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Photograph: (thesootr)
NEWS STRIKE ( न्यूज स्ट्राइक ): मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव और प्रदेशाध्यक्ष हेमंत खंडेलवाल क्या अपनी ही पार्टी में किसी सियासी खेल का शिकार हो रहे हैं। ये सवाल हम यूं ही नहीं पूछ रहे। बल्कि आपके सामने एक-एक कर ऐसे तथ्य भी रखने वाले हैं कि आप भी शायद हमारी बात मानने पर मजबूर होंगे।
इस बात का शक बीजेपी पर ही इसलिए हैं क्योंकि कांग्रेस या तो प्रदेश में बहुत बिखरी हुई है या बहुत कमजोर है या फिर हार को अपना मुकद्दर मानकर चुप बैठ चुकी है। इसलिए प्रदेश में पिछले कुछ दिनों से जो घटनाक्रम हो रहे हैं और फिर उनकी आग सोशल मीडिया तक पहुंची है। उसे देखकर लगता है कि बतौर सीएम प्रदेश को सलीके से चलाने की मोहन यादव की कोशिशों पर पलीता लगाने की पूरी कोशिश कोई अपना ही कर रहा है।
ग्वालियर चंबल में वर्ग संघर्ष पकड़ रहा तूल
कहते हैं फूंस के ढेर में आग लगने के बाद, आग की लपटें तो शांत हो जाती हैं, लेकिन उसकी चिंगारी लंबे समय तक भभकती रहती है। मध्यप्रदेश में भी ऐसी एक आग साल 2018 में लगी थी। जिसे उस साल के चुनाव में बीजेपी की हार के पानी से बुझाया गया। उसकी की चिंगारी एक बार फिर सुलगती दिखाई दे रही है। जो प्रदेश के कुछ हिस्सों में आग का रूप ले रही है। मामला जुड़ा है वर्ग संघर्ष से।
वर्ग संघर्ष यानी अलग-अलग तबके या जाति धर्म के लोग जब एक दूसरे के आमने सामने नजर आते हैं। ग्वालियर चंबल में इस मामले ने जबरदस्त तरीके से तूल पकड़ लिया है। मामला संविधान के रचियता से शुरू हुआ।
ग्वालियर के सीनियर एडवोकेट ने दावा किया कि संविधान की रचना सर बीएन राव ने की थी। उन्होंने बाबा साहेब अंबेडकर को अंग्रेजों का एडवोकेट भी बताया। जिसके बाद से ग्वालियर में सवर्ण वर्सेज अंबेडकरवादी का मसला तूल पकड़ रहा है। इस मामले में मिश्रा के खिलाफ शिकायद दर्ज हुई तो मिश्रा खुद ही गिरफ्तारी देने थाने भी पहुंच गए। इस मामले में गौर करने वाली ये बात थी कि सवर्ण समाज भी मिश्रा का साथ देता दिखाई दिया।
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ओबीसी आरक्षण पर अब रोज सुनवाई का फैसला
इसी बीच मध्यप्रदेश राजनीति में ओबीसी आरक्षण का मुद्दा भी गर्माया। ओबीसी मुद्दे पर रामजी महाजन आयोग की रिपोर्ट को आधार बनाकर सुप्रीम कोर्ट में आज से सुनवाई शुरू हो चुकी है। ओबीसी को सत्ताइस प्रतिशत आरक्षण देने पर अब रोज सुनवाई होने का फैसला हुआ है। इस मुद्दे पर राज्य सरकार ने दलील रखी है कि ओबीसी को पचास प्रतिशत की सीमा तोड़ने के लिए सरकार ने असाधारण परिस्थितियों का सहारा लिया है। रामजी महाजन की रिपोर्ट और उससे जुड़ी डिटेल्स पर अलग से चर्चा होगी। फिलहाल आपको बताते हैं कि इसके बाद से क्या-क्या हुआ।
इस मुद्दे पर सरकार, खासतौर से सीएम मोहन यादव को सोशल मीडिया पर जमकर ट्रोल किया गया। ट्विटर पर भस्मासुर मोहन यादव, राम द्रोही मोहन यादव और सामान्य वर्ग भाजपा छोड़ो जैसे ट्रेंड्स तक चलाए गए। एक से दो अक्टूबर के बीच ट्विटर पर ये हैशटैग ट्रेंड होते रहे। न सिर्फ ट्विटर पर बल्कि फेसबुक पर भी इससे जुड़े पोस्ट नजर आए। जिसमें सवर्ण मंत्रियों को भी निशाने पर लिया गया है।
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सीएम के खिलाफ सवर्ण समाज को भड़काने की कोशिश
इन ट्रेंड्स से ये तो साफ जाहिर हो गया कि सीएम के खिलाफ सवर्ण समाज को भड़काने की पूरी कोशिश हो रही है। ये मामला बिलकुल नया नहीं है। इससे पहले जुलाई माह में ऐसा ही मामला देखने को मिला था। तब सीएम मोहन यादव ने भिंड के युवाओं के नाम एक स्पीच दी थी। उस स्पीच में उन्होंने फ्लो-फ्लो में पंडित शब्द का इस्तेमाल किया था।
इसके बाद सवर्ण समाज के कुछ लोगों ने डिप्टी सीएम राजेंद्र शुक्ल के बंगले पर पहुंचकर ज्ञापन सौंपा था और सीएम के बयान को स्पष्ट करने की मांग भी की थी। जबकि आप बयान सुनेंगे तो शायद ही ये अंदाजा लगा सकें कि उसमें किसी समाज के खिलाफ कोई टिप्पणी की गई हो।
सीएम मोहन यादव को सोशल मीडिया पर किया ट्रोल
ये दो घटनाएं ये तो साफ इशारा करती हैं कि सीएम के बयानों के बहाने या किसी भी मुद्दे के बहाने उन्हें लगातार सवर्ण समाज के निशाने पर लाने की कोशिश जारी है। इससे ये भी जाहिर होता है कि उन्हें किसी सियासी चक्रव्यू में उलझाने की कोशिश जारी है। पर चिंताजनक बात ये है कि खुद सीएम हाउस में ऐसे लोगों की फौज तैनात है जो इस इल या निगेटिव पब्लिसिटी का काउंटर करने के लिए ही रखी गई है।
जब सीएम को सोशल मीडिया पर अलग-अलग हैशटैग के तहत इस तरह ट्रोल किया गया तब वो टीम क्या कर रही थी। एक और दो अक्टूबर यानी दो दिन ट्रेंड लगातार जारी रहा और वो टीम क्या हाथ पर हाथ धरकर बैठी रही। या चुपचाप उन ट्वीट्स को पढ़ती रही और बेबस बनी रही। हालांकि, इसके बाद सोशल मीडिया के उन यौद्धाओं ने सीएम के पक्ष में फैक्ट चैक करने की कोशिश जरूर की, लेकिन उसका क्या स्तर रहा। ये भी आप देख सकते हैं।
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शिवराज के माइका लाल वाले बयान से मिली थी हार
तो सवाल ये है कि सीएम को किस-किस से निपटना है। एक तो वो हिडन एनेमी, जिसे तलाशना जरूरी है जो लगातार सवर्णों को उकसाने की कोशिश में लगा है। ये कोई एक शख्स का काम नहीं लगता हो सकता है इसके पीछे कोई लॉबी सक्रिय हो।
इसके अलावा सीएम की खुद की मीडिया और सोशल मीडिया टीम। जो इस मसले को ठीक तरह से हैंडल नहीं कर पाई। क्योंकि इस मामले को हलके में लेना बीजेपी की गली की फांस बन सकता है। साल 2018 में तत्कालीन सीएम शिवराज सिंह चौहान के माइका लाल वाले बयान ने पार्टी को जो दर्द दिया था वो दर्द शायद अब तक बीजेपी भूली नहीं होगी। जिसकी वजह से 2018 में पार्टी को हार का मुंह भी देखना पड़ा था।
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देश के और राज्यों में भी चल रहा है वर्ग संघर्ष
एक पहलू ये भी है कि क्या मध्यप्रदेश अब वर्ग संघर्ष के मुहाने पर आकर खड़ा हो गया है। क्योंकि सवर्ण वर्सेज दलित या ओबीसी की अलावा हिंदी मुस्लिम को लेकर भी खुद बीजेपी के नेता ही आगे आकर नेतागिरी कर रहे हैं। जिसका ताजा उदाहरण एकलव्य गौड़ हैं। जिन्होंने इंदौर के एक बाजार के लिए ये फरमान जारी कर दिया कि वहां मुस्लिम कर्मचारियों को काम दिया जाए। जिसके बाद से इंदौर का माहौल भी गर्माया हुआ है। वर्ग संघर्ष के कुछ गंभीर मामले में मार्च माह में भी सुनाई दिए थे। हिंदू वर्सेज मुस्लिम और दलित वर्सेज सवर्ण का संघर्ष सिर्फ एमपी ही नहीं देश के और भी राज्यों में चलता ही आया है।
लेकिन इस संघर्ष को सवर्ण वर्सेज सीएम का नरेटिव देने की कोशिश पहली बार दिख रही है। इस विषय पर गंभीरता से कदम उठाते हुए सीएम और उनकी पूरी टीम को इस चक्रव्यू को भेदने की पुरजोर कोशिश में बिना देर किए जुट जाना जरूरी हो गया है।