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न्यायपालिका की अनदेखी एक व्यक्ति का भविष्य खराब कर सकती है। इसका एक उदाहरण जबलपुर हाईकोर्ट में सामने आया। दरअसल निचली अदालत ने बिना सबूत और गवाहों पर ध्यान दिए एक व्यक्ति को उम्रकैद की सजा सुनाई। हाईकोर्ट ने इस मामले की पुनः जांच की और उसे बाइज्जत बरी कर दिया।
सलाखों के पीछे चार साल की लंबी और कठिन कैद भुगतने के बाद मनोज कुमार यादव को आखिरकार इंसाफ मिल गया। जबलपुर हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने उसे सभी आरोपों से बरी कर दिया।
जस्टिस विवेक अग्रवाल और जस्टिस अवनीन्द्र कुमार सिंह की डिविजनल बेंच ने कहा कि निचली अदालत ने सबूतों और तथ्यों का सही परीक्षण नहीं किया। इसी कारण मनोज को दोषी ठहरा दिया गया था। इस अपील में मनोज की ओर से अधिवक्ता सुशील कुमार शर्मा ने पैरवी की और एक-एक कानूनी कमी को उजागर किया।
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निचली अदालत ने दी थी उम्रकैद की सजा
साल 2023 में विशेष न्यायाधीश (POCSO) एवं 18वें अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, जबलपुर ने मनोज कुमार यादव को दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी। अदालत ने उसे धारा 376(1) आईपीसी और एससी-एसटी एक्ट की धारा 3(2)(v) के तहत आजीवन कारावास, धारा 506 (भाग-2) में एक साल की सजा और धारा 450 आईपीसी में पांच साल की सजा सुनाई थी। उस समय डीएनए रिपोर्ट में पीड़िता और आरोपी का मिलान होना अदालत के लिए मुख्य आधार बना, लेकिन अदालत ने यह नहीं देखा कि अन्य आवश्यक साक्ष्य और गवाहियों की स्थिति कमजोर थी।
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सबूत और गवाहियों की हुई थी अनदेखी
हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान यह तथ्य सामने आया कि निचली अदालत ने कई अहम बिंदुओं को दरकिनार कर दिया था।
जन्मतिथि का कोई पुख्ता प्रमाण नहीं: न तो जन्म प्रमाणपत्र प्रस्तुत किया गया और न ही विद्यालय के अभिलेख जब्त किए गए। केवल एक डिस्चार्ज कार्ड पेश किया गया, जिसमें पिता का नाम तक दर्ज नहीं था।
मेडिकल रिपोर्ट की अनदेखी: मेडिकल जांच करने वाली महिला डॉक्टर को गवाही के लिए पेश नहीं किया गया। जबकि रिपोर्ट में साफ था कि पीड़िता के शरीर पर कोई बाहरी या आंतरिक चोट नहीं पाई गई।
वहीं पीड़िता ने अदालत में यह स्वीकार किया कि उसके पास 10वीं, 8वीं और 5वीं की अंकसूचियां थीं, लेकिन वे पेश नहीं की गईं। उसने यह भी माना कि घटना की शिकायत उसने पड़ोसियों या माता-पिता से तत्काल नहीं की थी।इसके साथ ही मेडिकल रिपोर्ट और गवाहियों में कहीं भी यह प्रमाणित नहीं हुआ कि पीड़िता के साथ जबरन संबंध बनाए गए थे।
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सहमति से बने संबंधों का था मामला
अधिवक्ता सुशील शर्मा ने तर्क दिया कि यह मामला सहमति से बने संबंधों का था, और अभियोजन यह साबित करने में पूरी तरह असफल रहा कि पीड़िता घटना के समय नाबालिग थी। साथ ही, मेडिकल रिपोर्ट और गवाहों की गैर-पेशी से अभियोजन का पूरा केस कमजोर हो गया।
MP हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के Sunil बनाम State of Haryana (2010) मामले का हवाला देते हुए कहा कि जब अभियोजन पीड़िता की उम्र साबित नहीं कर पाया और आवश्यक चिकित्सकीय व दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध नहीं कराए, तो आरोपी को संदेह का लाभ देना ही न्यायसंगत होगा।
चार साल बाद रिहाई का आदेश
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में जस्टिस विवेक अग्रवाल और जस्टिस एके सिंह की डिविजनल बेंच ने निचली अदालत का फैसला पूरी तरह रद्द करते हुए कहा कि केवल डीएनए रिपोर्ट के आधार पर उम्र और सहमति की स्थिति की अनदेखी नहीं की जा सकती।
अदालत ने मनोज कुमार यादव की अपील स्वीकार कर उसे तुरंत रिहा करने का आदेश दिया। हाईकोर्ट के इस फैसले ने एक बार फिर यह संदेश दिया कि न्यायालयों का दायित्व है कि वे प्रत्येक सबूत और गवाही का बारीकी से परीक्षण करें, अन्यथा एक निर्दोष व्यक्ति को सालों तक कैद की सजा भुगतनी पड़ सकती है।
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