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रायपुर : वनों का प्रदेश कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ की हरियाली पर खतरा मंडरा रहा है। पिछले एक दशक में जिस तरह से उद्योगपतियों की नजर छत्तीसगढ़ पर पड़ी है जिससे यह प्रदेश औद्योगिक परियोजनाओं का गढ़ बनता जा रहा है। छत्तीसगढ़ के वनों के पेड़ कट रहे हैं तो खनिजों को बेतहाशा खोदा जा रहा है।
उद्योगपति यहां की संपदा को तो लूट रहे हैं लेकिन इस पर्यावरण पर खर्च को लेकर बेहद कंजूस हैं। पिछले 9 सालों में पर्यावरण के लिए सीएसआर यानी कार्पोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी के फंड से सिर्फ 19 करोड़ रुपए सालाना खर्च हुए हैं। सवाल यही है कि ऐसे में कैसे बचेंगी छत्तीसगढ़ की हरियाली।
जंगल खत्म-मुनाफा कायम
छत्तीसगढ़ का जंगल खत्म हो रहा है और उद्योगपतियों का मुनाफा बढ़ता जा रहा है। छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के लोग कहते हैँ कि अडानी, जिंदल, मित्तल,बिड़ला जैसे उद्योगपति छत्तीसगढ़ की संपदा को लूट रहे हैं। कोयले के लिए अडानी की आरी हसदेव के पेड़ों पर चल रही है। रायगढ़ के तमनार में जबरिया पेड़ काटे जा रहे हैं।
यहां के आदिवासी और पशु पक्षियों पर अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। आदिवासी कहते हैँ सरकार उद्योगपतियों के साथ खड़ी है और बिना ग्राम सभा की अनुमति के पेड़ काटे जा रहे हैं। इस हरियाली के संकट ने छत्तीसगढ़ को आंदोलन की आग में झोंक दिया है।
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खनन से उजड़ते जंगल
छत्तीसगढ़ जो कभी अपनी घने वनों और जैव विविधता के लिए जाना जाता था, आज तेजी से खनन और औद्योगिकीकरण का गढ़ बनता जा रहा है। बीते 9 सालों में राज्य में खनन और अन्य बड़े निर्माण कार्यों के चलते भारी मात्रा में जंगलों का नुकसान हुआ है। चिंताजनक बात यह है कि इन परियोजनाओं के कारण जितना पर्यावरण को नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई के लिए कॉर्पोरेट सेक्टर के कदम बेहद सीमित रहे हैं।
CSR यानी कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के तहत बीते 9 सालों में केवल 171 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। जो पर्यावरण संरक्षण के लिए बहुत ही कम माने जा रहे हैं। उद्योगों की बढ़ती गतिविधियाँ जंगलों को निगल रही हैं और वन्य जीवों का प्राकृतिक आवास भी तेजी से समाप्त हो रहा है।
यदि यही रफ्तार जारी रही तो आने वाले वर्षों में पर्यावरणीय संकट और अधिक गंभीर हो जाएगा। वनों पर खासतौर पर चार मदों में राशि खर्च की जाती है और यह राशि सीएसआर के जरिए उद्योगों से वसूली जाती है। इसमें पर्यावरण संरक्षण, प्राकृतिक संसाधन संरक्षण,कृषि वानिकी और पर्यावरणीय स्थिरता शामिल हैं।
एक दशक में पर्यावरण पर खर्च राशि
पर्यावरण संरक्षण पर खर्च - 171 करोड़
प्राकृतिक संसाधन संरक्षण पर खर्च - 2.63 करोड़
कृषि वानिकी पर खर्च - 70 लाख रुपए
पर्यावरणीय स्थितरता पर 168 करोड़ रुपए जरुर खर्च हुए हैं लेकिन साल 2017-18 में ही 54 करोड़ रुपए खर्च हुए। बाकी सालों में बहुत कम खर्च हुआ।
सिर्फ पर्यावरण नहीं पूरे जीवन पर संकट
छत्तीसगढ़ में कई बड़े खनन प्रोजेक्ट चल रहे हैं जिनमें कोयला, लोहा और बॉक्साइट खनन प्रमुख हैं। इन परियोजनाओं के तहत हजारों एकड़ जंगलों की कटाई की जा चुकी है। हालाँकि नियमों के अनुसार कंपनियों को पर्यावरणीय नुकसान की भरपाई के लिए कम्पेन्सेटरी अफॉरेस्टेशन यानी उतने अनुपात में पेड़ लगाना जरुरी है। लेकिन कई मामलों में यह केवल कागजों तक ही सीमित रह गया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि जंगलों का जो नुक़सान हुआ है, वह सिर्फ आर्थिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि मानवीय जीवन के नजरिये से भी बहुत चिंताजनक है। जंगल न केवल पेड़ों का समूह होते हैं, बल्कि वे जीवनदायिनी हवा, जलचक्र का संतुलन और जैव विविधता को भी बनाए रखते हैं। जंगल कटने का असर सिर्फ वन्य जीवों पर ही नहीं पड़ता, बल्कि पूरे पर्यावरण तंत्र पर प्रभाव डालता है। जिससे मानवीय जीवन भी प्रभावित होता है।
एक्सपर्ट कहते हैं कि जब कंपनियों को परियोजनाओं की अनुमति दी जाती है, तो राज्य सरकारें या पर्यावरण मंत्रालय यह सुनिश्चित क्यों नहीं करते कि वे समय पर और प्रभावी ढंग से पर्यावरण संरक्षण करें। जब वन और जैव विविधता का विनाश होता है, तब उसका असर स्थानीय जलवायु, वर्षा के पैटर्न, कृषि उत्पादन और यहाँ तक कि लोगों के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।
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