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Photograph: (the sootr)
JABALPUR. मध्य प्रदेश में ओबीसी आरक्षण से जुड़े 64 प्रकरणों की आज दिनांक 17 अप्रैल 2025 को जबलपुर हाईकोर्ट में सुनवाई निर्धारित थी। यह प्रकरण सीरियल नंबर 23 से लेकर 23.63 तक सूचीबद्ध थे और इन मामलों की सुनवाई को लेकर प्रदेश के लाखों अभ्यर्थियों की निगाहें टिकी थीं। सुनवाई के दौरान राज्य सरकार की ओर से पेश हुए अतिरिक्त महाधिवक्ता हरप्रीत रूपराह ने अदालत को सूचित किया कि इन प्रकरणों से जुड़ा मामला अब सुप्रीम कोर्ट में सूचीबद्ध है और वहां 21 अप्रैल 2025 को सुनवाई निर्धारित है। उन्होंने यह भी जानकारी दी कि सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट से इन मामलों पर सुनवाई न करने का आग्रह किया है। इस आधार पर हाईकोर्ट ने सभी प्रकरणों की सुनवाई फिलहाल स्थगित कर दी है और अगली सुनवाई के लिए 16 मई 2025 की तारीख तय की है। यह स्थगन प्रदेश की ओबीसी आबादी के लिए एक बार फिर मायूसी का कारण बना, जो लंबे समय से अपने संवैधानिक अधिकार के लिए न्यायालयों के चक्कर काट रही है।
याचिकाओं की वैधता को लेकर कोर्ट में उठा सवाल
सुनवाई के दौरान अधिवक्ता विनायक प्रसाद शाह ने अदालत के समक्ष एक महत्वपूर्ण बिंदु उठाया। उन्होंने कहा कि ऐसी तमाम याचिकाएं जो अब विधिक दृष्टिकोण से निरर्थक हो चुकी हैं, उन्हें निरस्त कर देना चाहिए। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि केवल उन्हीं याचिकाओं को विचारणीय माना जाए जिनमें ओबीसी आरक्षण कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है। इस पर अदालत ने कहा कि यह तर्क वह पूर्व में भी कई बार सुन चुकी है और अब इस विषय का परीक्षण 16 मई को अगली सुनवाई के दिन किया जाएगा। यह विषय इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अनेक याचिकाएं अब अपने उद्देश्य से भटक चुकी हैं, जिनसे न्याय प्रक्रिया में अनावश्यक विलंब हो रहा है।
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शिवम् गौतम केस में अधूरी पहल, वास्तविक मुद्दों पर सरकार की चुप्पी बनी चिंता का विषय
प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में 'शिवम् गौतम बनाम मध्य प्रदेश शासन' नामक केस में स्टे हटाने की मांग की है, लेकिन यह मांग भी अधूरी और भ्रामक प्रतीत होती है। जिस नियम यानी 87% - 13% के विवाद के कारण हजारों ओबीसी अभ्यर्थियों की नियुक्तियां अटकी हुई हैं, उस नियम का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया है। यही नहीं, जिन याचिकाओं में सरकार ने स्टे हटाने की मांग की है, उनमें आरक्षण कानून की वैधता को चुनौती तक नहीं दी गई है। यह स्थिति गहरी चिंता पैदा करती है कि या तो सरकार जानबूझकर मुद्दों को भटका रही है या फिर उसके विधि विशेषज्ञों की कार्यप्रणाली में भारी खामी है। सरकार यह दिखाने का प्रयास करती है कि वह 27% ओबीसी आरक्षण को लेकर प्रतिबद्ध है, जबकि उसकी न्यायिक रणनीतियों में ऐसी कोई स्पष्टता नहीं झलकती।
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विशेष अधिवक्ताओं की अनदेखी का आरोप
ओबीसी वेलफेयर के लिए लंबे समय से कार्यरत अधिवक्ताओं के अनुसार वर्ष 2021 में राज्यपाल द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ता रामेश्वर सिंह ठाकुर और विनायक प्रसाद शाह को ओबीसी आरक्षण मामलों में विशेष अधिवक्ता नियुक्त किया गया था। इन्हीं की सलाह पर अक्टूबर 2021 में रुकी हुई भर्तियों को फिर से शुरू किया गया था। लेकिन जबसे पूर्व महाधिवक्ता पी.के. कौरव हाईकोर्ट के न्यायाधीश बने, उनके स्थान पर नियुक्त नए महाधिवक्ता प्रशांत सिंह ने इन दोनों विशेष अधिवक्ताओं को न तो किसी बैठक में बुलाया और न ही कोई राय-मशविरा किया। इसके उलट, अब वे विधि छात्रों और अप्रशिक्षित अधिवक्ताओं के साथ बैठकर कानूनी रणनीति तय कर रहे हैं और सोशल मीडिया के माध्यम से ओबीसी हितैषी छवि बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यह स्थिति न केवल सरकार की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि न्यायिक मामलों में विशेषज्ञता को दरकिनार कर दिया गया है।
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छत्तीसगढ़ से मिलती सीख, फिर भी मध्य प्रदेश में नहीं दिखती इच्छाशक्ति
याचिकार्ताओं का आरोप है कि एक ही सत्ताधारी दल की सरकार छत्तीसगढ़ में है, जहां आरक्षण का प्रतिशत 58% होने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सभी नियुक्तियां "अंतिम निर्णय के अधीन" जारी हैं। वहीं, मध्य प्रदेश सरकार ने अभी तक किसी भी न्यायालय में इस प्रकार की मांग नहीं की है। यह दर्शाता है कि सरकार केवल ओबीसी वर्ग की सहानुभूति पाने के लिए औपचारिकताएं निभा रही है, जबकि वास्तविक इच्छाशक्ति का अभाव है। यदि छत्तीसगढ़ में नियुक्तियां हो सकती हैं, तो वही रास्ता मध्य प्रदेश में क्यों नहीं अपनाया जा रहा? यह सवाल अब आमजन के मन में भी घर कर गया है।
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कानूनी भ्रम फैलाकर संवैधानिक अधिकारों के हनन का आरोप
वास्तव में 27% ओबीसी आरक्षण को लेकर किसी भी न्यायालय ने पूर्ण रोक नहीं लगाई है। सरकार 87% - 13% के गलत और असंवैधानिक नियम का सहारा लेकर नियुक्तियों को रोके बैठी है। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट में यह तथ्य भी स्पष्ट नहीं किया गया है कि इन नियुक्तियों की वैधता खुद इसी असंवैधानिक नियम पर टिकी हुई है। ऐसे में यदि कोर्ट इस नियम को असंवैधानिक ठहराता है, तो वर्ष 2019 से लेकर अब तक की सभी नियुक्तियां निरस्त की जा सकती हैं। यह स्थिति न केवल प्रशासनिक अस्थिरता ला सकती है, बल्कि हजारों युवाओं के भविष्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगा सकती है।
ओबीसी आरक्षण बड़ा मुद्दा, न्याय अब भी दूर
आज की स्थगित सुनवाई के बाद एक बार फिर सरकार पर भ्रमित करने के आरोप लग रहे है, न्यायिक प्रक्रिया धीमी है और संवैधानिक अधिकार अब भी अधूरे हैं। यदि सरकार वाकई पिछड़ा वर्ग को उनका हक देना चाहती है, तो उसे न केवल कानूनी रूप से स्पष्ट और मजबूत पक्ष रखना होगा, बल्कि विशेषज्ञ अधिवक्ताओं को साथ लेकर एक पारदर्शी प्रक्रिया को अपनाना होगा। वरना यह मुद्दा केवल अदालतों की तारीखों में उलझा रहेगा और समाज में गहरा असंतोष पनपता जाएगा।
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