मध्य प्रदेश में भिक्षावृत्ति की समस्या पर अब उच्च न्यायालय ने गंभीर रुख अपनाया है। ग्वालियर खंडपीठ ने भिक्षावृत्ति को लेकर दायर जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान राज्य सरकार के कई विभागों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि कागजों पर योजनाएं बनाना पर्याप्त नहीं है; उनकी वास्तविकता में क्रियान्वयन भी जरूरी है। इसके बाद अदालत ने राज्य के 9 जिलों के कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है।
भिक्षावृत्ति निवारण अधिनियम का उद्देश्य
1973 में मध्यप्रदेश सरकार ने 'भिक्षावृत्ति निवारण अधिनियम' पारित किया था, जिसके तहत भिखारियों के लिए प्रवेश केंद्र, गरीब गृह और पुनर्वास प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करने का प्रावधान था। इसका उद्देश्य भीख मांगने को मजबूर लोगों को सम्मानजनक जीवन और आत्मनिर्भरता प्रदान करना था। हालांकि, यह योजना अभी तक कागजों पर ही सीमित है और विभागीय रिपोर्टों में दिखाई देती है।
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पुलिस प्रशासन की लापरवाही
याचिका में यह भी आरोप लगाया गया कि पुलिस प्रशासन ने भिक्षावृत्ति पर रोक लगाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं। कुछ प्रमुख शहरों जैसे इंदौर और उज्जैन को छोड़कर अन्य जिलों में न तो प्रवेश केंद्र सक्रिय हैं, न ही भिखारियों की पहचान और पुनर्वास के लिए कोई ठोस कार्यवाही की गई है।
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ग्वालियर हाईकोर्ट की नाराजगी
कोर्ट ने राज्य के 9 जिलों के कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों को नोटिस जारी किया है और उनसे जवाब दाखिल करने के निर्देश दिए हैं। इसके अलावा, सामाजिक न्याय विभाग और महिला एवं बाल विकास विभाग से भी पूछा गया कि भिक्षावृत्ति निवारण अधिनियम का अनुपालन क्यों नहीं हो रहा।
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सरकार के पास आंकड़ों की कमी
सरकार के पास यह जानकारी भी नहीं है कि 1973 से अब तक कितने भिखारियों को आत्मनिर्भर बनाया गया है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, राज्य में कुल 28,653 भिखारी थे, लेकिन इसके बाद सरकार की कोई ठोस पहल नजर नहीं आई।
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आने वाली सुनवाई
हाईकोर्ट ने सभी संबंधित अधिकारियों से विस्तृत जवाब मांगा है और अगली सुनवाई में इस मामले पर बड़ा आदेश भी दिया जा सकता है, जो भिक्षावृत्ति के खिलाफ प्रदेश में प्रभावी नीतिगत कार्रवाई को प्रेरित करेगा।