सागर का ढाना बना था पाकिस्तानी सैनिकों का अस्थाई ठिकाना, मरने वालों को यहीं दफनाया

बहुत कम लोग जानते हैं कि 1971 में विजय के बाद पाकिस्तान के जिन हजारों सैनिकों ने भारत के आगे हथियार डाले थे, उनमें से करीब 14 हजार युद्धबंदियों को सागर के ढाना गांव में विशेष कैंप में रखा गया था।

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Jitendra Shrivastava
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sagar-dhana Photograph: (thesootr)

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भारत और पाकिस्तान के बीच जारी तनाव अब कम होगा। भारतीय सेना ने अपने शौर्य, पराक्रम का परिचय दिया है। अब पाकिस्तान ने भारत के साथ सीजफायर का ऐलान कर दिया है। इस पूरी कहानी में कूटनीतिक तौर पर भी भारत की बड़ी जीत हुई है। जिस तरह सर्जिकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक हुई थी, इस बार भारत ने तकनीकी रूप से जो कार्रवाई की है, वह शानदार रही। 

आईए, आज हम आपको पाकिस्तान की सेना का मध्यप्रदेश से जुड़ा ऐतिहासिक किस्सा बताते हैं। पढ़िए विशेष रिपोर्ट...

दरअसल, 1971 का युद्ध भारतीय इतिहास का वह स्वर्णिम अध्याय है, जब भारत ने पाकिस्तान को निर्णायक शिकस्त दी थी। इस ऐतिहासिक जीत के साथ ही पाकिस्तान की पूर्वी कमान के करीब 93 हजार सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया। यह सैन्य इतिहास में सबसे बड़े सरेंडर में से एक था।
लेकिन इस महाविजय से जुड़ी कुछ अहम कड़ियां मध्यप्रदेश के सागर जिले में भी छिपी हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि पाकिस्तान के जिन हजारों सैनिकों ने भारत के आगे हथियार डाले थे, उनमें से करीब 14 हजार युद्धबंदियों को सागर के ढाना गांव में विशेष कैंप में रखा गया था।

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ढाना बना अस्थायी युद्धबंदी शिविर

ढाना उस वक्त शांत और कम आबादी वाला क्षेत्र था, भारतीय सेना के लिए यही रणनीतिक स्थान बना। सागर से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित यह गांव, युद्धबंदियों के लिए अस्थायी कैंप में तब्दील कर दिया गया। यहां करीब छह महीने तक पाकिस्तानी सैनिकों को रखा गया। उन्हें कड़ी सुरक्षा के बीच रखा गया, पर कुछ ने फरार होने की कोशिश की, जिन्हें भारतीय सैनिकों ने मार गिराया। वहीं कुछ बीमार पड़े और उनकी मौत हो गई। उन्हें यहीं अस्थायी कब्रिस्तान में दफनाया गया, जिसकी यादें आज भी वहां के बुजुर्गों के जेहन में हैं।

ढाना का चुनाव क्यों हुआ?

पूर्व सैनिकों और इतिहासकारों के अनुसार, ढाना को चुने जाने के पीछे कई कारण थे। एक तो यह इलाका कम आबादी वाला था, यहां साम्प्रदायिक तनाव की आशंका नहीं थी और यह दिल्ली-झांसी-सागर मार्ग से सुलभ था। भारतीय सेना की महार रेजीमेंट के तत्कालीन कमांडेंट कर्नल केएस बक्शी ने ढाना को युद्धबंदियों के लिए उपयुक्त स्थल के रूप में प्रस्तावित किया था और वे इसमें सफल भी हुए। 

1971 के युद्ध की एक और गौरवगाथा सागर की धरती से जुड़ी है। महार रेजीमेंट से कमीशन प्राप्त जनरल केवी कृष्णाराव, जो बाद में भारतीय सेना प्रमुख भी बने, उस ऐतिहासिक क्षण में मौजूद थे जब पाकिस्तान के अधिकारियों ने सरेंडर के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए थे।

विश्व प्रसिद्ध तस्वीर, जिसमें पाकिस्तानी पूर्वी कमान के लेफ्टिनेंट जनरल अमीर अब्दुल नियाजी ने भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण किया, उसमें केवी कृष्णाराव पीछे खड़े दिखाई देते हैं।

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शिमला समझौते के बाद सैनिकों की वापसी 

1972 में हुए शिमला समझौते के तहत युद्धबंदियों की वापसी की प्रक्रिया शुरू हुई। ढाना में ठहरे सभी पाकिस्तानी सैनिकों को विशेष ट्रेन और सैन्य सुरक्षा के साथ वापस पाकिस्तान भेजा गया। आज ढाना सामान्य गांव की तरह जीवन जी रहा है, लेकिन इसकी मिट्टी में वो इतिहास दबा है, जिसे जानना और सहेजना जरूरी है। यहां कभी हजारों विदेशी सैनिकों की आवाजाही, सुरक्षा घेरे, अस्थायी अस्पताल और कब्रिस्तान जैसी व्यवस्थाएं थीं।

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