अरावली पहाड़ियां सरकारों की लापरवाही से नहीं हो सकीं संरक्षित, कई सालों पहले ही खुल गया खनन का रास्ता

राजस्थान सरकार ने 2010 से पहले 100 मीटर या उससे अधिक ऊंची पहाड़ियों को अरावली हिल्स मानने की परिभाषा तय कर दी थी। इसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सामने आया, जो राजस्थान सहित चार राज्यों पर लागू हुआ।

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Amit Baijnath Garg
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Jaipur. राजस्थान की अरावली पहाड़ियां किसी भी सरकार के दृष्टिकोण में पिछले दो दशकों से कभी स्पष्ट प्राथमिकता नहीं रहीं। चाहे कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की, सभी ने अरावली के संरक्षण की बजाय खनन को प्राथमिकता दी। यदि समय रहते अरावली की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाए जाते, तो शायद आज यह संकट खड़ा न होता। असल में अरावली पहाड़ियां सरकारों की लापरवाही से नहीं हो सकीं संरक्षित।

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100 मीटर ऊंचाई की परिभाषा

राजस्थान सरकार ने 2010 से पहले 100 मीटर या उससे अधिक ऊंची पहाड़ियों को अरावली हिल्स मानने की परिभाषा तय कर दी थी। इसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सामने आया, जो राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा और गुजरात के लिए लागू हुआ।

यह निर्णय इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसे लागू करने में राजस्थान सरकार की सिफारिश को प्रमुख आधार माना गया। अगर राजस्थान सरकार ने पहले ही अरावली संरक्षण को लेकर गंभीर दृष्टिकोण अपनाया होता, तो शायद आज यह संकट न आता।

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2003 तक तैयार हुए थे नक्शे

राज्य सरकार ने 2003 में अरावली क्षेत्र का नक्शा तैयार किया था, जिसमें 100 मीटर या अधिक ऊंचाई वाली भूमि को अरावली पहाड़ियां माना गया था। उस समय अरावली क्षेत्र प्रदेश के 15 जिलों में फैला था, बाद में यह 20 जिलों तक बढ़ गया। जिन जिलों में अरावली पहाड़ियां फैली थीं, उनमें जयपुर, सीकर, अलवर, उदयपुर, पाली और अन्य शामिल थे।

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100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों की परिभाषा

राज्य सरकार ने अरावली पहाड़ियों की पहचान के लिए रिचर्ड मर्फी के लैंडफॉर्म क्लासिफिकेशन (1968) को बेंचमार्क माना था। इस मानक के अनुसार, 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली क्षेत्र माना गया। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में दस्तावेज भी पेश किए गए थे, जिनमें 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को अरावली मानने का दावा किया गया था।

सुप्रीम कोर्ट में दाखिल शपथ-पत्र

फरवरी, 2010 में राजस्थान सरकार ने अरावली पहाड़ियों के संरक्षण और अवैध खनन रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट में शपथ-पत्र दाखिल किया। इस शपथ-पत्र में 100 मीटर से ऊंची अरावली पहाड़ियों में 1008 खनन पट्टों का विवरण दिया गया था। इस शपथ-पत्र के बाद अरावली क्षेत्र में खनन पर और भी विवाद खड़ा हुआ।

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सर्वे ऑफ इंडिया के द्वारा किए गए नक्शे

राजस्थान सरकार ने अरावली पहाड़ियों के पहचान और सीमांकन के लिए सर्वे ऑफ इंडिया से प्राप्त टोपोग्राफिकल मैप का उपयोग किया। इस मैप में कंटूर लाइनों का उपयोग किया गया था, जो पहाड़ियों की ऊंचाई और संरचना को दर्शाते थे।

मर्फी क्लासिफिकेशन के आधार पर पहचान

रिचर्ड मर्फी के लैंडफॉर्म क्लासिफिकेशन के अनुसार, किसी क्षेत्र को अरावली पहाड़ी माना जाता था अगर उसकी ऊंचाई 325 फीट (100 मीटर) से अधिक थी। इसके साथ ही, इस क्लासिफिकेशन के तहत अन्य प्रकार की भौतिक विशेषताओं को भी ध्यान में रखा गया था, जैसे कि पठारों की ऊंचाई और तटीय क्षेत्रों का लोकल रिलीफ।

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खास बातें

  • राजस्थान सरकार ने अरावली क्षेत्र के संरक्षण के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए, जिससे आज अरावली पहाड़ियों का संरक्षण संकट में है।
  • सरकार ने अरावली पहाड़ियों की पहचान के लिए 100 मीटर ऊंची पहाड़ियों को मानक माना, जिसका सुप्रीम कोर्ट ने पालन किया।
  • अरावली क्षेत्र में खनन और पर्यावरणीय प्रभाव पर ध्यान देने की बजाय खनन को प्राथमिकता दी गई।
    सुप्रीम कोर्ट में शपथ-पत्र दाखिल कर राजस्थान सरकार ने 1008 खनन पट्टों का विवरण दिया।

मुख्य बिंदु

  1. अरावली पहाड़ियों के संरक्षण में देरी हुई, क्योंकि राज्य सरकारों ने खनन पर अधिक ध्यान दिया और पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता नहीं दी।
  2. राजस्थान सरकार ने रिचर्ड मर्फी के लैंडफॉर्म क्लासिफिकेशन को बेंचमार्क मानते हुए 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को अरावली माना, जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी स्वीकृत किया गया।
  3. अरावली के संरक्षण के लिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में शपथ-पत्र दाखिल किया और 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों की पहचान की, लेकिन खनन को रोकने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए गए।
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