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उमरिया जिले के बलात्कार के मामले में जबलपुर हाइकोर्ट ने निचली अदालत से पारित एक फैसले को रद्द कर दिया है। इसके साथ ही हाईकोर्ट ने इस फैसले को पारित करने वाले जज और सरकारी वकील की जांच का भी आदेश दिया है। यह अपील यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) के तहत दायर संबंधित थी। इसमें अदालत ने गंभीर अनियमितताएं पाई हैं। हाइकोर्ट ने इस मामले की सुनवाई में लापरवाही बरतने पर एक विशेष न्यायाधीश और सहायक जिला अभियोजन अधिकारी (ADOP) के खिलाफ जांच के आदेश दिए हैं।
जानें क्या था मामला
साल 2020 में उमरिया जिले की एक मजदूर महिला की बेटी ने आरोप लगाए थे कि वह जिस घर के निर्माण में काम कर रही थी उसके मालिक ने उसके साथ बलात्कार किया। इसके साथ ही आरोपी के बेटे ने उसपर गर्म पानी फेका। कथित पीड़िता ने यह भी आरोप लगाए की इस घटना के बाद आरोपी की पत्नी ने उसे धमकाया भी था।
कथित पीड़िता की शिकायत पर आरोपी, उसकी पत्नी और बेटे के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 363, 366-ए, 376(2)(एन), और POCSO अधिनियम की धारा 5/6 के तहत FIR दर्ज की गई थी। मामले की जांच के दौरान पुलिस ने डीएनए रिपोर्ट प्राप्त की थी, जो 31 अक्टूबर 2022 को सागर के राज्य विधि विज्ञान प्रयोगशाला द्वारा तैयार की गई थी।
यह रिपोर्ट विशेष न्यायाधीश विवेक सिंह रघुवंशी ( Vivek Singh Raghuvanshi ) और एडीपीओ बी.के. वर्मा ( B.K. Varma ) के पास पहुंचाई गई थी। लेकिन रिपोर्ट को अनदेखा करते हुए जज ने आदेश जारी कर दिया। शासन की और से अधिवक्ता के द्वारा भी इस डीएनए रिपोर्ट को ना ही रिकॉर्ड पर लाया गया और ना ही सुनवाई के दौरान क्रॉस एग्जामिनेशन में आरोपी से इससे संबंधित कोई प्रश्न किए।
डीएनए रिपोर्ट सहित गवाह थे आरोपी के पक्ष में
जस्टिस विवेक अग्रवाल ( Vivek Aggarwal ) और जस्टिस देवनारायण मिश्रा ( Devnarayan Mishra ) की युगलपीठ में इस मामले की सुनवाई की गई। इस दौरान यह सामने आया कि डीएनए रिपोर्ट में यह साफ लिखा था कि कथित पीड़िता के अंडर गारमेंट में पुरुष का कोई भी डीएनए नहीं था। इसके अलावा सीमन स्लाइड सहित अन्य जांच में किसी भी प्रकार की चोट या बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई। वहीं पीड़िता एवं पीड़िता की मां के अदालत में हुए प्रति परीक्षण (cross examination) से यह साफ हो रहा था कि कथित पीड़िता ने मां को सिर्फ लड़ाई झगड़े की बात बताई थी।
इसके बाद गांव वालों से विचार विमर्श करने के बाद घटना के दूसरे दिन यह बलात्कार की FIR दायर की गई थी। वहीं अदालत के समक्ष यह भी तथ्य आए की कथित पीड़िता ने इसके पहले भी कई लोगों पर बलात्कार का मुकदमा दायर किया है। इसके बाद भी निचली अदालत ने इन सभी तथ्यों को दरकिनार करते हुए आरोपी के विरुद्ध आदेश पारित किया था।
जज और एडीपीओ की गंभीर लापरवाही
हाइकोर्ट ने पाया कि 14 नवंबर 2022 को डीएनए रिपोर्ट निचली अदालत में प्रस्तुत की गई थी। लेकिन विशेष न्यायाधीश ने इसे चिह्नित (exhibit) नहीं किया। साथ ही एडीपीओ ने इसे अभियोजन पक्ष की ओर से प्रस्तुत करने में लापरवाही बरती। यह गंभीर चूक तब सामने आई जब न्यायालय ने यह देखा कि अभियुक्त का बयान दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत दर्ज किया गया था। लेकिन डीएनए रिपोर्ट पर अभियुक्त से कोई सवाल नहीं पूछे गए।
हाईकोर्ट ने की सख्त टिप्पणियां
अदालत ने एडीपीओ और विशेष न्यायाधीश दोनों पर प्रथम दृष्टया लापरवाही का दोषारोपण किया। इस लापरवाही को देखते हुए अदालत ने फैसला किया कि मामले को फिर से ट्रायल कोर्ट में भेजा जाए, ताकि डीएनए रिपोर्ट को सही तरीके से पेश किया जा सके। अभियुक्त का बयान फिर से दर्ज किया जाए और इस मामले में ट्रायल 3 माह के भीतर पूरा किया जाए।
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जज और एडीपीओ की जांच के आदेश
कोर्ट ने यह निर्देश दिया है कि मामले में डीएनए रिपोर्ट सहित सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इसे तीन महीने के भीतर समाप्त किया जाए। साथ ही एडीपीओ बी.के. वर्मा और विशेष न्यायाधीश विवेक सिंह रघुवंशी के खिलाफ लापरवाही के आरोपों की जांच शुरू करने का आदेश दिया गया है। जांच के बाद इसकी रिपोर्ट अदालत को देने का भी आदेश किया गया है।
फैसला देने के पहले जरूरी है सबूतों को परखना
हाइकोर्ट का यह फैसला डिस्ट्रिक्ट और सेशन कोर्ट के जजों की जिम्मेदारी की महत्ता को रेखांकित करता है। हाईकोर्ट ने अपने आदेश से स्पष्ट किया कि न्यायालय में प्रस्तुत साक्ष्यों पर ध्यान देना जरूरी है। ऐसी किसी भी लापरवाही को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। क्योकि मुख्य तथ्यों को नजरअंदाज कर दिया गया। फैसला किसी निर्दोष को भी कारावास में रखने का कारण बन सकता है।
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