छत्तीसगढ़ के बलौदाबाजार जिले के पलारी तहसील का छोटा-सा गांव देवसुंद्रा आज एक मिसाल बन गया है। यहां की मिट्टी में धान की खुशबू के साथ-साथ इंसानियत की सौंधी महक भी बस गई है, जो सरकारी योजनाओं की कागजी चकाचौंध में कहीं खो गई थी। यह कहानी है 70 साल की टेटकी बाई और उनके मानसिक रूप से अस्वस्थ बेटे चिंताराम की, जिनके टूटे-फूटे आशियाने को गांव वालों ने अपने दिलों की गर्माहट से फिर से एक ‘घर’ बना दिया। लेकिन यह कहानी सिर्फ एक घर की नहीं, बल्कि उस व्यवस्था पर तीखा कटाक्ष है, जो कागजों पर तो वाहवाही लूटती है, मगर जरूरतमंदों तक पहुंचने में सुस्ती दिखाती है।
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टपकती छत था उनका ‘घर’
टेटकी बाई और चिंताराम का जीवन एक ऐसी किताब है, जिसके हर पन्ने पर सिर्फ संघर्ष और उपेक्षा लिखी है। टूटी दीवारें, उड़ा हुआ छप्पर, और बारिश में टपकती छत यह उनका ‘घर’ था, जो नाम का घर था। दो वक्त की रोटी के लिए पीडीएस का 35 किलो चावल ही उनकी जिंदगी का सहारा था। कई रातें भूखे पेट, कई दिन बिना छांव के यह थी उनकी हकीकत। सरकारी योजनाएं प्रधानमंत्री आवास, वृद्धावस्था पेंशन, उज्ज्वला गैस, महतारी वंदन कागजों पर तो चमक रही हैं, लेकिन टेटकी बाई के दरवाजे तक कोई नहीं पहुंचा। आंधी ने जब उनका छप्पर उड़ा दिया, तब सरकार की नींद नहीं टूटी, मगर गांव का दिल जाग उठा।
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एकजुट हो जाएं तो बदल सकती है एक जिंदगी
इस अंधेरे में एक किरण बनकर आए वेदप्रकाश वर्मा, एक साधारण मोटरसाइकिल मिस्त्री, जिसका दिल सोने से कम नहीं। उन्होंने न सिर्फ टेटकी बाई की तकलीफ देखी, बल्कि उस तकलीफ को दूर करने की ठान ली। वेदप्रकाश ने अपनी कमाई से 50 हजार रुपये देकर निकाला और टेटकी बाई का मकान बनवाने के लिए अभियान शुरू किया।
इंटरनेट मीडिया के माध्यम से पहले गांव वालों को जोड़ा फिर उनसे अपील की कि “एकजुट हो जाएं, तो एक घर बन सकता है, एक जिंदगी बदल सकती है।” बस, फिर क्या था! किसान, मजदूर, दुकानदार, और युवा-सब ने थोड़ा-थोड़ा हाथ बढ़ाया। देखते-देखते 1,30,000 रुपये इकट्ठा हो गए, और अब टेटकी बाई के लिए एक पक्का घर बन रहा है-ईंट, सीमेंट और छत के साथ, जहां बारिश का डर नहीं, जहां रातें सुकून की होंगी।
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फाइलों में दबकर रह जाती है संवेदनशीलता
यह कहानी सिर्फ एक घर की नहीं, बल्कि उस संवेदनशीलता की है, जो सरकारी फाइलों में दबकर रह जाती है। जब योजनाएं सबसे जरूरतमंद तक नहीं पहुंचतीं, तब सवाल उठता है- क्या ये योजनाएं सिर्फ वोट की फसल काटने के लिए हैं? टेटकी बाई और चिंताराम जैसे लोग आखिर क्यों सरकारी ‘विकास’ के रंगीन सपनों से वंचित रह जाते हैं? लेकिन देवसुंद्रा ने दिखा दिया कि अगर सरकार चूक जाए, तो समाज अपनी जिम्मेदारी निभा सकता है। यह गांव आज सिर्फ एक घर नहीं बना रहा, बल्कि मानवता की नींव रख रहा है।
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