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Photograph: (the sootr)
पुलिस… ये शब्द बोलते ही दिल में हिफाजत का एक भाव पैदा होता था। घर से निकलते वक्त लगता था कि कोई है, जो हमारी हिफाजत करेगा। लेकिन अब? अब पुलिस का नाम आते ही दिल कांपता है। नसों में सिहरन होती है। दिमाग में दहशत का गाढ़ा साया उतर आता है। और तो और खौफ की दास्तां देखिए, देश में आज भी घरों में बच्चे पुलिस के नाम से डराए जाते हैं। “सो जा, नहीं तो पुलिस आ जाएगी” ये मजाक नहीं है, ये सिस्टम की मिट्टी हो चुकी साख की लाइन है। आज वर्दी का मतलब इंसाफ नहीं… जुल्म है। कानून नहीं… खौफ है। भरोसा नहीं… धमकी है।
वर्दी अपनी ताकत नहीं दिखा रही
कहते हैं पुलिस लोकतंत्र की पहली सीढ़ी है। लेकिन हकीकत यह है कि जो जनता की ढाल होनी चाहिए थी, वही आज जनता को काट रही है। वर्दी अपनी ताकत नहीं दिखा रही, ताकत का बेजा इस्तेमाल कर रही है।
जी हां, देशभक्ति और जनसेवा का दावा करने वाली पुलिस अब इंस्टीट्यूशनल क्राइम मशीन बन चुकी है, सिस्टमेटिक अंदाज में, गिरोह की तरह, संगठित तरीके से।
वरिष्ठ पत्रकार आनंद पांडे आज के प्वाइंट ऑफ व्यू की शुरुआत एमपी पुलिस की कारस्तानियों से कर रहे हैं।
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केस 1
पहली दास्तां मध्यप्रदेश के सिवनी जिले की है। जहां पुलिसवालों ने कोई गलती नहीं की, पूरी प्लानिंग की। करीब तीन करोड़ का हवाला कैश वाहन में जा रहा था। उसके बाद वर्दीधारियों ने मिलकर लूट को किसी ऑपरेशन की तरह अंजाम दिया।
DSP, CSP से लेकर सिपाहियों तक...एक भी स्तर साफ नहीं निकला। फिर जब सवाल खड़े हुए तो SIT की जांच में पूरा खेल खुल गया। 15 पुलिस वाले गिरफ्तार किए गए। अब जनता पूछ रही है कि जब वर्दीवाले ही लुटेरे बन जाएं तो इंसाफ के लिए कौन बचेगा? किस दरवाजे जाए जनता? कौन सुनेगा दर्द?
केस 2
आगे बढ़ते हैं मंदसौर की तरफ। यह मामला तो पुलिस की रचनात्मकता की मिसाल है। मल्हारगढ़ थाना पुलिस ने एक आम युवक सोहनलाल को बस से उतारकर तस्करी का आरोपी बना दिया। जैसे किसी स्क्रिप्ट राइटर ने कहानी लिखी हो। लेकिन हाईकोर्ट ने इस मनगढ़ंत कहानी की चीरफाड़ कर दी।
कोर्ट ने साफ कहा कि पूरा थाना शक के घेरे में है। इसके बाद छह पुलिस वाले सस्पेंड किए गए, अब सवाल उठता है कि सोहनलाल का क्या? उसकी इज्जत, उसकी जिंदगी, उसका भविष्य कौन लौटाएगा? यह सिर्फ दुरुपयोग नहीं… ताकत का नंगा नाच है।
यहां सबसे खास बात तो यह है कि जिस मल्हारगढ़ थाना पुलिस ने यह कांड किया है, उसी को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने देश के 10 बेहतरीन थानों की लिस्ट में शुमार किया था। मल्हारगढ़ का इस लिस्ट में नौवां नंबर था। अब सोचिए देश के सर्वश्रेष्ठ थानों की पुलिस ऐसे कांड करती है।
केस 3...राजधानी भी अछूती नहीं
अब आते हैं राजधानी भोपाल के दिल में छिपे जुल्म पर। ऐशबाग थाना पुलिस ने महिला वकील वीणा गौतम को गुंडा लिस्ट में डाल दिया। वकील, पढ़ी-लिखी महिला, पूर्व विधायक की बेटी और फिर भी पुलिस से नहीं बच पाईं।
जब वीणा की सुनवाई नहीं हुई तो उन्होंने भी अदालत का रुख किया। इसके बाद भोपाल की एक कोर्ट ने तत्कालीन थाना प्रभारी अजय नायर और एसआई गौरव पांडे पर दो लाख का हर्जाना ठोका है। लेकिन सवाल यह है कि अगर वीणा जैसी महिला वकील को वर्दी ऐसे नचाती है, तो आम आदमी का क्या हाल होगा? वह तो थाने के दरवाजे पर ही दहशत में मर जाता है।
ये मामला भी राजधानी का
भोपाल का ही एक और केस है। 22 साल का उदित। इंजीनियरिंग करने वाला लड़का। सपनों से भरा हुआ। पुलिस वालों ने उसे रोक लिया। फिर वर्दी ने अपना असली चेहरा दिखाया।
उदित के कपड़े उतरवाए गए। सिर, आंख, पेट और कमर...जहां जगह मिली, वहां लाठियों से वार किए। अस्पताल में उदित की सांसें थम गईं। बाद में पुलिस बोली उसकी हार्ट अटैक से मौत हुई है। लेकिन CCTV कैमरे की रिकॉर्डिंग से पूरी कलई खुल गई।
इसमें सामने आया कि पुलिस की पिटाई से ही उदित की जान गई। अब सोचिए, एक 22 साल का बच्चा… बस इसलिए मारा गया क्योंकि वर्दी के पास ताकत थी। क्योंकि सवाल पूछने वाला कोई नहीं था। क्योंकि पुलिस खुद ही जज बन बैठी थी।
यहां तो पुलिस तो ने पार की सारी हदें
इतिहास पलटें तो भी पुलिस के किस्से ऐसे ही हैं। ये मामला तीन साल पहले का है। बालाघाट जिले में दो बच्चियां गायब हुई थीं। पुलिस को आरोपी चाहिए था। आरोपी मिला नहीं तो बच्चियों के चाचा को पकड़ा और अपराधी घोषित कर दिया।
केस ऐसे लिखा गया, जैसे पूरी फिल्म तैयार हो। निचली अदालत ने बच्चियों के चाचा को फांसी तक सुना दी। लेकिन हाईकोर्ट ने जब फाइल देखी तो पाया कि सब मनगढ़ंत है। कहानी नकली निकली। इ
स तरह पुलिस की कारगुजारी से एक निर्दोष तीन साल जेल में सड़ता रहा। अगर हाईकोर्ट न होता तो वह फांसी चढ़ चुका होता। यह गलती नहीं… यह वर्दी का जानलेवा अहंकार है।
पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त
मध्यप्रदेश में कहानी यहीं खत्म नहीं होती। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में इंदौर पुलिस की बड़ी करतूत उजागर हुई है। एक साल में दर्ज 165 केसों में दो लोगों को ‘पाकेट गवाह’ बनाया गया।
इस पर न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह ने टीआई इंद्रमणि पटेल को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि तुम दुर्भाग्य से उस कुर्सी पर बैठे हो, तुम्हें वहां नहीं होना चाहिए। यह हमारी आत्मा की पीड़ा है। सिर झुकाए खड़े टीआई पर तल्ख टिप्पणियों से पूरा कोर्ट रूम सन्न रह गया।
न्याय व्यवस्था की रीढ़ हिला देने वाला यह मामला उस समय हुआ, जब सुप्रीम कोर्ट में इंदौर के चंदूवाला रोड़ (चंदन नगर) निवासी अनवर हुसैन की याचिका पर सुनवाई हो रही थी। इस मामले में भी टीआई ने गलत जानकारी दी थी। सुनवाई के दौरान उपस्थित हुए कानून के छात्र असद अली वारसी ने टीआई की ‘गवाह फैक्टरी’ की पोल खोल दी।
भ्रष्टाचार में भी पीछे नहीं...
अब बात करें भ्रष्टाचार की तो यह खाकी का स्थायी विभाग बन गया है। पिछले 5 साल में 106 पुलिसकर्मी रिश्वत लेते पकड़े गए हैं। SDOP, TI, आरक्षक...हर रैंक की जेबें काली मिलीं। वर्दी का साइज चाहे छोटा हो या बड़ा लालच सबका एक-सा है।
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हर दिन एक पुलिसवाले की हो रही पिटाई
उधर, अब जनता मानो पुलिस के काम से त्रस्त हो चुकी है। मध्यप्रदेश में जनवरी 2024 से जून 2025 तक डेढ़ साल में 612 पुलिसकर्मी जनता के हाथों घायल हुए। यानी औसत रूप से हर दिन एक पुलिस वाले की पिटाई हो रही है।
ये संख्या बताती है कि जनता अब गुस्से में है। छोटी-छोटी शिकायतें भी जब दबा दी जाएं, जब सुनवाई ही न हो, जब हर थाने का दरवाजा जानलेवा लगे...तो समाज फटता ही है। लोग टूट चुके हैं। आस्था खत्म हो चुकी है। पुलिस पर भरोसा तो कब का मर चुका है। अब डर भी गुस्से में बदलने लगा है।
यहां जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला की पुरानी लाइन याद आती है। उन्होंने 60 के दशक में एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि भारत में अपराधियों का कोई ऐसा गिरोह नहीं, जो पुलिस की बराबरी कर सके।
कितनी गहरी बात है ये। चिंता में डुबो देती है। सवाल यह है कि छह दशक बाद भी यह बात आज और सटीक क्यों लगती है? क्यों पुलिस बदल नहीं पाई? क्यों व्यवस्था इतनी खोखली हो गई?
क्यों...क्योंकि
- पुलिस सेवा में नहीं अपने कारोबार में व्यस्त है?
- पुलिस जांच नहीं करती, मनमर्जी की स्क्रिप्ट लिखती है?
- पुलिस गिरफ्तारी से ज्यादा सौदेबाजी में जुटी रहती है?
- पुलिस की वर्दी अब मरहम नहीं, हथियार बन चुकी है?
- पुलिस अब कानून की रक्षा नहीं करती, अपने अफसरों की ढाल बनती है?
Point of View
जब पुलिस ही कटघरे में खड़ी हो जाए…
जब वर्दी ही हर केस में आरोपी बन जाए…
जब अदालतें भी कहें कि पुलिस पर भरोसा नहीं…
जब जनता थानों के नाम से कांपती हो…
तो लोकतंत्र कैसे बचेगा? इंसाफ कैसे जिंदा रहेगा?
देश को पुलिस सुधार आज नहीं, अभी चाहिए। जवाबदेही बिना वर्दी खतरनाक है। जांच की पारदर्शिता जरूरी है। थानों से भ्रष्टाचार उखाड़ना होगा। जनता को इंसाफ देना ही होगा। वरना… पुलिस का यह चेहरा— खौफ, दहशत, जुल्म और दाग...हर दिन और गहरा होता जाएगा।
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