मध्य प्रदेश हाईकोर्ट : भ्रष्टाचार के आरोप के संबंध में ADJ को हटाने का फैसला बरकरार

मप्र आबकारी अधिनियम की धारा 34(2) मामले की सुनवाई में एक्टिंग चीफ जस्टिस और जस्टिस विनय सराफ की खंडपीठ द्वारा दिए गए फैसले में पुष्टि की गई कि विभागीय जांच के निष्कर्षों की न्यायिक पुनर्विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं

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Ravi Singh
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मप्र आबकारी अधिनियम की धारा 34(2) मामले की सुनवाई में एक्टिंग चीफ जस्टिस और जस्टिस विनय सराफ की खंडपीठ द्वारा दिए गए फैसले को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने बरकरार रखा है। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा है कि विभागीय जांच के निष्कर्षों की न्यायिक पुनर्विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब उचित प्रक्रिया का पालन किया गया हो और कोई गड़बड़ी नहीं पाई गई हो।

2011 में  शिकायत

ADJ के खिलाफ आरोप 12 अगस्त, 2011 को सामने आए जब जयपाल मेहता नामक व्यक्ति ने उन पर मप्र आबकारी अधिनियम की धारा 34(2) के तहत धन के बदले जमानत आवेदन तय करने का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई थी। हाईकोर्ट ने ADJ के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की थी जिसमें उन्हें दोषी पाया गया था। इसके बाद प्रशासनिक समिति (HJS) ने उन्हें सेवा से हटाने की सिफारिश की। फुल कोर्ट ने इस अनुशंसा का समर्थन किया, जिसके परिणामस्वरूप राज्य के विधि एवं विधायी विभाग द्वारा 2 सितंबर 2014 को निष्कासन आदेश जारी किया गया।

आदेश को चुनौती दी 

ADJ ने एम.पी. सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण एवं अपील) नियम 1966 के नियम 23 के तहत अपील के माध्यम से निष्कासन आदेश को चुनौती दी, जिसे 17 मार्च 2016 को खारिज किया गया। इसके बाद उन्होंने चुनौती के कई आधार उठाते हुए वर्तमान रिट याचिका दायर की।

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कोई ठोस सबूत नहीं

याचिकाकर्ता के वकील ध्रुव वर्मा ने तर्क दिया कि शिकायत निराधार है, क्योंकि जांच के दौरान शिकायतकर्ता जयपाल मेहता से पूछताछ नहीं की गई थी और भ्रष्टाचार के आरोपों का समर्थन करने वाला कोई ठोस सबूत नहीं था। वर्मा ने तर्क दिया कि विचाराधीन जमानत आदेश भले ही गलत हों, उन्हें कदाचार के रूप में नहीं माना जाना चाहिए, उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि न्यायिक आदेश कानूनी व्याख्याओं पर आधारित हो सकते हैं और ऐसे उदाहरणों का हवाला दिया, जो विशिष्ट परिस्थितियों में जमानत देने में न्यायिक विवेक का समर्थन करते हैं।

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19 जमानत आदेश शामिल

राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिवादियों ने निष्कासन आदेश का बचाव करते हुए तर्क दिया कि जांच में उचित प्रक्रिया का पालन किया गया तथा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किया गया। वकील ध्रुव वर्मा दावा किया कि अपराधी के कार्य विशेष रूप से जमानत देने में कानूनी मानकों का असंगत अनुप्रयोग भ्रष्ट उद्देश्य को दर्शाता है। विभागीय जांच गहन थी तथा निष्कर्ष पर्याप्त साक्ष्यों पर आधारित थे, जिसमें याचिकाकर्ता के न्यायिक आचरण में दोहरे मानकों को प्रदर्शित करने वाले 19 जमानत आदेश शामिल थे।

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न्यायालय ने कहा

रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर वर्तमान मामले में जांच अधिकारी द्वारा निकाले गए उचित निष्कर्ष में न तो यह न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है और न ही इसे इस हद तक विकृत या अनुचित कहा जा सकता है कि इस न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप किया जा सके। वर्तमान मामले में जांच में अपनाई गई प्रक्रिया में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का कोई उल्लंघन या त्रुटि नहीं पाई गई। विभागीय जांच के संचालन में किसी भी प्रक्रियागत अवैधता और अनियमितता के अभाव में इस न्यायालय की सुविचारित राय में किसी भी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि न्यायिक अधिकारियों को सर्वोच्च निष्ठा बनाए रखनी चाहिए और कानूनी मानकों से विचलन विशेष रूप से भ्रष्टाचार का सुझाव देने वाले सख्त अनुशासनात्मक कार्रवाई की आवश्यकता है। न्यायालय ने जांच प्रक्रिया में कोई प्रक्रियागत अनुचितता या वैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन नहीं पाया और निष्कासन आदेश बरकरार रखा।

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