इंदौर में रंगपंचमी पर निकलने वाली गेर पूरी दुनिया में मशहूर है। यह उत्सव देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी प्रसिद्ध है। यह गेर जितनी खूबसूरती से निकलती है और लोगों को एक रंग में भिगोकर सांप्रदायिक सौहार्द का परिचय देती है, उतना ही शानदार इसका इतिहास भी है। रंगपंचमी से जुड़े ऐसे कई किस्से हैं, जो कई लोग जानना चाहते हैं।
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ऐसे हुई थी गेर की शुरुआत
पश्चिम क्षेत्र में गेर साल 1955-56 से निकलना शुरू हुई थी, लेकिन इससे भी पहले शहर के मल्हारगंज क्षेत्र में कुछ लोग खड़े हनुमान मंदिर में फगुआ गाते थे, एक-दूसरे को रंग और गुलाल लगाते थे। फिर साल 1955 में इसी क्षेत्र में रहने वाले रंगू पहलवान एक बड़े से लोटे में केशरिया रंग घोलकर आने-जाने वाले लोगों पर रंग मारते थे। यहां से रंगपंचमी पर गेर खेलने का चलन शुरू हुआ।
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ओटले पर बैठकर हुई गेर निकालने की चर्चा
रंगू पहलवान अपनी दुकान के ओटले पर बैठक करते थे और वहां इस तरह गेर खेलने को कैसे सार्वजनिक और भव्य पैमाने पर मनाया जाए, इस पर चर्चा हुई। तब यह तय हुआ कि इलाके के टोरी कॉर्नर वाले चौराहे पर रंग घोलकर एक-दूसरे पर डालेंगे, और बस तभी से इस गेर ने भव्य रूप ले लिया।
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मिसाइलों ने ली रंगों के कढ़ाव और बाल्टियों की जगह
टोरी कॉर्नर गेर के संयोजक शेखर गिरी ने बताया कि बाबूलाल गिरी, छोटेलाल गिरी और रामचंद्र पहलवान ने रंगों से भरा कढ़ाव लगाना शुरू किया, जिसमें लोगों को डुबोकर रंग से भिगोया जाता था। इसके बाद लोग भी बाल्टियों में रंग भरकर राजवाड़ा पर जमा हो जाते थे और लोगों पर रंग डालते थे। इस तरह बाल्टियां अब बड़ी-बड़ी मिसाइलों में तब्दील हो गईं।
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शुरुआत में हाथी-घोड़े और ऊंट पर निकलती थी गेर
संगम कॉर्नर गेर के संयोजक कमलेश खंडेलवाल ने बताया कि 75 साल पहले हाथी, घोड़े और ऊंटों पर गेर निकाली जाती थी। रंगों की बोरियां भरकर लोगों पर रंग डाला जाता था, जिसे देखकर कई लोग चौंक भी जाते थे। यह गेर नाथूलाल खंडेलवाल ने अपने साथियों के साथ निकाली थी। अब मिसाइलों से लोगों पर रंग डालने का तरीका भी लोगों को खूब पसंद आ रहा है। कमलेश बताते हैं कि इसके बाद यह एक उत्सवी परंपरा बन गई, जिसमें पराए या गैर को रंग लगाकर अपना बना लेने की मान्यता है। हालांकि, बाद में इस रंगीन परंपरा को गेर के नाम से जाना जाने लगा और अब गेर निकालने वाले कई आयोजक हैं।
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होलकर वंश से चली आ रही परंपरा
कहा जाता है कि गेर निकालने की परंपरा होलकर वंश के समय से ही चली आ रही है। होलकर राजघराने के लोग पंचमी के दिन बैलगाडय़िों में फूल और रंग-गुलाल लेकर सडक़ पर निकल पड़ते थे और रास्ते में जो भी मिलता, उसे रंग लगा देते थे। इस परंपरा का उद्देश्य समाज के सभी वर्गों को साथ मिलकर त्योहार मनाना था। यही परंपरा साल दर साल आगे बढ़ती रही।
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दुनियाभर में इसलिए प्रसिद्ध है गेर
-300 साल से चली आ रही परंपरा
-100 साल पहले सामाजिक रूप से मनाने की हुई शुरुआत
-शहरभर में 3000 से ज्यादा पंडाल लगते हैं
-1.5 करोड़ से ज्यादा लोग होते हैं शामिल
-इंदौर की गेर विश्वभर में प्रसिद्ध विरासत
-सभी जाति-धर्म के लोग शामिल होते हैं
-देश के कोने-कोने से आते हैं पर्यटक
टोरी कॉर्नर पर होते थे रंग के कढ़ाव
रंगपंचमी के दिन सुबह से ही टोरी कॉर्नर पर रंग से भरा कढ़ाव रखा जाता था और वहां से गुजरने वाले लोगों पर रंग डाला जाता था। इसी परंपरा को गेर के नाम से जाना जाता है। यदि गेर शब्द की बात करें तो इंदौर में गेर शब्द 'घेर' शब्द से निकला है।