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हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस रवींद्र कुमार अग्रवाल की खंडपीठ ने एक पुलिस कांस्टेबल की अनिवार्य सेवानिवृत्ति को खारिज कर दिया है क्योंकि सजा अनुपातहीन थी। कोर्ट ने कहा है कि अनुशासनात्मक अधिकारियों को कांस्टेबलों पर बड़ा दंड लगाने से पहले पुलिस विनियमन के विनियमन 226 के तहत दिए गए कम दंड पर विचार करना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि बर्खास्तगी अंतिम उपाय होनी चाहिए और तब तक नहीं की जानी चाहिए जब तक कि अन्य सभी उपाय विफल न हो जाएं।
याचिका के मुताबिक रामसागर सिन्हा बिलासपुर के सकरी में कांस्टेबल थे। 31 अगस्त 2017 को महत्वपूर्ण शिविर सुरक्षा ड्यूटी करने से उन्होंने इंकार कर दिया। अधिकारियों ने लापरवाही बरतने पर उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया। इसके खिलाफ हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर की गई। इसे सिंगल बेंच ने खारिज कर दिया। इस फैसले को डीबी में चुनौती दी गई।
इसमें तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता 56 वर्ष की आयु में अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद एक कट्टर नक्सल क्षेत्र में तैनात थे, जिसके कारण वे 24 जुलाई 2017 को ड्यूटी पर रिपोर्ट नहीं कर पाए। इसके साथ ही जांच समिति ने स्वास्थ्य संबंधी जांच भी ठीक से नहीं की। याचिका में कहा गया कि याचिकाकर्ता कांस्टेबल के निम्नतम पद पर कार्यरत थे, इसलिए कथित कदाचार के लिए उचित सजा चेतावनी होती, न कि अनिवार्य सेवानिवृत्ति ।
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कोर्ट ने की आरोप-पत्र की जांच की जांच
शासन की ओर से मामले में जवाब देते हुए एडवोकेट संघर्ष पांडे ने कहा कि विभागीय जांच के दौरान याचिकाकर्ता को पर्याप्त अवसर दिया गया था। उन्होंने तर्क दिया कि सिन्हा ने जानबूझकर अपने वरिष्ठ अधिकारियों के आदेशों का उल्लंघन किया, जबकि सशस्त्र बलों के सदस्य के रूप में उनसे उच्च अनुशासन की अपेक्षा की जाती थी। शासन ने कहा कि सजा कदाचार के अनुपात में थी, और सिंगल बेंच के फैसला सही थी।
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एकल न्यायाधीश ने सही ढंग से रिट याचिका को खारिज कर दिया था। सुनवाई के दौरान डीबी ने पहले आरोप-पत्र की जांच की और पाया कि आरक्षक पर आदेशों की अवहेलना करने का आरोप लगाया गया था, लेकिन उन्होंने शारीरिक अस्वस्थता और अक्षमता को कारण बताया था। हाईकोर्ट की डीबी ने कहा कि बर्खास्तगी अंतिम उपाय होनी चाहिए और तब तक नहीं की जानी चाहिए जब तक कि अन्य सभी उपाय विफल न हो जाएं।
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