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Photograph: (THESOOTR)
सत्ता पाने की चाहत में क्या कांग्रेस नई बीजेपी बनने जा रही है। वो भी कुछ आधी अधूरी सी। भोपाल आए राहुल गांधी ने कांग्रेस को मंत्र तो नए नए दिए हैं। आश्वासन भी ढेर सारे दिए हैं, लेकिन क्या वाकई उनकी बात पूरी हो सकी है। कांग्रेस के संगठन को नए सिरे से डिफाइन करने का जो सिस्टम उन्होंने तैयार किया है क्या वो ऐसा सिस्टम खड़ा कर सकता है जो बीजेपी को टक्कर दे सके।
राहुल गांधी के दौरे से जुड़ी बहुत सी बातें आप अब तक खबरों में पढ़ या सुन चुके होंगे, लेकिन उसे गहराई से समझ लेना जरूरी है। इसलिए इस वीडियो को ध्यान से देखिए और समझिए राहुल गांधी ने कहां-कहां बीजेपी की नकल की है, लेकिन वो नकल किस मायने में अधूरी रह गई है।
राहुल गांधी के दौरे का गहराई से विश्लेषण जरूरी
एक बहुत पुरानी कहावत है कौआ चला हंस की चाल, लेकिन अपनी चाल ही भूल गया। ये स्पष्ट कर दें कि हम यहां किसी पार्टी को हंस या कौए से कंपेयर नहीं कर रहे हैं सिर्फ सिचुएशन क्या है वो समझाने की कोशिश में हैं। कांग्रेस बीजेपी की तरह मजबूत संगठन तो खड़ा करने पर अमादा हो चुकी है, लेकिन नए मंत्र से काम सिर्फ फिफ्टी परसेंट ही बनेगा। इसलिए कांग्रेस बीजेपी की तरह मजबूत संगठन भी न बना सके और पुराना बना बनाया काम भी बिगड़ जाए।
इस बात को समझने के लिए राहुल गांधी के दौरे का गहराई से विश्लेषण करना जरूरी है। हम आपको उनकी एक-एक बात बताते हैं उसका आंकलन भी करते हैं और बताते हैं कि चूक कहां हुई है।
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राहुल गांधी बोले- लंगड़े घोड़ों को रिटायर हो जाना चाहिए
राहुल गांधी की एक बात कई जगह हैडलाइन के रूप में छपी है। उन्होंने भोपाल की बैठक में तीन तरह के घोड़े बताए। एक दौड़ने वाला घोड़ा। एक बारात वाला घोड़ा और एक लंगड़ा घोड़ा। उन्होंने ये भी कहा कि अक्सर टिकट बारात वाले घोड़े को मिल जाता है। इसलिए पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ता है। वो ये साफ कर गए कि टिकट तो रेस में दौड़ने वाले घोड़े को ही मिलना चाहिए। बारात वाले घोड़ों की असल जगह संगठन है और लंगड़े घोड़ों को रिटायर हो जाना चाहिए।
कांग्रेस के वो कौन से घोड़े हैं जिन्हें राहुल गांधी लंगड़ा मान कर रिटायर होने की सलाह दे रहे थे। ये उन्होंने मीटिंग में स्पष्ट नहीं किया। लेकिन उनका इशारा समझ पाना मुश्किल नहीं है। खैर राहुल गांधी ने नाम नहीं लिया तो हम भी नाम की डिटेलिंग में नहीं जाएंगे। हम बात करेंगे रिटायरमेंट की परंपरा की।
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राजनीति में रिटायरमेंट की परंपरा शुरू करने वाली पार्टी बीजेपी
कहा जाता है कि एक पॉलीटिशियन कभी रिटायर नहीं होता। हो सकता है कि उसके पास कोई पद न हो। वो राजनीतिज्ञ हमेशा बना रहा है, लेकिन अब एक उम्र के बाद रिटायरमेंट ले लेना नेताओं की मजबूरी बन जाएगी। राजनीति में रिटायरमेंट की परंपरा शुरू करने वाली पार्टी भी बीजेपी ही है। जिसने अपने पुराने हो चुके या थक चुके नेताओं को रिटायर करना शुरू किया था।
इस कड़ी में बाबूलाल गौर, कुसुम मेहदेले, सुमित्रा महाजन, अनूप मिश्रा और रघुनंदन शर्मा जैसे कुछ नाम हैं जो राजनेता तो हमेशा कहलाएंगे, लेकिन एक्टिव पॉलिटिक्स से रिटायर हो चुके हैं। जिन नेताओं पर रिटायरमेंट का टैग लगा उन्हें संगठन में भी कोई अहम जिम्मेदारी नहीं मिल सकी।
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कांग्रेस को अपने घोड़े दौड़ाना है तो अस्तबल करना होंगे व्यवस्थित
अब कांग्रेस भी इसी तर्ज पर आगे बढ़ रही है और पुराने नेताओं को या बमुश्किल एक्टिव नेताओं को रिटायर कर रही है, लेकिन ये काम कुछ अधूरा सा है, क्योंकि पुराने नेताओं से तो पीछा छुड़ा लिया जाएगा। पुराने नेताओं से सिर्फ बीजेपी में कन्नी नहीं काटी गई, बल्कि साथ ही साथ नई लीडरशिप भी तैयार की गई है और संगठन में भी कसावट लाई गई है।
कांग्रेस को अगर अपने रेस के घोड़ों को भी तेज दौड़ाना है तो संगठन के अस्तबल को भी व्यवस्थित और कसा हुआ रखना होगा वर्ना ये कवायद किसी काम नहीं आएगी।
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जिलाध्यक्षों की नियुक्ति में नहीं चलेगी अध्यक्ष की मोनोपॉली
वैसे कांग्रेस ने इस तरफ कुछ पहल तो की है। जिलाध्यक्षों की तैनाती की नई व्यवस्था शुरू करके। अब तक प्रदेश का अध्यक्ष ही जिलाध्यक्ष चुनता था, लेकिन राहुल गांधी ने ये साफ कर दिया कि अब जिलाध्यक्षों की नियुक्ति में अध्यक्ष की मोनोपॉली नहीं चलेगी। बल्कि अब कार्यकर्ता इस काम में अहम भूमिका अदा करेंगे। कांग्रेस ने गुजरात मॉडल को मध्यप्रदेश में भी अपनाया है।
जिस तरह वहां जिलाध्यक्षों की नियुक्ति कार्यकर्ताओं की सहमति से हुई उसी तरह अब मध्यप्रदेश में भी ऐसा ही करने की तैयारी है। कांग्रेस को यकीनन ये उम्मीद होगी कि इस तरह पार्टी के स्लीपर सेल का सफाया हो सकेगा।
नई लीडरशिप में होना चाहिए नेता की सारी क्वालिटी
कांग्रेस ने जिलाध्यक्षों की नियुक्ति के लिए क्राइटेरिया भी फिक्स किया है। ये किसी नेता के चमचे नहीं होंगे। बल्कि जिले में सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक रूप से सही पकड़ रखने वाले लोग होंगे। मैसेज बिलकुल साफ देने की कोशिश की गई है कि नई लीडरशिप में वो सारी क्वालिटी होना चाहिए जो लोग अपने नेता में देखना चाहते हैं। लेकिन युवा पीढ़ी को लाना क्या इतना आसान होगा।
क्या कांग्रेस इस काम में थोड़ा लेट नहीं हो चुकी है। कांग्रेस के सामने चैलेंज ही अपनी गुटबाजी और पट्ठा वाद से निपटने का है। जिससे निपटने के लिए कांग्रेस ने तैयारी ठीक ठाक की है। राहुल गांधी की बैठकों से आगाज भी बेहतर ही हुआ है। अब देखना ये है कि कांग्रेस की इन तैयारियों को उसे क्या सिला मिलता है।
News Strike | News Strike Harish Divekar | न्यूज स्ट्राइक | न्यूज स्ट्राइक हरीश दिवेकर
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