स्पेशल जिला जज को गलत आरोपों पर किया बर्खास्त, HC ने लगाई फटकार, जजों की सोच पर उठाए गंभीर सवाल!

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज जगत मोहन चतुर्वेदी की बर्खास्तगी को रद्द किया और न्यायिक व्यवस्था में सामंती सोच पर कड़ी टिप्पणियां कीं।

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Neel Tiwari
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SC/ST के स्पेशल जज को गलत ढंग से बर्खास्त किए जाने के मामले में हाईकोर्ट ने आदेश में कड़ी टिप्पणियाँ कीं। कोर्ट ने आदेश में लिखा कि हाईकोर्ट के जजों को सवर्ण और डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जजों को शूद्र समझा जाता है।

एक ऐतिहासिक फैसले में, मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने एक डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज को नौकरी से निकालने के आदेश को रद्द कर दिया है। स्पेशल कोर्ट के जिला जज जगत मोहन चतुर्वेदी को रिटायरमेंट से ठीक दो साल पहले नौकरी से निकाल दिया था। इनका करियर करीब 28 वर्षों तक बिल्कुल बेदाग रहा था। हाईकोर्ट ने इस मामले में न सिर्फ जज को वापस उनका हक दिलाया, बल्कि न्यायपालिका के अंदर चल रही कुछ गहरी समस्याओं के बारे में भी खुलकर आदेश में लिखा है।

क्या था पूरा मामला और आरोप?

डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में स्पेशल जज SC/ST के पद पर पदस्थ जगत मोहन चतुर्वेदी को 19 अक्टूबर 2015 को नौकरी से हटा दिया गया था। उन पर आरोप था कि व्यापम घोटाले से जुड़े कुछ मामलों में उन्होंने अग्रिम जमानत और रेगुलर जमानत दे दी थी, वहीं इस तरह के अन्य मामलों में उन्होंने जमानत खारिज कर दी थी। इन आदेशों को कभी हाईकोर्ट में चुनौती नहीं दी गई, लेकिन जज को आधी-अधूरी और तथ्यहीन जांच के बाद बर्खास्त कर दिया गया।

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जज जगत मोहन ने रखा अपना पक्ष

बर्खास्त किए जाने के बाद, वर्ष 2016 में जज जगत मोहन ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। जब इस याचिका की सुनवाई जस्टिस अतुल श्रीधरन और जस्टिस डी.के. पालीवाल की डिविजन बेंच में हुई, तो उन्होंने अपने जवाब में बताया कि उन्होंने कोई गलती नहीं की थी। उन्होंने स्पष्ट किया कि जिन मामलों में उन्होंने पूर्व जमानत (एंटीसिपेटरी बेल) दी थी, वे ऐसे अपराध थे जिनकी सुनवाई जेएमएफसी (JMFC) कोर्ट में होती है।

इनमें अधिकांश अपराधों में अधिकतम तीन साल की सजा होती है (सिर्फ धारा 420 आईपीसी को छोड़कर, जिसमें सात साल तक की सजा है)। उन्होंने दलील दी कि उस समय आरोपियों के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं थे, इसलिए उन्होंने कानून के अनुसार जमानत दी। इसके विपरीत, जिन मामलों में उन्होंने जमानत खारिज की थी, उनमें बाद में जांच के दौरान धारा 467 और 468 जैसे गंभीर अपराध जोड़े गए थे। इन गंभीर अपराधों की सुनवाई सेशन कोर्ट में होती है, इसलिए उन मामलों में जमानत खारिज करना उचित था।

स्पेशल जज की बर्खास्तगी पर हाईकोर्ट की फटकार मामले पर एक नजर...

  • मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज जगत मोहन चतुर्वेदी को नौकरी से गलत तरीके से हटाए जाने के आदेश को रद्द कर दिया।

  • जज पर व्यापम घोटाले से जुड़ी जमानत के मामलों में भेदभावपूर्ण फैसले देने का आरोप था, लेकिन कोई ठोस सबूत नहीं मिला।

  • कोर्ट ने डिस्ट्रिक्ट कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों के रिश्ते को सामंती व्यवस्था जैसा बताया, जिसमें डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जजों को डर और हीन भावना का सामना करना पड़ता है।

  • हाईकोर्ट ने यह कहा कि डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जजों में मानसिक गुलामी और डर की भावना होती है, जो उनके निर्णयों को प्रभावित करती है।

  • जज जगत मोहन चतुर्वेदी को रिटायरमेंट से पहले गलत तरीके से बर्खास्त किए जाने के लिए मुआवजा के रूप में 5 लाख रुपये और बकाया सैलरी का भुगतान 90 दिन में किया जाएगा।

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बिना किसी सबूत के जज को किया गया बर्खास्त

हाईकोर्ट ने पाया कि जज के खिलाफ भ्रष्टाचार या किसी बाहरी उद्देश्य से काम करने का कोई साक्ष्य नहीं मिला। आरोपों में सिर्फ अनुमान लगाए गए थे, लेकिन उन्हें सिद्ध करने के लिए कोई ठोस दस्तावेज या गवाह नहीं थे। खुद जांच अधिकारी ने भी जज के खिलाफ कोई शिकायत नहीं की थी। इसके साथ ही, जज साहब का करीब 28 वर्षों का करियर बिल्कुल साफ-सुथरा था।

उनके खिलाफ कभी कोई शिकायत नहीं आई थी और न ही उनकी परफॉर्मेंस रिपोर्ट (एसीआर) में कोई नकारात्मक टिप्पणी थी। सबसे अहम बात यह थी कि जिन लोगों की जमानत याचिकाएं जज जगत मोहन ने खारिज की थीं, उनमें से किसी ने भी हाईकोर्ट में शिकायत नहीं की कि उनसे कोई 'बाहरी मांग' की गई थी या उनके साथ अन्याय हुआ था।

यदि उन्हें लगता कि जज ने भ्रष्ट तरीके से काम किया होता, तो वे अवश्य शिकायत करते। हाईकोर्ट ने यह भी गौर किया कि राज्य सरकार ने जज जगत मोहन के जरिए दिए गए किसी भी जमानत आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती नहीं दी थी। कोर्ट ने कहा कि जांच अधिकारी ने जज के निर्णयों की जांच ऐसे की जैसे वह किसी अपील कोर्ट में बैठे हों। कोर्ट के निर्णयों की जांच प्रशासनिक रूप से नहीं की जा सकती। यदि कोई निर्णय गलत है, तो उसे न्यायिक प्रक्रिया के अंतर्गत ही चुनौती दी जा सकती है।

कोर्ट में चल रही सामंती सोच, राजा और गुलाम जैसा रिश्ता

जस्टिस अतुल श्रीधरन की डिविजन बेंच ने इस आदेश में हाईकोर्ट और डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के बीच के रिश्ते पर बेहद कड़ी और महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट और डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जजों का रिश्ता ऐसा है जैसे एक राजा और उसके गुलाम का रिश्ता। जब डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज किसी हाईकोर्ट के जज से मिलते हैं, तो उनका व्यवहार ऐसा होता है मानो वे उनके सामने गिर रहे हों।

ऐसा प्रतीत होता है जैसे डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज रीढ़ की हड्डी के बिना वाले जीव हों, जो सिर्फ डर के कारण झुकते रहते हैं। अक्सर देखा जाता है कि डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज, हाईकोर्ट के जजों के कहने पर रेलवे प्लेटफॉर्म पर उनकी सेवा करते हैं, उनके लिए खाने-पीने का इंतज़ाम करते हैं। यह सब देखकर ऐसा लगता है जैसे अंग्रेजों के ज़माने की सामंती व्यवस्था अभी भी चल रही हो, जहां एक वर्ग स्वयं को सर्वोच्च समझता है।

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हाईकोर्ट जजों को सवर्ण और डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जजों को शूद्र समझा जाता है

कोर्ट ने आदेश में लिखा कि जब डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज को हाईकोर्ट के दफ्तर में किसी काम से भेजा जाता है, तो हाईकोर्ट के जज उन्हें बैठने के लिए कुर्सी भी नहीं देते। और अगर कभी गलती से कुर्सी मिल भी जाए, तो डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज हाईकोर्ट के जज के सामने बैठने से हिचकिचाते हैं। ऐसा लगता है कि डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जजों के मन पर एक तरह की गुलामी हावी हो गई है, जिसे बदलना मुश्किल है।

डिस्ट्रिक्ट कोर्ट और हाईकोर्ट के बीच का रिश्ता आपसी सम्मान पर नहीं, बल्कि डर और हीन भावना पर आधारित है। हाईकोर्ट के जज जानबूझकर डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जजों के मन में यह डर बिठाते हैं कि वे उनसे कमतर हैं। यह सब देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि न्याय व्यवस्था में भी जाति व्यवस्था की छाया मंडरा रही है। हाईकोर्ट के जज को सवर्ण माना जाता है, जबकि डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज को शूद्र समझा जाता है।

इस मानसिक गुलामी का परिणाम यह होता है कि डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज मानसिक रूप से कमजोर हो जाते हैं। और इसका सीधा असर उनके काम पर पड़ता है। वे जमानत नहीं देते, भले ही केस कितना भी सही क्यों न हो। वे दोषियों को सजा सुना देते हैं, भले ही उनके खिलाफ कोई सबूत न हो, सिर्फ अभियोजन पक्ष को लाभ पहुँचाने के लिए। वे आरोप तय करते हैं जैसे उन्हें किसी को बरी करने की शक्ति ही न हो। यह सब सिर्फ अपनी नौकरी बचाने के लिए होता है। इसी वजह से इस मामले में याचिकाकर्ता को अलग सोचने और सही काम करने के लिए इतना कुछ झेलना पड़ा।

नौकरी बचाने के लिए फैसला देने में हिचकिचाते हैं जिला कोर्ट के जज

जस्टिस श्रीधरन की डिविजन बेंच ने अपने आदेश में लिखा कि डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज हमेशा हाईकोर्ट के डर में काम करते हैं। उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने कोई गलत फैसला दिया, तो उन्हें दंडित किया जाएगा। इसी डर के कारण कई बार वे सही मामलों में भी जमानत देने से हिचकिचाते हैं या बिना पूरे सबूतों के भी दोषियों को सजा सुना देते हैं, सिर्फ अपनी नौकरी बचाने के लिए।

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डिस्ट्रिक्ट कोर्ट है न्याय की पहली सीढ़ी

हाईकोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी राज्य में कानून का राज तभी मजबूत होता है जब उसकी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट, जो न्याय व्यवस्था की पहली सीढ़ी है, स्वतंत्र और निडर होकर कार्य करे। जस्टिस श्रीधरन की डिविजन बेंच ने उच्च न्यायालयों को आत्मनिरीक्षण (अपने अंदर झांकने) की सलाह दी और कहा कि यदि वे डिस्ट्रिक्ट कोर्ट पर बेवजह दबाव डालेंगे, तो इसका बुरा असर पूरे न्याय व्यवस्था पर पड़ेगा।

सैलरी के साथ ही हाईकोर्ट और सरकार मिलकर देंगे 5 लाख का मुआवजा

हाईकोर्ट ने जज जगत मोहन की नौकरी से बर्खास्तगी के आदेश को तुरंत रद्द कर दिया है। चूंकि जज जगत मोहन चतुर्वेदी इस बीच रिटायर हो चुके हैं, इसलिए कोर्ट ने आदेश दिया है कि उन्हें उनकी पेंशन के सभी लाभ वापस मिलें और साथ ही, नौकरी से निकाले जाने की तारीख से लेकर रिटायरमेंट की तारीख तक की पूरी सैलरी 7% ब्याज के साथ दी जाए। यह सब 90 दिनों के भीतर किया जाना होगा। इसके अलावा, रिटायर्ड जज जगत मोहन चतुर्वेदी को 5 लाख रुपये का मुआवजा भी मिलेगा, जिसे सरकार और हाईकोर्ट मिलकर देंगे।

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