक्टिव भी हो चुके हैं। लेकिन, उपचुनाव में उन्हें मौका नहीं मिला।

ज्योतिरादित्य सिंधिया के बेटे महार्यमन सिंधिया भी पॉलिटकल इवेंट्स में सक्रिय दिखते हैं। पिता की राजनीतिक विरासत तो उन्हें ही संभालनी होगी। शिवराज सरकार में साल दर साल मंत्री रहे नरोत्तम मिश्रा अपने बेटे सुकर्ण की लॉन्चिंग का इंतजार कर रहे हैं।

गोपाल भार्गव के बेटे पॉलिटकली काफी ज्यादा एक्टिव हैं। लेकिन एक्टिव पॉलिटिक्स में जगह नहीं बना पा रहे। ऐसे नाम तो बस गिनते ही जाइए। नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे देवेंद्र प्रताप सिंह, गोविंद सिंह राजपूत के बेटे आकाश सिंह, तुलसी राम सिलावट के बेटे नीतीश सिलावट भी अपने बेटों के बेहतर भविष्य की आस लगाए बैठे हैं। पूर्व प्रदेशाध्यक्ष प्रभात झा भी बेटे तुष्मुल झा के करियर को लेकर फिक्रमंद रहे, लेकिन कुछ हासिल न कर सके।

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बीजेपी परिवारवाद की डेफिनेशन कर चुकी है कॉन्ट्रडिक्ट

हालांकि बीजेपी खुद अपनी परिवारवाद की डेफिनेशन को कई बार कॉन्ट्रडिक्ट कर चुकी है। उदाहरण के लिए सुंदरलाल पटवा को लीजिए। जिनके भतीजे सुरेंद्र पटवा अरसे से राजनीति कर रहे हैं। मंत्री भी रहे हैं। कैलाश सारंग के बेटे विश्वास सारंग का नाम भी लिया ही जाना चाहिए। जो शिवराज सरकार में कई बार मंत्री बने और अब भी हैं।

पूर्व सीएम बाबू लाल गौर की बहू महापौर के पद से राजनीति में आईं और अब मंत्री हैं। रतलाम का मामला तो एकदम ताजा है। यहां से अनीता नागर सिंह चौहान सांसद हैं। उनसे पहले उनके पति नागर सिंह चौहान ने विधानसभा चुनाव जीत लिया था।

मोहन कैबिनेट में मंत्री भी बने और फिर पत्नी को लोकसभा का टिकट दिलाने में भी कामयाब रहे। जबकि अमित शाह ये कह चुके हैं कि एक परिवार से एक ही सदस्य सक्रिय राजनीति में हो सकता है। दूसरा चाहें तो संगठन का हिस्सा बन सकता है। लेकिन रतलाम इस मामले में अपवाद रहा है।

तो अब ये सवाल तो फिर से उठेगा ही कि जब एक नेता पुत्र को अहम पद मिल सकता है। तो बाकी नेता पुत्रों को ये मौका क्यों नहीं मिल सकता। इस सवाल से हेमंत खंडेलवाल कैसे डील करते हैं और क्या स्टेंड लेते हैं वो भी सियासत की एक नई लाइन तय करेगा।

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इस नियमित कॉलम न्यूज स्ट्राइक के लेखक हरीश दिवेकर मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं

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