बालिग-नाबालिग मामलों में हाईकोर्ट का बड़ा फैसला, युवतियों की सहमति को सर्वोपरि माना

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में दो बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं आईं। इसमें एक बालिग और दूसरी नाबालिग युवती के मामलों में कोर्ट ने उनकी मर्जी को सर्वोपरि माना। दोनों मामलों में युवतियों के घर छोड़ने के बावजूद कोर्ट ने उनकी इच्छा के आधार पर निर्णय लिया।

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Neel Tiwari
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Photograph: (hesootr)

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JABALPUR. मध्य प्रदेश हाईकोर्ट जबलपुर में सोमवार को जस्टिस विवेक अग्रवाल और जस्टिस रामकुमार चौबे की डिविजन बेंच के सामने बंदी प्रत्यक्षीकरण के दो ऐसे मामले आए, जिसमें एक युवती बालिक थी और दूसरी नाबालिग। दोनों मामलों में आखिरकार कोर्ट ने युवतियों की सहमति को ही सर्वोपरि माना। 

जबलपुर हाईकोर्ट में परिवार की मर्जी के विरुद्ध घर छोड़ने वाली युवतियों के दो मामले सामने आए। एक मामले में कोर्ट में बालिग युवती की इच्छा के सामने अधिवक्ता मां की भावनात्मक दलीलें नहीं चल सकी। दूसरी ओर एक नाबालिग बच्ची के स्वास्थ्य और संरक्षण का तो कोर्ट ने ध्यान रखा, लेकिन यहां भी मर्जी नाबालिग की ही मानी गई।

पहला मामला...

बालिग युवती की मर्जी

पहला मामला एक महिला अधिवक्ता द्वारा दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका से जुड़ा था। उनकी बेटी घर से चली गई थी, जिसके बाद पुलिस उसे उसके प्रेमी के साथ दूसरे प्रदेश से बरामद कर कोर्ट में पेश किया गया।

युवती ने अपनी 10वीं की मार्कशीट पेश करते हुए बताया कि वह बालिग है और अपनी मर्जी से प्रेमी के साथ लिव इन में रही है। युवती ने कोर्ट को बताया कि अभी उसके प्रेमी की उम्र 21 वर्ष नहीं है इसलिए वह शादी नहीं कर रही पर उसके साथ ही रहना चाहती है।

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नहीं चली मां की दलीलें

कोर्ट के सामने अधिवक्ता मां ने भावुक होकर अपनी पीड़ा रखी। मां ने कोर्ट को बताया कि कैसे बेटी इंस्टाग्राम फ्रेंड के लिए घर छोड़कर चली गई। महिला अधिवक्ता भावनाओं में इस कदर बह गई कि उन्होंने कोर्ट की यह तक बताया कि उस दिन का एक-एक घटनाक्रम क्या था। जैसे बेटी लिए मटर पनीर बनाकर रखा गया था और लोअर सिलवाने का बहाना बनाकर वह अचानक गायब हो गई। लेकिन युवती ने साफ शब्दों में कहा कि वह मां या परिवार के साथ नहीं रहना चाहती।

वकील की तरह दें दलीलें

इस पर डिविजन बेंच ने महिला अधिवक्ता को संयम बरतने की सीख दी और यह भी कहा कि जब मामला स्वयं का हो, तो भावनाओं पर नियंत्रण रखना और भी जरूरी हो जाता है। कोर्ट ने इस बात पर भी आपत्ति जताई की महिला अधिवक्ता को स्वयं के मामले में पेश होते समय वकील का बैंड नहीं पहनना चाहिए था।

कोर्ट ने पुलिस से भी सवाल किया कि युवती को जिस जगह से लाया गया, वहां कोई असुरक्षित या संदिग्ध स्थिति तो नहीं थी। पुलिस ने ऐसी किसी भी बात से इनकार किया। इसके बाद कोर्ट ने यह साफ कर दिया की लड़की की मर्जी के विरुद्ध कहीं रहने के लिए दबाव नहीं बनाया जा सकता।

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टेस्ट की मांग HC ने की खारिज

मां की ओर से युवक की मेडिकल जांच, यहां तक कि एचआईवी और हेपेटाइटिस-बी टेस्ट की मांग भी रखी गई, लेकिन कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि युवती सुरक्षित है और अपनी इच्छा से रह रही है, तो कानून की सीमा वहीं समाप्त हो जाती है। बालिग की मर्जी के आगे किसी और की इच्छा नहीं चल सकती। फिर चाहे वह मां ही क्यों न हो।

दूसरा मामला...

यहां भी चली नाबालिग की मर्जी

दूसरा मामला एक नाबालिग लड़की से जुड़ा था, जो घर से लापता हो गई थी। बरामदगी के बाद जब वह कोर्ट के सामने आई, तो उसने बताया कि पहले वह भोपाल गई, फिर स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्या "स्तन में गांठ" का पता चलने के बाद इलाज के लिए इंदौर पहुंची। पैसों की कमी और पारिवारिक हालात ने उसे भटकने पर मजबूर कर दिया था।

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कोर्ट ने दी समझाइश नहीं मानी युवती

कोर्ट ने उसे समझाया कि वह अभी 17 वर्ष की है और कानून के मुताबिक उसे परिवार या सुरक्षित संरक्षण में रहना होगा। कोर्ट ने न सिर्फ उसके इलाज की चिंता की, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि उसका उपचार जबलपुर मेडिकल कॉलेज के कैंसर यूनिट में कराया जाए। लेकिन युवती ने मां के साथ रहने से इनकार करते हुए मारपीट के आरोप लगाए। 

नाबालिग के इलाज के साथ सुरक्षा का इंतजाम 

आमतौर पर ऐसे मामले जहां पर नाबालिग युवतियां परिवार के साथ रहने से इंकार करती हैं उन्हें नारी निकेतन भेजा जाता है। लेकिन जस्टिस विवेक अग्रवाल ने वहां की परिस्थितियों पर मौखिक सवाल उठाते हुए बेहतर विकल्प तलाशने को कहा। सरकारी वकील के सुझाव पर राजकुमारी बाई निकेतन को चुना गया, जिसकी सुविधाओं और सुरक्षा की जांच के बाद युवती को वहां भेजने का आदेश दिया गया।

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बंदी प्रत्यक्षीकरण का एक और पहलू आया सामने

मामला यहीं खत्म नहीं हुआ। कोर्ट ने पुलिस से पूछा- “जब आप इसे लेकर आए, तो क्या इसने खाना खाया?”। शासकीय अधिवक्ता के द्वारा इसके दिए गए जवाब से यह बड़ा सवाल खड़ा हो गया है कि दूसरे प्रदेश से प्रत्यक्षीकरण के लिए लाए गए युवक या युवती के खानपान का बजट आखिर कौन निर्धारित करेगा। हालांकि, इसके बाद शासकीय अधिवक्ता को तत्काल भोजन की व्यवस्था करने और उसके खर्च की भरपाई स्वयं जज से लेने के मौखिक निर्देश दिए गए।

युवतियों की मर्जी ही रही सर्वोपरि

इन दोनों मामलों ने यह स्पष्ट कर दिया कि अदालत किसी भी भावनात्मक आधार पर कानून की सीमाओं से बाहर नहीं जाती। एक ओर बालिग की आजादी का सम्मान किया गया। तो दूसरी ओर नाबालिग के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए संरक्षण तय करते हुए इस मामले में भी युवती की ही मर्जी मानी गई।

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