वत्सला एक ऐसी हथिनी थी, जो कभी मां नहीं बनी, पर जंगल में सबकी 'दादी' थी...

पन्ना टाइगर रिजर्व की 'दादी' वत्सला ने 100 साल से अधिक जीवन जिया। वह केरल से लाकर मध्यप्रदेश में बसाई गई थी। वह कई हाथियों के लिए ममता का प्रतीक बनी, लेकिन कभी मां नहीं बनी।

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Ravi Kant Dixit
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Photograph: (The Sootr)

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BHOPAL. पन्ना टाइगर रिजर्व की 'दादी' अब हमारे बीच नहीं है। हां, मैं यहां वत्सला की बात कर रहा हूं। वत्सला ऐसी हथिनी थी, जिसने एक सदी से अधिक का जीवन जिया। उसने जीवन के सौ बरस पूरे किए। अनगिनत चुनौतियों का सामना किया। बिना मां बने भी वह कई हाथियों की ममता का प्रतीक बनी।

वत्सला वर्ष 1971 में केरल के घने जंगलों से नर्मदापुरम (होशंगाबाद) लाई गई थी। तब वह करीब 50 वर्ष की थी। वह उस समय सिर्फ मलयालम कमांड को समझती थी। लिहाजा, उसे मध्यप्रदेश को अपनाने में देर लगी। शुरू में तो वह महावतों के लिए भी एक पहेली थी।

वत्सला के साथ जीवन के तीन दशक गुजारने वाले मनीराम गोंड बताते हैं, जब मैंने पहली बार उसे पुकारा तो उसने पलक तक नहीं झपकी। मैं हिंदी और गोंडी बोलता था और वत्सला मलयालम समझती थी। हम एक-दूसरे के लिए अजनबी थे।

फिर समय के साथ अजनबीपन गहरे रिश्ते में बदल गया। मनीराम कहते हैं, हाथी इंसानों की तरह ही होते हैं। वे आपकी भावनाओं को समझते हैं। धीरे-धीरे वत्सला ने मेरी आवाज, मेरे स्पर्श को समझना शुरू किया। बिना किसी साझा भाषा के हमने एक-दूसरे को अपना लिया था। 

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नन्हे हाथियों की रक्षक

1993 में वत्सला को पन्ना टाइगर रिजर्व लाया गया। एक साल बाद मनीराम का भी नर्मदापुरम से पन्ना ट्रांसफर कर दिया गया। उनकी जोड़ी बन गई। वत्सला की शांत और सौम्य प्रकृति ने उसे रिजर्व में खास जगह दिलाई।

मनीराम हंसते हुए बताते हैं, वह कभी परेशान नहीं करती थी। बस एक बार, जब वह हौदा बांधे हुए भाग गई थी, तब उसे वापस लाने में हमें एक हफ्ता लगा था। बस यही उसकी एकमात्र शरारत थी।

वत्सला की ममता की कहानियां पन्ना के जंगलों में मशहूर हैं। वह कभी मां नहीं बनी, लेकिन उसने रिजर्व के हर नन्हे हाथी को अपनी छत्रछाया में लिया। नर हाथियों से वह हमेशा दूरी बनाए रखती थी। 

आघातों से भरा जीवन, फिर भी अटूट हौसला

वत्सला का जीवन आसान नहीं रहा। वर्ष 2003 और 2008 में एक नर हाथी रामबहादुर ने उस पर क्रूर हमले किए। वह उससे संभोग (सेक्स) करना चाहता था, लेकिन वत्सला ने ऐसा नहीं करने दिया। रामबहादुर ने वत्सला पर हमला कर दिया। एक बार तो उसका पेट फट गया। उसकी आंतें बाहर आ गईं। नौ महीने उसका इलाज चला, लेकिन उसने हार नहीं मानी।  

2004 तक उसकी आंखों की रोशनी लगभग चली गई थी। वन विभाग ने उसे सक्रिय गश्ती ड्यूटी से रिटायर कर दिया। मनीराम को उसकी देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी गई। मनीराम कहते हैं, वह देख नहीं सकती थी, लेकिन उसे हमेशा पता था कि मैं पास हूं। अपने आखिरी सालों में जब वह पूरी तरह अंधी हो गई थी, तब भी मेरी आवाज सुनते ही वह अपनी सूंड उठा लेती थी।

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गिनीज बुक की अधूरी चाह

वत्सला की असाधारण उम्र ने अधिकारियों का ध्यान खींचा था। वे चाहते थे कि उसे गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दुनिया के सबसे उम्रदराज हाथियों में से एक के रूप में दर्ज किया जाए। उसके दांतों के नमूने वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए लैब भेजे गए।

शुरुआती जीवन के आधिकारिक रिकॉर्ड या पशु चिकित्सा दस्तावेजों के अभाव में यह प्रक्रिया अधूरी रह गई। एक अधिकारी ने बताया, हम बहुत करीब थे, लेकिन वह एक कागज हमें गिनीज रिकॉर्ड के कठिन मानदंडों को पूरा करने से रोक गया।

एपीसीसीएफ (वन्यजीव) एल.कृष्णमूर्ति ने कहा, हाथी की सटीक उम्र का पता लगाने के लिए कोई फोरेंसिक सिस्टम नहीं था। वत्सला को हमेशा याद रखा जाएगा।

1987 बैच के आईएफएस अधिकारी और पन्ना नेशनल पार्क के पूर्व फील्ड डायरेक्टर आर.श्रीनिवास मूर्ति ने भी वत्सला को शांत और सामाजिक प्राणी के रूप में याद किया। उन्होंने कहा, हाथी सामाजिक जीव हैं। वे मातृ सत्तात्मक व्यवस्था का पालन करते हैं। वत्सला इसका जीता-जागता उदाहरण थी। 

मनीराम का खालीपन 

वत्सला के जाने के बाद मनीराम खुद को दिशाहीन महसूस कर रहे हैं। वे कहते हैं, मुझे नहीं पता कि अब मैं क्या करूंगा। पिछले तीन दशकों से वह मेरी जिम्मेदारी थी। उस समय मनीराम को केवल दो रुपए रोज मिलते थे। आज 24 हजार रुपए मासिक सैलरी के बावजूद वे कहते हैं कि वत्सला ही उनके काम का सबसे खूबसूरत हिस्सा थी। वत्सला का नाम भले ही किसी रिकॉर्ड बुक में दर्ज न हो, लेकिन उसकी कहानी पन्ना के जंगलों में पीढ़ियों तक गूंजेगी।

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