सुप्रीम कोर्ट ने पूछा- महाधिवक्ता कार्यालयों में OBC, SC-ST और महिलाओं को क्यों नहीं मिल रहा प्रतिनिधित्व?

सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश सरकार से महाधिवक्ता कार्यालयों में आरक्षण को लेकर सवाल किया है। SC ने पूछा कि ओबीसी, एससी, एसटी और महिलाओं को प्रतिनिधित्व क्यों नहीं मिल रहा है। जबकि आरक्षण अधिनियम 1994 का पालन होना चाहिए था।

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Neel Tiwari
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Photograph: (THESOOTR)

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JABALPUR. सुप्रीम कोर्ट ने आज एक महत्वपूर्ण सुनवाई के दौरान मध्य प्रदेश सरकार से सवाल किया है। उन्होंने पूछा कि आखिर राज्य के महाधिवक्ता (Advocate General) कार्यालयों में आरक्षण अधिनियम 1994 का पालन क्यों नहीं किया जा रहा है।

जस्टिस एम. सुंद्रेश और जस्टिस सतीष शर्मा की खंडपीठ ने सरकार को दो सप्ताह की मोहलत देते हुए निर्देश दिया है कि वह OBC, SC-ST  और महिलाओं को दी गई नियुक्तियों का पूरा डाटा सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत करे।

ओबीसी एडवोकेट्स वेलफेयर एसोसिएशन की याचिका

यह मामला ओबीसी एडवोकेट्स वेलफेयर एसोसिएशन द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका (SLP (C) No. 16518/2022) से संबंधित है। जिसकी सुनवाई मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में हुई।

एसोसिएशन की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता रामेश्वर सिंह ठाकुर, वरुण ठाकुर और विनायक प्रसाद शाह ने पक्ष रखते हुए कहा कि मध्य प्रदेश में ओबीसी, एससी और एसटी वर्ग की जनसंख्या लगभग 88 प्रतिशत है, जबकि महिलाओं की आबादी 49.8 प्रतिशत है। इसके बावजूद, राज्य के महाधिवक्ता कार्यालयों में इन वर्गों के अधिवक्ताओं को नियुक्ति में उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया जा रहा है।

सरकारी वकीलों को सार्वजनिक निधि से मिलता है वेतन

याचिकाकर्ता पक्ष ने कोर्ट को बताया कि मध्य प्रदेश आरक्षण अधिनियम 1994 की धारा 2(b), 2(f), 3 और 4(2) में स्पष्ट प्रावधान है कि महाधिवक्ता कार्यालय, जिला न्यायालयों, निगमों और मंडलों में शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्तियों में आरक्षण लागू होगा, क्योंकि उन्हें राज्य की निधि (Public Fund) से वेतन दिया जाता है।
इसके बावजूद महाधिवक्ता कार्यालयों में आरक्षण लागू नहीं किया गया है, जिससे ओबीसी, एससी, एसटी और महिला अधिवक्ताओं को समान अवसरों से वंचित किया जा रहा है।

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500 से अधिक पैनल अधिवक्ताओं के पद

एसोसिएशन द्वारा अदालत को बताया गया कि मध्य प्रदेश के जबलपुर, इंदौर और ग्वालियर स्थित महाधिवक्ता कार्यालयों के अलावा सुप्रीम कोर्ट में भी एडिशनल एडवोकेट जनरल, डिप्टी एडवोकेट जनरल, गवर्नमेंट एडवोकेट और डिप्टी गवर्नमेंट एडवोकेट के लगभग 150 से अधिक स्वीकृत पद हैं।

इसके अलावा 500 से अधिक पैनल अधिवक्ताओं के पद हैं, जबकि जिला न्यायालयों में एक हजार से अधिक और निगमों और बैंकों में मिलाकर करीब 1800 पद हैं। एसोसिएशन का कहना है कि इनमें से अधिकांश पदों पर सामान्य वर्ग के अधिवक्ताओं की नियुक्ति की गई है, जिससे आरक्षित वर्गों का न्यायिक तंत्र में प्रतिनिधित्व नगण्य रह गया है।

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सुप्रीम कोर्ट ने माना मामला गंभीर

वरिष्ठ अधिवक्ता रामेश्वर ठाकुर के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार दोनों जस्टिसों की खंडपीठ ने इस विषय को ‘बेहद गंभीर और संवेदनशील’ मानते हुए राज्य सरकार से जवाब मांगा है। कोर्ट ने कहा कि यदि आरक्षण अधिनियम का दायरा महाधिवक्ता कार्यालयों तक भी है, तो सरकार को यह स्पष्ट करना होगा कि उसका पालन क्यों नहीं किया जा रहा है।

साथ ही, अदालत ने यह भी कहा कि इस मामले में प्रस्तुत आंकड़े महत्वपूर्ण सामाजिक और संवैधानिक पहलुओं से जुड़े हैं, इसलिए राज्य सरकार को सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व का विस्तृत डाटा प्रस्तुत करना आवश्यक है।

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दो सप्ताह बाद होगी अगली सुनवाई

सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश सरकार को दो सप्ताह की मोहलत देते हुए यह निर्देश दिया कि अगली सुनवाई से पूर्व ओबीसी, एससी, एसटी और महिलाओं की नियुक्तियों से संबंधित विस्तृत रिपोर्ट दाखिल की जाए।

यह मामला न केवल मध्य प्रदेश, बल्कि पूरे देश में सरकारी विधिक संस्थानों में सामाजिक न्याय और प्रतिनिधित्व की स्थिति पर बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश आरक्षण कानूनों के वास्तविक क्रियान्वयन और कानूनी संस्थाओं में विविधता बढ़ाने की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल साबित हो सकता है।

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