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Photograph: (THESOOTR)
NEWS STRIKE (न्यूज स्ट्राइक) : मध्यप्रदेश राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले दिग्विजय सिंह की सियासी जमीन इन दिनों जरा हिली हुई है। एक तरफ ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ दूरियां नजदीकियों में बदल रही हैं तो दूसरी तरफ दोस्त ही दुश्मनी पर अमादा हो रहे हैं। कांग्रेस नेताओं ने ही पिछले दिनों उनके साथ जो कुछ किया उससे दिग्विजय सिंह का दिल तो जरूर टूटा होगा, लेकिन राजनेता का कोई कदम यूं ही नहीं होता।
अगर दिग्विजय और सिंधिया हर गिले शिकवे मिटा कर नजदीक आए हैं तो उसकी कोई वजह तो जरूर होगी और दिग्विजय सिंह भी अगर अपनी ही पार्टी के भीतर खिलाफत झेलकर भी ये नया याराना निभा रहे हैं तो इसके पीछे भी कोई बड़ा सियासी मकसद भी होगा ही। अगर मैं ये कहूं कि सिंधिया के लिए दिग्गी जरूरी हैं तो दिग्विजय को भी सिंधिया की उतनी ही जरूरत है।
दिग्विजय का पार्टी को लोग ही कर रहे विरोध
कांग्रेस में दिग्विजय सिंह उन गिनती के नेताओं में से एक बचे हैं जिनका होल्ड पूरे प्रदेश में रहा हो। ग्वालियर चंबल ही नहीं बुंदेलखंड, महाकौशल, विंध्य तक में दिग्विजय सिंह की अच्छी पकड़ रही है। मालवा भी उन्हीं में से एक है। दिग्विजय सिंह इस क्षेत्र पर भी अच्छी पकड़ रखते हैं, लेकिन कुछ ही दिन पहले उन्हें इंदौर में अपनी ही पार्टी के लोगों से विरोध का सामना करना पड़ा। मामला शीतला माता बाजार से मुस्लिम कर्मचारियों को बाहर निकालने का था।
एकलव्य गौड़ के फरमान पर सीतलामाता बाजार में ये मुहिम शुरू हो भी गई थी। जिसके खिलाफ कई कर्मचारी सड़क पर भी उतरे। उन कर्मचारियों का साथ देने दिग्विजय सिंह भी जाने वाले थे, लेकिन उनके इस फैसले के खिलाफ खुद पार्टी अध्यक्ष जीतू पटवारी नजर आए।
शहर कांग्रेस अध्यक्ष चिंटू चौकसे ने भी कहा कि बड़े या छोटे नेता या कार्यकर्ता ही क्यों न हो। किसी भी मुद्दे पर आवाज उठाने से पहले उन्हें संगठन से सहमति लेना चाहिए। कोई भी नेता आए और बोले कि उसे यहां जाना है वहां जाना है तो उसे जिला अध्यक्ष से चर्चा करनी चाहिए। इस पूरे बयान में चिंटू चौकसे ने किसी नेता का नाम नहीं लिया, लेकिन ये माना जा रहा है कि उनके निशाने पर दिग्विजय सिंह ही थे।
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इधर बढ़ी नजदीकियां... उधर हुआ विरोध
ये मामला कांग्रेस की आम गुटबाजी या कलह से जरा हटकर है। क्योंकि, दिग्विजय सिंह पूरे प्रदेश के सर्वमान्य कांग्रेस नेता कहे जा सकते हैं। जिनके ऐसे फैसलों पर आमतौर पर इस तरह से विरोध नहीं होता है, लेकिन दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया की नजदीकियां बढ़ने के बाद दिग्गी राजा का विरोध खुलकर नजर आ रहा है। तो क्या ये मान लिया जाए कि ये नया याराना कांग्रेसियों की आंख में खटक रहा है। खटकना लाजमी भी है।
जिस तरह 2020 में सिंधिया ने दलबदल किया और कांग्रेस की सरकार गिराई। उसके बाद से हर कांग्रेसी के मन में सत्ता से बेदखल होने की टीस रही ही होगी। खुद दिग्विजय सिंह भी उस टीस के शिकार हुए थे। सिंधिया के दल बदल के बाद उन पर तंज कसने वालों में दिग्विजय सिंह भी एक थे, लेकिन पिछले कुछ दिनों से उनके सुर बदले हुए हैं।
आपको याद ही होगा कि एक कार्यक्रम में सिंधिया मंच से उतरकर आए और दिग्विजय सिंह को अपने साथ मंच पर ले गए। उस वक्त शायद ये राजनीति की एक खूबसूरत तस्वीर लगी हो। असल मायनों में ये राजनीति की बहुत गहरी तस्वीर है। जिसे समझने के लिए आप को ग्वालियर चंबल की राजनीति में गोते लगाने होंगे।
दिग्विजय सिंह के कार्यकर्ताओं की लंबी लाइन
सिंधिया जब तक कांग्रेस में थे। तब तक ग्वालियर चंबल में उनकी पकड़ बहुत मजबूत थी। पूरे ग्वालियर चंबल के टिकट, जिलाध्यक्ष और यहां तक कि छोटे से छोटा पदाधिकारी भी सिंधिया की मर्जी से ही रखा जाता था। एक तरह से पूरे ग्वालियर चंबल की राजनीति पर महल हावी रहता था। यही हाल दिग्विजय सिंह का भी था। जो न सिर्फ ग्वालियर चंबल की राजनीति में दखल रखते थे बल्कि पूरे प्रदेश में उनकी अच्छी पकड़ी थी।
कांग्रेस में तो ये आज तक कहा जाता रहा है कि दिग्विजय सिंह प्रदेश के किसी भी कोने में हों। उनके सामने कार्यकर्ताओं की लाइन सबसे ज्यादा लंबी होती है। सिंधिया की मौजूदगी में भी दिग्विजय सिंह ग्वालियर चंबल में दखल रखते थे। पर दोनों की हद चंद सियासी मतभेदों के अलावा तय थीं।
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सिंधिया के लिए पुरानी दोस्ती रखना ही सही
सिंधिया के दल बदल करते ही हालात तेजी से बदले। पार्टियों के लिए तो बदले ही सिंधिया और दिग्विजय दोनों की राजनीति पर भी इसका असर पड़ा। कांग्रेस में रहकर ग्वालियर चंबल पर राज करने वाले सिंधिया को अब बीजेपी के पुराने दिग्गजों से दो चार होना पड़ता है। हाल ही में जैसे मुरैना में रैली निकाली थी। वैसी रैली निकालकर शक्ति प्रदर्शन भी करना पड़ता है।
भाजपाई दिग्गज ही नहीं कुछ पुराने बीजेपी कार्यकर्ता भी सिंधिया की सियासी मुश्किलें बढ़ाते हैं। इसलिए उन्हें ऐसा कोई नेता चाहिए था जिसके साथ मिलकर वो ग्वालियर चंबल की राजनीति में जड़ें वापस पहले जैसी मजबूत कर सकें। शायद ये विकल्प दिग्विजय सिंह के रूप में नजर आया होगा। जो गुना राघोगढ़ में खासी पकड़ रखते हैं।
सिंधिया की लोकसभा सीट भी गुना शिवपुरी ही है। यहां दिग्विजय सिंह ने अगर उनकी खिलाफत बंद कर दी और बैक डोर से सपोर्ट किया या न्यूट्रल भी हो गए तो सिंधिया बड़ी जंग जीत जाएंगे। उनकी राह आसान होगी। शायद इसलिए उन्हें अपने इस पुराने साथी से दोस्ती बनाकर रखना मुनासिब लग रहा है।
महल की राजनीति करने वालों के बदलते तेवर
अब दिग्विजय सिंह की राजनीति की बात करते हैं। ग्वालियर चंबल के जानकार बताते हैं कि सिंधिया के दल बदल के बाद दिग्विजय सिंह और उनके बेटे जयवर्धन दोनों ने ग्वालियर चंबल में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया।
2018 के चुनाव से पहले जयवर्धन के न्योते पर सिंधिया राघोगढ़ के किले में गए थे, लेकिन फिर दूरियां इतनी बढ़ीं कि दल बदल के बाद सिंधिया दिग्गी के करीबी हीरेंद्र सिंह को बीजेपी ले गए। इससे तिलमिलाए जयवर्धन ने सिंधिया की खिलाफत पर अमादा कांग्रेस विधायक प्रवीण पाठक का खूब जमकर साथ दिया।
बीजेपी अध्यक्ष रहते हुए प्रभात झा सिंधिया पर कई आरोप लगाया करते थे। सिंधिया खुद बीजेपी में गए तो उन आरोपों को लगाने का जिम्मा प्रवीण पाठक ने संभाला। कहा जाता है कि जयवर्धन हमेशा उन्हें पीछे से सपोर्ट करते रहे। पर अब हालात फिर बदल रहे हैं, अब महल विरोधी राजनीति करने वाले दिग्विजय सिंह फिर महाराज के सामने नतमस्तक न सही, लेकिन सिर झुकाकर जरूर खड़े हैं।
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ग्वालियर चंबल विधानसभा चुनावों पर एक नजर...
इन बदलते समीकरणों के पीछे बड़ी वजह भी है। ग्वालियर चंबल में दिग्विजय सिंह के सहारे सिंधिया अपनी सियासत साधना चाहते हैं तो दिग्विजय सिंह भी अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करना चाहते हैं। राघोगढ़ की सीट पर कब्जा जमाए रखने के लिए दिग्विजय सिंह को सिंधिया की जरूरत होगी। इसे और गहराई से समझना है तो पिछले विधानसभा चुनावों के नतीजों पर नजर डालिए।
2013 के चुनाव में जयवर्धन को 98 हजार से ज्यादा वोट्स मिलते जबकि बीजेपी प्रत्याशी राधेश्याम धाकड़ को 39 हजार 837 वोटों के साथ हार का मुंह देखना पड़ा। 2018 के चुनाव में भी जीत का मार्जिन काफी ज्यादा था। जयवर्धन को 98 हजार से ज्यादा वोट मिले थे, जबकि बीजेपी के भूपेंद्र सिंह रघुवंशी को 51 हजार 571 वोट मिले थे।
2023 में जयवर्धन को टफ कॉम्पिटीशन का सामना करना पड़ा। कई हजार वोट्स के जीत का मार्जिन सिर्फ तीन से चार हजार वोट्स का रह गया। इस साल जयवर्धन को 94 हजार 803 वोट्स मिले, जबकि बीजेपी प्रत्याशी को 90 हजार 834 वोट्स मिले। दिलचस्प बात ये थी कि उन्हें टक्कर देने वाले कभी उनके बेहद करीबी रहे हीरेंद्र सिंह ही थे। इस नतीजे ने शायद दिग्विजय सिंह को भी ये समझा दिया कि ग्वालियर चंबल की राजनीति करनी है तो आपस में लड़ने से कुछ नहीं होगा।
कमलनाथ के खिलाफ भी दिग्विजय दे चुके हैं बयान
अपने बेटे के सियासी भविष्य की खातिर दिग्विजय सिंह ने सिंधिया का हाथ थामना ही बेहतर समझा। फिर भले ही इसके लिए उन्हें अपने पुराने मित्र कमलनाथ के खिलाफ ही बयान क्यों न देने पड़े हों। सिंधिया के साथ-साथ हाथ में हाथ डालकर जाने के बाद कमलनाथ के लिए दिग्विजय सिंह क्या-क्या बयान दे चुके हैं। ये हम आप को न्यूज स्ट्राइक की उस खबर में बता चुके हैं। अगर आपने अब तक वो बयान नहीं पढ़े हैं तो उस खबर को पढ़ सकते हैं।
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फिलहाल तो एक रहेंगे सेफ रहेंगे का रास्ता ही ठीक...!
सिंधिया से दोस्ती बढ़ाने का ये कतई मतलब नहीं कि दिग्विजय सिंह भी कभी दल बदल कर सकते हैं। हालांकि, राजनीति में कब क्या हो जाए कहा नहीं जा सकता। पर दिग्विजय सिंह की कांग्रेस के प्रति निष्ठा पर हम कोई सवाल नहीं उठा रहे हैं। वो पक्के कांग्रेसी हैं और शायद हमेशा रहेंगे। उसी तरह अब सिंधिया भाजपाई हो चुके हैं। उनकी फिलहाल कांग्रेस में वापसी की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती है।
अपनी-अपनी पार्टी के दोनों सूरमाओं को ये समझ में जरूर आ गया है कि लड़ाई से अपना ही नुकसान है। एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे। प्रदेश का तो पता नहीं पर कम से कम ग्वालियर चंबल में अपनी और अपने बच्चों की सियासी जमीन को भी सेफ कर पाएंगे।